आघात
डॉ. कविता त्यागी
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बेटी की माँ बनने की पूजा की अभिलाषा को रणवीर तथा उसकी सास नकारात्मक दृष्टिकोण से ग्रहण करते हुए पूजा पर आरोप लगाने लगे कि वह विरोध करके उनका अपमान कर रही है। इस आरोप से मुक्त होने के लिए पूजा ने उन्हें अपने मंतव्य से सहमत करने का अथक प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। दूसरी ओर रणवीर और उसकी माँ ने अपने मित्रों- परिचितों के घर की महिलाओं को बुला-बुलाकर उनके माध्यम से पूजा को अपने विचार-पक्ष से सहमत होने का दुष्प्रयत्न करना आरम्भ कर दिया कि वह व्यर्थ में ही गर्भस्थ शिशु को जन्म देने की हठ न करें, क्योंकि उसके सभी प्रकट लक्षण बताते है कि उसका गर्भस्थ भ्रूण कन्या है और कन्या को जन्म देना बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन, पूजा पर किसी की बात का प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपने निश्चिय पर अटल थी। उसने दृढ़तापूर्वक स्पष्ट कर दिया कि वह अपने गर्भस्थ शिशु को जन्म अवश्य देगी ! संसार में आने से पहले ही वह स्वयं अपने बच्चे का जीवन समाप्त नहीं कर सकती, इसलिए वह गर्भपात नहीं करायेगी ! पूजा की दृढ़ता को देखकर रणवीर ने अपनी बात मनवाने की नयी युक्ति अपनायी। उसने पूजा से कहा -
‘‘पूजा, यदि तुम इस बच्चे को जन्म देना चाहती हो, तो तुम्हें एक काम करना होगा !’’
‘‘क्या?’’
‘‘तुम्हें भ्रूण-जाँच करानी होगी ! गर्भस्थ शिशु लड़का हुआ, तो तुम उसे जन्म दे सकती हो?’’
‘‘भ्रूण-जाँच पर प्रतिबन्ध है, आपको ज्ञात नहीं है ?’’
‘‘उसकी चिन्ता तुम मत करो ! प्रतिबन्ध के बावजूद यहाँ सब कुछ होता है !’’
‘‘मैं फिर भी भ्रूण-जाँच कराने के लिए तैयार नहीं हूँ !’’
‘‘क्यों तैयार नहीं हो ?’’
‘‘क्यांकि, न तो मुझे यह उचित ही लगता है और न आवश्यक ही ! मैं अपने बच्चे को जन्म दूँगी। अवश्य दूँगी ! वह बेटी हो या बेटा !’’
‘‘हम भी देखते है, तुम इस बच्चे को जन्म कैसे देती हो ! यह तो निश्चित है कि तुम्हारे गर्भ में लड़की है ! हम इस शाप को अपने घर में नहीं आने देंगे !’’
रणवीर ने जो घोषणा मात्र शब्दों में की, उसकी माँ ने उस घोषणा को कार्य-रूप में परिणत करना आरम्भ कर दिया। उन्होनें पूजा को पौष्टिक आहार नहीं देने का निश्चय करके उसका दूध् और पर्याप्त शाक-सब्जी आदि देना बन्द कर दिया। कभी-कभी पूजा सोचती थी कि अपनी इस दशा के विषय में वह रणवीर से बातें करे और समस्या का कुछ समाधन निकाले। लेकिन, वह तो इतना नाराज था कि जब भी घर आता था, पूजा के साथ कटु व्यवहार और मारपीट करना आरम्भ कर देता था। तब पूजा यह सोचकर मन-ही-मन घुटने लगती थी कि जो कुछ भी उसके साथ हो रहा है, सब रणवीर की उसके प्रति उपेक्षा के कारण ही तो हो रहा है । अन्त में पूजा को अपने पति सहित ससुराल के सभी सम्बन्धियों - सास, ननद, आदि के अत्याचार की सीमा तक किये गये कटु व्यवहारों तथा अपौष्टिक-अपर्याप्त आहार के कारण उत्पन्न हुए शारीरिक दुर्बलता और मानसिक तनाव ने घेर लिया। अब ससुराल में रहना उसके लिए असह्य होने लगा था । अपनी इस दशा से मुक्ति पाने के लिए उसने अपने पिता के घर जाने की अनुमति मांगी, परन्तु रणवीर इसके लिए तैयार नहीं था। वह नहीं चाहता था कि पूजा के साथ किये गये उसके दुर्व्यवहारों का पूजा के मायके वालों को पता चले और वे उसके परिवार पर उँगली उठायें। वह यह भी नहीं चाहता था कि पूजा गर्भपात कराये बिना अपने पिता के घर चली जाए और स्वयं स्वस्थ होकर एक स्वस्थ बेटी को जन्म दे !
पूजा भी गर्भावस्था में पिता के घर नहीं जाना चाहती थी । वह नहीं चाहती थी कि उसको पिता के घर में रहकर बेटी को जन्म देना पड़े, इसीलिए पूजा ने एक दिन सुअवसर पाकर विनम्रतापूर्वक रणवीर से पूछा -
‘‘आपको इसमें क्या आपत्ति है कि मै एक बेटी को जन्म दूँ ? आप क्यों नहीं चाहते, आप एक बेटी के पिता बने ? आखिर आपको एक कन्या के नाम से क्यों घृणा होने लगती है ?’’
‘‘नहीं, मुझे अपनी ओर से इसमें कोई आपत्ति विशेष नहीं है कि तुम बेटी को जन्म दो ! न तो मुझे बेटी का पिता बनने में कोई आपत्ति है और न ही मुझे कन्या से घृणा है ! लेकिन, मैं अपनी माँ को प्रसन्न रखना चाहता हूँ और मेरी माँ नहीं चाहती है, तुम दूसरे बच्चे को जन्म दो ! बेटी को तो किसी शर्त पर भी नहीं ! बस, इसीलिए मैं...!’’
‘‘लेकिन मैं भी तो... !’’
‘‘लेकिन-वेकिन मैं कुछ नहीं सुनना चाहता !, तुम्हें मैंने एक बार जो कह दिया, सो कह दिया।’’ पूजा की बात बीच में ही काटते हुए रणवीर ने कहा।
रणवीर के इस उत्तर को सुनकर पूजा निरुत्तर हो गयी। वह जानती थी, उसका पति अपनी माँ के निर्णय के विरुद्ध होकर पत्नी को सहयोग नहीं करेगा । यह भी निश्चित था कि उसकी माँ किसी भी शर्त पर इस बात के लिए तैयार नहीं होगी कि पूजा अपने गर्भस्थ शिशु को जन्म दे, वह भी सम्भवतः एक बेटी को। अतः पूजा ने निर्णय किया कि वह अपने बच्चे की तथा स्वयं की रक्षा के लिए पिता के घर आश्रय लेगी, भले ही इसके लिए उसको अपने पति रणवीर की अनुमति न मिले। उसने अपने मन ही मन कहा -
‘‘जान है, तो जहान है ।’’ और फिर उसने शीघ्रातिशीघ्र पति का घर छोड़कर पिता के घर जाने का निश्चय कर लिया। शारीरिक रूप से वह इतनी दुर्बल हो गयी थी कि प्रियांश को लेकर चलना उसकी सामर्थ्य से बाहर था। परिस्थितियाँ इतनी विषम हो गयी थी कि अपने बेटे प्रियांश से दूर रहने की कल्पना करके ही काँप उठने वाली पूजा आज अपने दूसरे बच्चे का जीवन बचाने के लिए पहले बच्चे प्रियांश को उसके पिता के पास छोड़कर स्वयं उससे दूर जाने के लिए विवश थी ।
अपने निश्चय के अनुरूप पूजा उसी दिन अवसर पाकर किसी को बताये बिना रणवीर का घर छोड़कर चल दी। जब वह रणवीर का घर छोड़कर चली थी, तब प्रियांश सो रहा था। पूरे रास्ते पूजा यह सोचकर व्यथित रही थी कि उसका बेटा प्रियांश जागते ही घर-भर में अपनी माँ को ढूँढता हुआ रोता फिरेगा ! पिता के घर पहुँचकर भी वह अपने इस अपराध के लिए ग्लानि के वशीभूत स्वयं को क्षमा नहीं कर पा रही थी। मातृत्व के भावावेश में उसकी यह व्यथा होठों पर आ गयी और वह स्वयं से ही बात करते हुए बड़बड़ाने लगी -
‘‘काश ! मैं अपने बेटे को अपने साथ ला पाती ! एक तो गर्भावस्था में मेरी अत्यधिक दुर्बलता,... और उस पर रणवीर... ! वह प्रियांश को लाने की अनुमति देता क्या ? नहीं, कभी नहीं ! प्रियांश तो क्या, रणवीर को मेरे आने का पता चल जाता, तो वह मुझे भी नहीं आने देता !’’
पूजा की मनोदशा देखकर माँ ने पूछा -
‘‘बेटी, तू प्रियांश के बिना रह पायेगी ?’’
‘‘माँ, मैं अपने बेटे के बिना नहीं रह सकती ! पर, मेरे पास उसको वहाँ छोड़कर आने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था ! मैं उसको छोड़कर यहाँ नहीं आती, तो मेरा यह बच्चा और मैं दोनों ही जीवित नहीं रह पाते ! मेरे प्रियांश का तब क्या होता ? जीवन-भर उसको माँ के बिना रहना पड़ता ! मैं जीवित रहूँगी तो...!’’
पूजा का वृतान्त सुनकर रमा चुप बैठी रही। कौशिक जी ने भी कुछ नहीं कहा। वे चिन्तित होकर अपने विचारों में खोये-से ऐसे बैठे थे कि पूजा उन्हें देखकर व्याकुल हो उठी -
‘‘मैंने ठीक नहीं किया यहाँ आकर ? मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था ? लेकिन, मैं यहांँ नहीं आती तो कहाँ जाती ? क्या वहीं रहकर अपनी मौत की प्रतीक्षा करती रहती ?’’
‘‘नहीं, बेटी ! तुमने जो कुछ किया उचित किया ! तुमने तो उचित-अनुचित कुछ भी नहीं किया ! करने वाला तो विधाता है ! जो उसने कराया, तुमने वही किया ! अब बस तुम अपना और अपने बच्चे के स्वास्थ्य का ध्यान रखो ! तुम बहुत दुर्बल हो गयी हो !’’ कौशिक जी ने पूजा को तनावमुक्त रहने की प्रेरणा देने की मुद्रा में कहा।
पिता के वचन सुनकर पूजा को थोड़ी-सी राहत का अनुभव हुआ । परन्तु, वह चित्त से अपने बेटे प्रियांश को विस्मृत नहीं कर सकती थी। वह बार-बार बेटे को स्मरण करके व्यथित हो रही थी । बार-बार उसकी ममता हृदय से उफनकर आँखों से बहने लगती थी। कुछ ही समय में प्रेरणा, यश और रेशमा भी यथास्थिति से अवगत हो गये। रेशमा पर तो जैसे यह सुनकर तुषारपात-सा हो गया कि पूजा पति का घर छोड़कर पुनः यहाँ रहने के लिए आयी है। उस दिन तो उसने किसी से कुछ नहीं कहा, किन्तु, अगले दिन ही उसने पूजा को उपदेश देना आरम्भ कर दिया कि वह जो कुछ कर चुकी है और जो अब कर रही है, वह अनुचित ही नहीं, बल्कि उसके और उसके बच्चे भविष्य के लिए अति घातक है। पूजा को कभी-कभी लगता था कि रेशमा जो भी कहती है, उससे छुटकारा पाने के लिए कहती है और कभी-कभी वह सोचती थी कि रेशमा की प्रत्येक बात सत्य है और उसके भविष्य के लिए तथा उसके बच्चों के भविष्य के लिए हितकर है। जब पूजा को यह अनुभव होता था कि रेशमा उसको कटु वचन इसलिए कहती है, ताकि वह अपने भविष्य के हितार्थ कुछ सार्थक निर्णय ले सके, तब वह रेशमा को अपनी विषम परिस्थितियों के विषय में विस्तार से बताती थी। उसी समय वह दृढ़तापूर्वक अपना अटल निर्णय भी बताती थी कि वह इस बच्चे को जन्म अवश्य देगी, जोकि रणवीर के साथ रहकर संभव नहीं था, इसलिए उसे न चाहते हुए भी यहाँ रहना ही पड़ेगा। हाँ यदि, रणवीर स्वयं यहाँ आकर उसके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी लेते हुए उसके गर्भस्थ शिशु को कोई हानि न पहुँचाने का आश्वासन देता है, तो वह उसके साथ जा सकती है। ये बातें पूजा और रेशमा के बीच प्रायः सप्ताह में दो-तीन बार हो जाती थी।
पूजा को मायके में आये हुए चार महीने बीत गये थे । अब उसको पहले की अपेक्षा अधिक देखरेख की आवश्यकता पड़ने लगी थी । रेशमा की सहनशीलता अब जबाव दे गयी थी। अभी तक उसे आशा थी कि या तो रणवीर स्वयं उसको लेने के लिए आयेगा, या उसके द्वारा दिये गये परामर्श और तर्क से पूजा अपना निश्चय बदलकर रणवीर के पास वापिस लौट जायेगी। परन्तु अब उसका अनुमान, उसकी आशा और विश्वास मिथ्या सिद्ध हो चुके थे । अपनी असफलता से रेशमा को अपना अपमान अनुभव हो रहा था और यथावश्यकता पूजा की अतिरिक्त देखरेख होने पर उसको अपनी उपेक्षा का अनुभव होता था । इसी मनोदशा में एक दिन रेशमा ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि वह इस घर में तभी रहेगी जबकि पूजा अपनी ससुराल वापिस चली जायेगी। अपने निर्णय को सुनाते ही रेशमा ने अपना आवश्यक सामान बाँधा और यह कहकर अपने मायके के लिए प्रस्थान कर गयी कि अब वह तभी वापिस आयेगी, जब पूजा अपनी ससुराल चली जाएगी।
कौशिक जी ने तथा रमा ने रेशमा को रोकने का पर्याप्त प्रयास किया था। उन्होंने यश को भी निर्देश दिया था कि वह अपनी पत्नी को समझाए और उसे घर छोड़कर जाने से रोके। परन्तु न तो रेशमा उनके आग्रह से रुकी और न ही यश ने उसे रोकने का प्रयास किया। पिता ने बार-बार यश के इस व्यवहार का कारण पूछा, तो उसने भी रेशमा का पक्ष लेते हुए कहा -
"उसने कुछ भी अनुचित नहीं किया है । वह पूजा के साथ नहीं रहना चाहती । पूजा अपनी ससुराल नहीं जा रही है, इसलिए रेशमा अपने मायके चली गयी है ! वैसे भी, पूजा की देखभाल करने का बोझ रेशमा क्यों उठायें?’’
‘‘यश, रेशमा कौन-सा बोझ उठाती थी पूजा का?’’
‘‘जब रेशमा घर के किसी काम का बोझ नहीं उठाती थी, तो फिर जाने दीजिए ! अपनी मम्मी के घर ही तो गयी है ! वहाँ रह लेगी !’’
‘‘लेकिन कब तक?’’
‘‘जब तक पूजा यहाँ है, तब तक ! पूजा को भी हम सारी उम्र तो यहाँ नहीं रख सकते ! कुछ दिनों बाद पूजा चली जाएगी, तब मैं स्वयं जाकर रेशमा को ले आऊँगा !’’
यश ने जो बात इतनी सहजता से कह दी थी, कौशिक जी के अन्तः में उस बात ने हलचल मचा दी थी। वे जानते थे कि सारी उम्र बेटी को यहाँ रखना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। लेकिन उनके अन्दर का पिता चीख-चीख कर कह रहा था -
‘‘अब इस दशा में अपनी बेटी को कहाँ भेजें ? और क्यों भेजें ? क्या इसका इस घर में इतना अधिकार नहीं है कि अपने प्रतिकूल समय में यहाँ आकर रह सके ?...क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि इस दशा में हम तन-मन-धन से उसकी सहायता करें ? एक ओर बेटी,... एक ओर बहू...! दोनों में से एक का चुनाव ? बेटी को इस समय एक आश्रय और अवलम्ब की आवश्यकता है ! यदि पिता के पास भी यह नहीं मिलेगा, तो फिर कहाँ मिलेगा ? हे ईश्वर, मुझे शक्ति दो कि मैं उचित-अनुचित का निर्णय करके अपने धर्म का पालन कर सकूँ ! यश तथा रेशमा को सदबुद्धि देना कि वे क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर पारिवारिक सम्बन्धों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करें !’’
अन्तिम निर्णय के रूप में कौशिक जी ने यश से कहा -
"रेशमा का इस घर में अपना अलग स्थान है और पूजा का अलग ! वे दोनों ही एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकती हैं ! किसी को भी, विशेषकर रेशमा को किसी प्रकार का तनाव लेने की आवश्यकता नहीं है । पूजा यहाँ उसके अधिकारों को छीनने के लिए नहीं आयी है, न ही वह कभी ऐसा कर सकती है ! इसलिए रेशमा को शीघ्रातिशीघ्र वापिस लौट आना चाहिए !"
रेशमा को कौशिक जी का प्रस्ताव-परामर्श स्वीकार्य नहीं था । उनका सन्देश पाकर भी वह अपनी बात पर अडिग रहते हुए वापिस लौटकर नहीं आयी ।
डॉ. कविता त्यागी
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