दास्ताँ ए दर्द !
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रवि पंडित जी ! ओह ! अचानक कितना कुछ पीछे गया हुआ स्मृति में भर जाता है | रीता व देव की देखा-देखी रवि पंडित जी भी उसे दीदी कहने लगे थे | यानि वहाँ वह सबकी दीदी ही थी, एक ऎसी दीदी जो वैसे तो हर जात-बिरादरी से अलग थी लेकिन वैसे ब्राह्मण थी, पंडिताइन ! अब उसका क्या किया जाए जब ऊपर से ही उसने ब्राह्मण-कुल में जन्म लिया था | रवि भी कुछ वर्ष पूर्व भारत से आकर वहाँ बस गए थे, पता नहीं उनकी ज्योतिष विद्या में कितना दम था पर वे पंडिताई तो करते ही थे अत: वो प्रश्न पूछने वालों से घिरे तो रहते ही | उनका लैपटॉप हर समय उनके साथ लटका ही तो रहता, न जाने कहाँ ज़रूरत पड जाए !
एक दिन उसे रवि के साथ लंदन जाने का मौका मिला | हुआ कुछ यूँ कि उस दिन रीता के घर के सभी सदस्य पूरा दिन व्यस्त थे | रीता व देव को बुरा भी लग रहा था, प्रज्ञा कुछेक दिनों के लिए ही तो उनके साथ थी, कुछ चीज़ों से पीछा छुड़ाना अपने हाथ में नहीं होता, वो भी पेट से जुड़े कामों के लिए |
रीता को पता था सप्ताह में दो बार रवि पंडित जी लोगों की पत्री बाँचने कॉवेन्ट्री से लंदन जाते थे | मंदिर में बात होने पर रवि ने कहा था;
"तो उस दिन दीदी अगर चलना चाहें तो मेरे साथ लंदन चली जाएंगी | मैं जितनी देर अपने क्लाइंट्स से बात करूँगा, उतनी देर दीदी को कोई शॉपिंग करनी हो, बाज़ार घूमना हो, वो निबटा लेंगी --"
तय समय पर रवि सुबह-सुबह लैमिंगटन-स्पा रीता के घर पर उसे लेने आ गए, प्रज्ञा उनके साथ लगभग दो-ढाई घंटे की ड्राईव के बाद दस बजे के करीब प्रॉपर लंदन पहुंची थी जहाँ पंडित जी के क्लाइंट उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे |उसने अनुमान लगाया, शायद उन्हें दस बजे का समय दिया गया था |
वह एक गैराज था जहाँ गाड़ियों की सर्विस की जाती थी | कई मैकेनिक टाईप के लोग वहाँ काम कर रहे थे | जगह अच्छी बड़ी थी, पेड़-पौधे भी थे, शायद रवि को वहाँ एक कमरे में बैठने की इजाज़त दी गई होगी या फिर उन्होंने किराए पर अपने 'व्यापार' के लिए वह जगह ली होगी |
"आइए दीदी !" रवि ने एक कमरे में प्रवेश करते हुए कहा था | गाड़ी में से उन्होंने अपना बैग व लैपटॉप निकाल लिया था |
प्रज्ञा के लिए जगह अनजान थी, एक बार एशियन मैकेनिक्स ने रवि पंडित जी की ओर देखकर 'गुड-मॉर्निग' की व फिर से अपने काम में व्यस्त हो गए | शायद उस पर भी एक उड़ती दृष्टि डाली होगी | कमरे के बाहर भी एक रैग्ज़ीन की बैंच थी जिस पर कुछ लोग बैठे बैचेनी से अपने पंडित जी 'डॉक्टर' की प्रतीक्षा कर रहे थे |
हाँ, रवि अपने क्लाइंट्स के लिए डॉक्टर ही तो थे जैसे डॉक्टर अपने मरीज़ों को रंग-बिरंगी गोलियाँ, लिक्विड या ज़रुरत पड़ने पर इंजेक्शन भी ठोक देते हैं, ठीक वैसे ही वो उन्हें कभी कोई मंत्र, कोई यज्ञ अथवा अन्य उपचार बता ही देते थे | प्रज्ञा मंदिर में उन्हें अपने मरीज़ों से घिरा हुआ देख चुकी थी |
रवि के पीछे प्रज्ञा कमरे में प्रवेश कर चुकी थी जहाँ एक मेज़, सामने एक कुर्सी व उसके सामने दो कुर्सियाँ पड़ी हुई थी | हाँ, एक दीवार से सटा पलंग भी था जिस पर रेशमी फूलदार रंगबिरंगी रज़ाई सिमटी सी पड़ी थी जो शायद कभी सुंदर व साफ़ रही होगी | लगता था जैसे कोई सोकर बिस्तर को ऐसे ही छोड़कर चला गया हो | कमरे में एक अजीब सी गंध पसरी हुई थी जो प्रज्ञा को नाख़ुश कर गई |
"आप बैठिए दीदी ---" रवि ने कहा | वह एक डॉक्टर की भाँति अपनी कुर्सी पर जम चुके थे और किसी का नाम पुकारने के लिए अपनी डायरी खोल रहे थे | लैपटॉप खोलकर उन्होंने मेज़ पर जमा दिया था |
प्रज्ञा ने एक नज़र उस बिस्तर पर डाली | पैट्रोल , डीज़ल व ग्रीस जैसी अन्य अजीब सी गंधों से उसका सिर भिन्ना उठा |
"रवि ! मैं ज़रा बाहर बाज़ार में घूम आती हूँ | आपको कितनी देर लगेगी ?" उसका मन वहाँ बैठने का नहीं था | पाँच मिनट में ही वहाँ फैली गंध से उसे अजीब सी घबराहट और मितली सी आने लगी थी | क्षण भर के लिए वह उस बिस्तर पे बैठी तो सही पर जैसे बैठी, वैसे ही उठ भी गई |
"हाँ, ये ठीक रहेगा दीदी, मुझे दो-तीन घंटे तो लग जाएंगे ---आप ऐसा करिए ---"रवि ने एक कागज़ पर उसे बाज़ार व गलियों का नक्शा बनाकर उन पर लैंडमार्क लिख दिए, फ़ोन नं लिखवा दिया और उसे बहुत सारी हिदायतें दे डालीं |
वैसे रवि से उसका कोई पुराना परिचय तो था नहीं फिर भी वह उसके लिए इतना सब कुछ देव व रीता के संबंधों के कारण ही कर रहे थे | वैसे किसी दूसरे देश में अपने देश का कोई अजनबी भी कितना अपना लगता है !
प्रज्ञा जब अपना काम समाप्त करके रीता के पास आई थी उस दिन लैमिंग्टन स्पा के मंदिर में संपूर्ण रामायण की समाप्ति थी | रीता उसे मंदिर लेकर गई और वहाँ सबके साथ इन रवि पंडित जी से उसका परिचय हुआ जो वास्तव में पँजाब के होशियारपुर के थे लेकिन अब स्थाई तौर पर वे वहीं रहते थे | उन्हें वहाँ की नागरिकता जो मिल गई थी | अगले ही दिन रवि पंडित जी के घर उसे देव, रीता के परिवार के साथ डिनर के लिए आमंत्रित कर लिया गया था |
वैसे प्रज्ञा ने विदेश में भारतीयों को कुछ अधिक ही धार्मिक देखा था | वे हर रविवार को मंदिर जाते |भारत में भी लोग अपने धर्म के अनुसार मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे या चर्च जाते ही हैं लेकिन यहाँ मंदिर की सफ़ाई कौन करता है ? बल्कि फूलों, कागज़ों, प्लास्टिकों के ढेर ज़रूर लगा देते हैं लोग, मंदिर की सीढ़ियों के नीचे या मंदिर के आसपास ! शिव जी पर जो दूध मिलाकर पानी चढ़ाया जाता है, वहाँ कीचड़ हो जाती है, कोई उसकी परवाह तक नहीं करता |हाँ, कुछ अपवाद भी हैं किन्तु अधिकतर मंदिरों में लोग सब कुछ ऐसे ही छोड़ जाते हैं |
हनुमान जी के ऊपर बूँदी का प्रसाद चढ़ाया जाता है, कई बार इस प्रकार से हनुमान जी के मुख पर बूँदी चिपका दी जाती है कि वहाँ बुरी तरह गंदगी फ़ैल जाती है | उसको किसीके धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, यह आस्था का विषय है | यह भी सच है कि कई बार प्रज्ञा को लोगों के इस प्रकार के आचरण से बहुत कोफ़्त हुई है | यह सब देखकर उसका मन मंदिर जाने का ही नहीं होता, वह अपने घर में अपने अनुसार ही पूजा कर लेती है !
जहाँ उसका परिचय रवि पंडित जी से हुआ था, वह काफ़ी बड़ा मंदिर था, साफ़-सुथरा भी ख़ुद ही रखना होता | लोग मंदिर में जाकर वैसे ही अपनी सेवाएँ देते जैसे गुरुद्वारों में दी जाती हैं | मूर्तियों को नहलाना, उनका श्रृंगार करना, पूजा के बर्तनों को चमकाकर रखना |
सोने से चमकते थे पूजा के बर्तन ! संगमरमर की मुस्कुराती सी खूबसूरत मूर्तियाँ मानो आशीर्वाद देने के लिए तत्पर ही रहतीं | ऎसी उनकी बनावट थी और ऐसा ही उनका श्रृंगार !
प्रसाद बनाने से लेकर हर त्यौहार पर सभी दर्शन करने वालों के, भक्तों के लिए भोजन बनाने का काम भी सब मिलजुलकर करते | सारा काम स्थानीय लोग ही करते |रवि पंडित जी को सबने मिलकर नौकरी पर रखा हुआ था | कोई ट्रस्ट जैसा था जिसमें से उनकी तनख़्वाह दी जाती | ज़िम्मेदारी सारी उनकी ही थी किन्तु धर्मप्रिय लोग उनकी सहायता करते और मंदिर के बर्तन चमकाने व प्रसाद बनाने में उनकी काफ़ी सहायता हो जाती |
रवि से यह परिचय अच्छा ही रहा, नहीं तो उसको अकेले रेल से लंदन आना पड़ता, पाउंड्स भी ख़ासे खर्च हो जाते |
आदमी कितना स्वार्थी होता है न !
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