कहानी
एहसास का दंश
#लोहे का भारी गेट ठेलकर अंदर कदम रखते ही बंगले के माथे पर खुदे अक्षरों पर मेरी निगाहें टिक गयीं ।
-''मायापुरी ..।" मैं बुदबुदाया-" वाह, भाई साहब ने तो मुम्बई की पूरी सिने नगरी ही बसा ली है अपने बंगले में ।"
मेरे और भाई सहब की उम्र में करीब छह वर्षों का अन्तर रहा होगा। पिता जी तो भाई के ग्रएजुएशन के बाद ही स्वर्गवासी हो गए थे। भाई की इंजीनियरिंग की शिक्षा माँ ने अपने गहने और कुछ खेत रेहन पर देकर पूरी करवाई थी। तब मैं सातवीं में पढ़ता था। माँ ने तब कितना संघर्ष झेलकर घर के खर्चे उठाये थे उसका गवाह मैं हूँ। मैने माँ को छिप-छिप कर रोते देखा है। जब भाई सिंचाई विभाग में इंजीनियर बन गए तब मैंने माँ के चेहरे पर खुशी देखी थी। एक अर्सा बित गया था, माँ को हंसते हुए देखे। माँ के चेहरे पर विषाद की परछाईं मानो स्थाई बसेरा ही बना ली थी। भाई की नौकरी लगने के बाद कुछ दिनों के लिये हमारा घर सुख की चांदनी में डूब गया था।
मेरी पढ़ाई भी सुचारु रुप से चलने लगी थी। माँ तो गाँव की जैसे प्रधानीन ही बन बैठी थी। दिन भर घर के बरामदे मे औरतों का मजमा जमा रहता। माँ बात - बात में ठहाका लगाती थी। सच है दुख के बादल छंटने के बाद सुख की किरण बहुत तीखी हो जाती है। लेकिन सुख की किरण अधिक दिनों तक नहीं रह सकी। धीरे-धीरे दुख की बदली सुख की किरण को निगलती गई। इसकी शुरुआत हुई भाई की शादी के बाद। भाई महानगर की गहराई में डूबते गए। न उन्हें माँ की याद रही और न गाँव की वह धूल-मिट्टी जिस पर लोट-पोट कर भाई ने बचपन बिताया था। मेरी इच्छ थी सिविल सेवा में आने की लेकिन भाई के बेगानेपन ने मुझे प्राईमरी स्कूल का टीचर बनने पर मजबूर कर दिया। एक तरह से यह अच्छा भी हुआ। मैं माँ की देख रेख के साथ खेती -बारी भी सम्हालने लगा। भाई, भाभी और भतीजी की याद बहुत आती थी लेकिन भाई का गैरजिम्मेदारना व्यवहार हमारे बीच इतनी गहरी खाई खोद डाली थी कि हम नदी के दो छोर बन बैठे थे।
मैं आज भी कहाँ आनेवाला था लेकिन बिछावन पर पड़ी मरणासन्न मां की आखीरी इच्छा को अनदेखा करना भी असम्भव था मेरे लिए । आना ही पड़ा।
पोर्टिको तक आते-आते मेरे चिंतन सागर में बीती हुई यादें डूबती-उतराती रहीं।
पर्टिको से गेट तक दोनो ओर की क्यारियों में उगे देशी-विदेशी फूलों पर प्रशंसानात्मक दृष्टि डालते हुए मैं आगे बढ़ गया। दरवाजे के समीप पहुंच कर कालबेल का बटन दबाया। लाख प्रयत्न के बावजूद मैं अपने चेहरे पर चिपकी नाराजगी की झिल्ली को उतार नही पा रहा था। अंदर से किसी के आने की पदचाप सुनकर मैं सचेत हो गया। जबरन मुस्कान का टुकड़ा चेहरे पर चस्पा कर लिया। दरवाजे की झिरी से किसी ने देखा। मैंने सोचा, दरवाजा खुलेगा लेकिन पदचाप की आवाज धीरे धीरे दूर होती गयी। लेकिन दूसरे ही पल गेट खुलने की आवाज पुनः आई। एक किशोरी दरवाजे की झिरी से देखी। मैं उसे पहचान नहीं पाया। पहरावे से वह गृह सेविका तो किसी दृष्टिकोण से दिख नही रही थी। मेरे गांव में बाबू साहब की पोती भी ऐसा फैशन झाड़ कर नहीं रहती है।
किशोरी अधखुले दरवाजा के भीतर से ही पूछी-" आप कहाँ से आये हैं? किससे मिलना है आपको?"
अपनो के पास आकर परायापन का एहसास सा लगा इस लड़की के सवाल से। बोला-" मैं नरसिंह पुर से आया हूँ भैया भाभी से मिलने।"
इतना सुनना था कि लड़की के चेहरे से अजनवीपन का लेप गायब हो गया। वह तत्काल दरवाजे से हटकर अदब से खड़ी हो गयी। भीतर से उसे कुछ आदेश मिला होगा, तभी उसके मुंह से निकला था- जी, मैम। वह आवाज निश्चय ही भाभी की होगी।
मुझे विदेशी सामानों से सुसज्जित आधुनिक ड्राइंग रूम में सोफे पर बिठा दिया गया। मैं उज़बक की तरह ड्राइंग रूम की दीवारों पर जड़े विदेशी पेंटिंग्स देखने लगा। कभी-कभी भव्य सागवान का बना सोफा पर मेरी नजर फिसल जाती। सोफा था भी इतना चिकना की किसी की भी नजर फिसल जाये।
सारी सुंदर ,कलात्मक नायभिरामी चीजों के बीच भी मैं मन में उल्लास की जगह विषाद लिये बैठ था। बिल्कुल परायेपन की फीलिंग हो रही थी। बार- बार याद आ रहा था वह घटना जब मैं किसी काम से अंचलाधिकारी से मुलाकात करने उसके घर गया था तब मुझे इसी तरह कुर्सी पर बिठाकर एक कप चाय भिजवा दिया गया था। कहने को तो मैं अपने भाई के घर आया था लेकिन ऐसा महसूस क्यों हो रहा था जैसे मैं किसी अजनबी के घर में बैठा हूँ।
- "चाय।" उस लड़की के स्वर ने मेरे चिंतन में बाधा डाल दी थी। मैं सेंटर टेबल पर पड़ी चाय के कप को देखता रहा। बेसक ट्रे और कप आकर्षक थे, विदेशी थे लेकिन चाय? वह तो उस अंचलाधिकारी के घर मिली चाय ही जैसी थी। इसमें न रिश्ते की गर्माहट थी, न स्नेह की सुगंध। मैंने बेमन से चाय का प्याला उठा लिया। अभी मैं एक 'सिप' लिया भी नहीं था कि किसी के आने की आहट हुई। एक ब एक पूरे रूम में मानो खुश्बू का बवंडर सा घुस आया हो, ऐसा लगा । मेरी नजर उठ गई। सामने नख से शिख तक शृंगार के चोले में समायी भाभी खड़ी थीं। कप रखकर मैं खड़ा हो गया। आगे बढ़कर उनके कदमों में झुक गया। यह मात्र औपचारिकता थी, बस। सम्मान, लगाव या स्नेह की भावना दूर दूर तक नहीं था।
- "बैठो, बैठो देवर जी। वर्षों बाद देख रही हूँ। अब तो बाँके जवान दिख रहे हो। पहचान में ही नहीं आ रहे।"
मैं भाभी के सामने बैठ गया। उचटती सी नजर भाभी जी पर फिसल गई। भाभी किसी ताजे फूल के गुलदस्ते की तरह महक रही थी। उम्र भी शायद ठहर गया था। शरीर का छरहरापन बरकरार था। तभी तो स्किन-टच जीन्स के ऊपर स्लीवलेस लो कट टॉप के अर्धनग्न पहनावे में किसी अनब्याही युवती सी दिख रही थी। पैर पर पैर चढ़ा कर बेफिक्री के अंदाज में किसी पर पुरुष के सामने इस तरह बिंदास बैठना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैं खुद ग्लानि से सिकुड़ा जा रहा था। गाँव- कस्बे की मानसिकता से मैं मुक्त नहीं हो पा रहा था।
न चाहते हुए मेरे सामने भाभी का वह रूप आंखों के सामने लहराने लगा था जब वे साड़ी में पूरे बदन को छिपाए दुबली पतली सी घर आंगन में सादगी और सुंदरता की प्रतिमा बानी डोलती फिरती थीं। लेकिन आज भाभी के सौन्दर्य में कृतिमता का आवरण चढ़ गया था। व्यवहार में भी अपनापन की जगह मात्र औपचारिकता दिख रहा था। वह खुद को भी रिश्ते की डोर में बंधा हुआ नही पा रहा था। वह कुछ अन्यमनस्क से दीवारों को देखते हुए बोला-" भइया कब आएंगे? उनसे भेंट करना जरूरी है।"
-"मुझे मालूम है, आप भाई से मिलने के लिये ही आये हैं। भाभी से नहीं। लेकिन अभी तो भाभी ही मौजूद है। और आप हैं कि भाभी से आँखें चुरा रहे हैं। "
-" नहीं, भाभी ऐसी बात नहीं।" कहते हुए उसने भाभी पर नजर डाली लेकिन पुनः नजरें झुका लीं। भाभी आधे अधूरे कपड़े पहन कर पैर पर पैर चढ़ाए जिस अंदाज में बैठी थीं, देख कर वह ग्लानि से गड़ गया था। उसे भाभी के सामने रहना अब नागवार गुजरने लगा था। वह कोई बहाना बना कर वहां से टल जाना चाह रहा था।
-" देवर जी, इधर देखिये। माँ कैसी हैं? गांव घर की ख़बर बताइये। यह क्या नई नवेली की तरह सिकुड़े जा रहे हैं। "
-" सब ठीक है भाभी।। मां बीमार चल रही है। वह आप सबों को देखना चाहती है। अपनी पोती में उसके प्राण अटके रहते हैं। भाई का चेहरा देखे वर्षों हो गए। कहती है, आंखें धुँधली हो चली हैं। एक नजर देख लूं बेटे को फिर चाहे आँखों की रोशनी चली जाय, कोई परवाह नहीं। "
-" ओह, मां बीमार हैं तो यहां चली आतीं। बड़े से बड़े डॉक्टर से दिखलवा देती।।"
बूढ़ी माँ चली आती। कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं हुआ आपको। आप क्यों नहीं माँ की सुध लेने गांव चली आयीं? वर्ष पर वर्ष बिताता गया। माँ की आँखें प्रतीक्षा में सुनी सड़क पर टकटकी लगाए रहीं लेकिन आप नहीं आयीं। मत भूलिए भाभी, जिस ऐसोआराम के हिंडोले पर आप झूल रही हैं वह माँ की मेहनत और लगन की देन है। और भी बहुत कुछ कहना चाहता था मैं लेकिन कह नहीं पाया। माँ की कसम ने मेरे ओठ सील दिये थे कि अपना मुंह बंद ही रखना वहाँ। भाई-भाभी से झगड़ मत जाना।
लाख छिपाने पर भी मेरे मुंह पर नाराजगी के भाव आ ही गया। मेरा चेहरा कठोर हो चुका था। मैं थोड़ा अन्यमनस्क हो चला था। उद्विग्नता छिपाने का उपक्रम करते हुए मैंने धीरे से कहा-" कब तक आएंगे भइया?"
-" भाई तो 15 दिनों बाद ही मिल पाएंगे अब तो। सरकारी काम से विदेश गये हैं।"
सुनकर बहुत खीज हुई मुझे भाभी पर। पहले ही बता देना था। लौट जाता मैं। पता नहीं मां किस हाल में होगी? हालांकि जग्गू चाचा को देख रेख करने के लिये बोलकर आया था। फिर भी चिंता तो थी ही।
- " पहले ही बताना था भाभी, अबतक लौट जाता। मां की चिंता लगी है। "
-" चिंता तो मुझे भी है देवर जी। मां को देख आती लेकिन कैसे जाऊंगी? बेबी की पढ़ाई छूट जाएगी। घर सुना छोड़कर आजकल कहीं जाना भी मुश्किल है।"
भाभी बहाना बनाना भी खूब जान गई है। मैंने भाभी के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की। मुझे भाभी के भीतर के भाव और चेहरे पर लिपटे भाव में साम्य नहीं दिखा। मैं चुप ही रहा। वहां खामोशी पसर गई। खामोशी तोड़ी बेबी ने। वह स्कूल से अभी अभी आई थी और चहकते हुए माँ के गले से लिपटने के लिये दौड़ पड़ी थी। लेकिन माँ के साथ एक अजनबी को देखकर ठिठक गई थी।
गोद में अपनी भतीजी को खिलाया था कभी। वर्षों बाद आज इतनी बड़ी होने पर देख रहा था। मेरा दिल भतीजी से दुलार करने को मचल उठा। लेकिन दूसरे ही पल भतीजी को अजनबी की नजर से खुद को घुरते पाकर मेरा उत्साह जाता रहा।
भाभी के परिचय देने पर कि ये तुम्हारे अंकल हैं, बेबी, प्रणाम करो, बेबी की आंखों से अजनबीपन जाता रहा। रिश्ते की अदृश्य डोर से बंधी वह दौड़ कर मेरे फैले बाहों में शमा गई। उसे अंक में लेने के बाद मेरे खून में जैसे उबाल आ गया। जिसे मैंने गोद में खिलाया था, वह गोलू मोलू-सी गुड़िया आज वर्षों बाद गले लग रही थी। मैंने भतीजी के कोपल पर एक पप्पी ले ली। बेबी भी तो अपनों के प्यार के लिए कब से तड़पती होगी! वह और सिमट आई मेरे गोद में।
आधुनिका मेरी भाभी को शायद चाचा भतीजी के इस निश्चल प्यार में भी खोट दिख गया। वह बेबी को डांटने लगी-" बेबी, ठीक से बैठो। " मैं भाभी के कहने का आशय समझ रहा था। लेकिन बेबी के ऊपर कोई असर नहीं दिखा। वह गोद में बैठकर दादी के बारे में, गांव घर के बारे में पूछती रही। मैं भाभी के चेहरे पर उभर आई नाराज़गी की रेखा को साफ पढ़ रहा था।
भाभी बेशर्म ही नहीं, संकलु भी हो गई थीं। व्यवहार से स्वाभाविकता, शालीनता विदा ले चुकी थी। कृतिमता, जिसे शायद आज के सभ्य समाज में व्यवहारिकता कहा जाता है , से भाभी भी ग्रसित ही चुकी थीं।
अपनों के बीच परायेपन के एहसास के समुद्र में कहीं मैं पूरी तरह डूब न जाऊं इसके पहले ही हाथ जोड़ कर मैं विदा लेने की इजाजत लेनी चाही। भाभी ने खा कर जाने को कहा लेकिन मैं बेबी की ओर स्नेह की नजर डालकर निकल गया।
शाम की गाड़ी से गांव लौटते हुए मैं सोचत रहा - अच्छा हुआ भाई से मुलाकात नहीं हुई वरना उनके परायेपन के एहसास की चुभन कैसे बर्दास्त कर पाता मैं ? घर क़रीब आते ही मैं चिंतित हो उठा, क्या जवाब दूँगा , जब माँ अपने लाड़ले बहु-बेटे के बारे में पूछेगी? पोती के बारे में सवाल करेंगी?
मैं उत्तर की तलाश के लिए अंधेरे मन को टटोलता रहा।#
- कृष्ण मनु
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