जो घर फूंके अपना
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चीनी हमले से लुप्त हुई फ़ौजी जीवन की मीठास
उन्नीस सौ बासठ में भारत पर चीनी आक्रमण के लिए भारतीय सेनायें कतई तैयार नहीं थीं. चीनी थलसेना ने भारतीय थलसेना पर एक-एक पर तीन-तीन की तर्ज़ पर ‘मानवीय लहरों ‘के रूप में जब धावा बोला तो उनके साथ हिमालय की दुर्गम ढलानों से नीचे उतरने की सहूलियत भी थी. फिर तो भारतीय सेना का तबला धीन-धीन करके बजना ही था. चीनियों की स्वचालित रायफल्स का सामना भारतीय सिपाही द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की ‘थ्री नॉट थ्री’ बंदूकों से कर रहे थे. न उनके पास पैरों में पहनने के लिए फर-लाइनिंग वाले बूट थे, न हाथों में गरम दस्ताने. उस राष्ट्रीय त्रासदी के दुखदायी परिणाम उस विपदा की घड़ी बीत जाने के बाद खूब चर्चित हुए और सैन्य इतिहासकारों को सोचने-लिखने का खूब मसाला दे गए. लेकिन उन बहुआयामी परिणामों में से एक ऐसा भी था जिस पर सैन्य इतिहासकारों की नज़र अभी तक नहीं पडी है.
किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि चीन के साथ उस युद्ध में हार का खमियाजा आनेवाली कई पीढ़ियों तक सेना के जवानों को भुगतना पडेगा. ब्रिटिश जेलों में सालों के अथक परिश्रम से “भारत की खोज” करने वाले पंडित नेहरू अपने सम्मान पर चीन के हाथों हार का इतना बड़ा धक्का झेल नहीं पाए. युद्ध के चंद महीने बाद ही वे हृदयघात से जाते रहे. नेहरूजी तो विधुर थे. उनके जाने से किसी के दाम्पत्य जीवन पर क्या प्रभाव पडना था! भले बाद में इतिहासकारों ने उनकी मृत्यु से भारत के पूर्व वाइसरॉय माउंटबैटन के परिवार पर लगने वाले आघात का ज़िक्र किया हो. पर यह आघात वास्तविक था या काल्पनिक, कुछ ठोस किस्म का या केवल प्लेटोनिक, इस पर शोध अभी भी पूरा नहीं हुआ है. उधर नेहरू मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ब्याह शादी की इल्लतों से दूर थे. सुना है वे स्वच्छंद उड़ाने भरते थे अतः सिवाय रक्षामंत्री पद से हटाये जाने के उनका भी कुछ विशेष नहीं बिगड़ा. असली गाज गिरी इस पिरामिड की सबसे निचली पायदानों पर टिके बेचारे फौजी जवानों और अधिकारियों की. उन बद्किस्मतों की शादियाँ होनी ही बंद हो गयीं. पूरी तरह से बंद तो खैर इस देश में आज तक सती प्रथा, गांधीवाद और राजनैतिक ईमानदारी भी नहीं हो पायी है: हम लोग हर काम में कोई न कोई कमी छोड़ ही देते हैं. अतः फौजियों की शादी पर भी पूर्ण विराम तो नहीं लग पाया किन्तु उनकी शादियाँ बहुत दुष्कर हो गयीं. भारत चीन युद्ध का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि उसके बाद फ़ौजी कबीरदास लुकाठी हाथ में लिए ‘चलो हमारे साथ’ की गुहार लगाते ही रहे पर अपना ‘घर फूंककर’ उनके साथ आने के निमंत्रण में ज़रा भी दम नहीं रह गया.
चीनी आक्रमण के बाद इस देश की विवाह योग्य कन्याएं, उनके माता पिता और अभिभावक सब बहुत होशियार और चौकन्ने हो गए. संभव है लडकियां स्वयं अभी भी पूरी तरह चौकन्नी न हुई हों पर माँ बाप की मर्जी से विद्रोह करने वाली वीरांगनाएं इस देश में कितनी पैदा हो सकती हैं जिसने 1857 से लेकर आज तक केवल एक अदद झांसी की रानी, एक इंदिरा गांधी और मात्र एक-एक अदद ममता, जयललिता और मायावती पैदा की हैं. जहां तक ‘लिव इन’ अर्थात सहजीवन की मुंह में पानी लाने वाली स्वर्णिम परम्परा का प्रश्न है उसका उस ज़माने में कहीं दूर दूर तक अता पता भी नहीं था. यदि होता भी तो हिमालय की बर्फीली चोटियों पर, राजस्थान और कच्छ की तपती रेत में और पूर्वोत्तर की घने वनों से आच्छादित वादियों में मादा स्नो लेपर्ड, ऊंटनी या मादा भाल, गैंडे तो दिख जाते पर किसी भाग्यशाली फौजी के साथ ‘लिवइन’ सम्बन्ध बनाने को आतुर किसी कन्या के दर्शन कहाँ से होते? ये समझिये कि चीनी सेना ने भारतीय सेना का वन्ध्याकरण तो नहीं किया पर फौजियों की भी शादी होती है या होनी चाहिए इस प्रथा तो क्या, इस विचार को भी बंद होने के कगार पर छोड़कर वह वापस चीन की सीमा में चली गयी. ‘टैक्स डिडक्शन ऐट सोर्स’ जैसी सूझबूझ दिखाते हुए चीनियों ने भारतीय सेना के ही नहीं बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के रास्ते में भी बारूदी सुरंगें बिछा दीं.
धड़ल्ले से जब नक़ल चल रही हो, तभी अचानक सचल निरीक्षकों का उड़न दस्ता किसी परीक्षा कक्ष में छापा मारकर सारी पर्चियां- फर्रे ज़ब्त कर ले और जिस पतलून पर गणित और केमिस्ट्री की फार्मूलों से लेकर मुग़ल वंश के सम्राटों की वंशावली तक अति महीन अक्षरों में लिखने का काम लिया गया हो उसे भी उतरवा कर साथ लेकर चलता बने, ऐसा ही छापा फौजियों की शादी के बाज़ार में चीनी आक्रमण ने मारा. इस आक्रमण के बाद विवाह योग्य कन्याओं के बाप–भाइयों की समझ में आ गया कि कन्या किसी फौजी को सौंपी तो उसके विधवा होने के बाद उन्हें अपनी ज़िंदगी भी उसे विधवा पेंशन दिलाने के लिए की गयी भागदौड़ में होम करनी पड़ेगी. बहुत बदकिस्मत हुई तो उस दुखियारी का पति मरने से पहले कोई असाधारण शौर्य दिखा जाएगा जिसके परिणामस्वरूप उसे एक मरणोपरांत मिलाने वाला शौर्य पदक थमा दिया जायगा और साथ में होगा किसी रिहायशी प्लाट,पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी के अलोटमेंट का आश्वासन. फिर करेला नीम पर चढ़ जाएगा. उस पेट्रोल पम्प या प्लाट के चक्कर में पहले तो उस विधवा की अपनी ज़िंदगी एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर में भाग भाग कर हराम हो जायेगी. फिर पांच-सात सालों में बहुतेरी एडियाँ रगड़ने के बाद वह प्लाट या पम्प या एजेंसी हासिल भी हो गयी तो उसके देवर–जेठ-ससुर आदि ससुरालियों में और उसके बाप-भाई आदि मायके वालों के बीच चील्ह झपट्टे का खेल छिड़ जाएगा कि देखें उस नियामत को कौन पहले हथिया लेता है. अर्थात दिवंगत एक युद्ध लडेगा तो युद्ध के बाद उसकी विधवा से सम्बंधित दो दो परिवार एक लम्बी लड़ाई लड़ेंगे. ऐसे तमाशे देखने के बाद कौन बुद्धिमान अपनी बेटे किसी फ़ौजी से ब्याहना चाहता?
चीन के आक्रमण के पहले फ़ौजी अफसरों के क्या सुनहरे दिन थे? 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही भारतीय सेना को कश्मीर में 1948 में पाकिस्तानी सेना से निपटना पडा था जिसके सैनिक कबाइलियों के भेष में वैसे ही घाटी में कूद पड़े थे जैसे बाबा रामदेव महिला वेश बनाकर रामलीला मैदान के मंच से नीचे सोती हुई भीड़ में. पर कश्मीर में युद्ध विराम होने के बाद एक लंबा अंतराल था 1962 तक का. इन बीच के वर्षों को भारतीय सेनाओं की मौज मस्ती का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है. इन चौदह वर्षों मे फौज़ी अफसरों ने छककर ऐश की. शंका उठ सकती है कि रामचंद्र जी के चौदह वर्षों तक वन में रहने को वनवास कहते हैं तो इन चौदह वर्षों को भारतीय सेनाओं का स्वर्गवास तो नहीं कहा जाएगा? कहें चाहे न कहें, पर सच यही है कि अंग्रेजों के चले जाने के पश्चात उच्च पदों पर पदाधिकारियों का जो वैक्युअम बन गया था वह सिविल और सेना सभी के अधिकारियों के लिए वैक्यूअम नहीं वैकुण्ठ सिद्ध हुआ. प्रकृति शून्य को नहीं झेल पाती है तो नागरिक शासन या सैन्य व्यवस्था कैसे झेल लेती? परिणामतः पांच सात साल की सेवा वाले अफसर कर्नल की रैंक से सुशोभित हो गए, पंद्रह बीस वर्षों की सेवा वाले जो द्वितीय महायुद्ध के अंतिम चरण में 1944-45 में शोर्ट सर्विस कमीशन प्राप्त लेफ्टिनेंट थे वे 1960 आते आते लेफ्टिनेंट जेनरल के पद पर आसीन हो गए.
देश की कमान जिन नेताओं ने नयी नयी संभाली थी उन्हें अंग्रेजों की शासन व्यवस्था देखने समझने का पर्याप्त अवसर मिला था पर सेना के क्रिया कलाप से वे परिचित नहीं थे. अंग्रेजों के ज़माने की पुलिस से भले ही उन्हें घृणा रही हो पर सेना के लिए उनके मन में सम्मान भी था और असम्प्रिक्तता भी. अँगरेज़ अपनी विरासत में जो फौजी संस्कृति छोड़ गए थे उसमे देशभक्ति, अनुशासन,कर्तव्यपालन, बहादुरी व् ईमानदारी का निश्चित रूप से बहुत उच्च स्थान था. पर साथ ही वे दे गए थे बूटों में आईने जैसी चमक पैदा करने के लिए बैटमैनों अर्थात सहायकों की सुविधा, ऑफिसर्स मेस में संचित सुरक्षित पारंपरिक धरोहरों के रूप में ट्रोफीज़, शील्ड्स व कप और अंग्रेज़ी छुरी कांटे जिनकी चांदी की चमक बनाए रखने के लिए मानवसंसाधन अर्थात जवानों की कमी नहीं थी. खाने की टेबुल पर पाश्चात्य ढंग का खाना चमकती वर्दी पहने वेटर सधे हाथों से झुककर परोसते थे. ऑफिसर्स मेस के समारोहों, पार्टियों में आज की तरह के युगल नहीं दीखते थे जो ऊ- ला- ला किस्म की फ़िल्मी धुनों की सी डी लगाकर यौगिक या जिमनास्टिकी मुद्राओं में अपने बदन को तोड़ते- मरोड़ते, एंठते- अकड़ते आपस में दो हाथ की दूरी बनाए रखकर जो कुछ कर रहे हों उसे पाश्चात्य नृत्य बताएं. उन दिनों इन पार्टियों में सैन्य बैंड की वाल्टज़ या फॉक्सट्रोट की सुरीली रोमांचक धुनों पर एक दूसरे के कन्धों या कमर पर हाथ रखे हुए रोमांटिक किन्तु शालीनता के प्रति सचेत मुद्राओं में झूमते लहराते जोड़े नज़र आते थे. टेरीकोट की वर्दियां नहीं चली थीं. खाकी या जैतूनी वर्दियों पर ऐसा कड़क कलफ लगाकर पलटन का धोबी लाता था कि गैरफ़ौजी यदि पहनने का प्रयत्न करे तो उसकी जांघें छिल जाएँ. ऐसी कड़क वर्दी और घुड़सवारी के लिए घुटनों तक ऊंचाई वाले राइडिंग बूट्स पहनने की कठिन प्रक्रिया को रोज़ झेलने की बहादुरी दिखाने के कारण ही साहेब को ‘साहेब बहादुर’ कहने का चलन आरम्भ हुआ होगा. फिर भी इस कड़कपन के साथ-साथ नफासत का ये आलम था कि नेफा के मोर्चे को संभालने के लिए भेजे गए जेनरल साहेब अपना कमोड हवाई जहाज़ से साथ लेकर गए थे.
क्रमशः ----------