दास्ताँ ए दर्द !
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रिश्तों के बंधन, कुछ चाहे, कुछ अनचाहे ! कुछ गठरी में बंधे स्मृतियों के बोझ से तो कुछ खुलकर बिखर जाने से महकी सुगंध से ! क्या नाम दिया जा सकता है रिश्तों को ? उड़ती सुगंधित बयार ? सूर्य से आलोकित देदीप्यमान प्रकाश स्तंभ ? टूटे बंजारे की दूर तक चलती पगडंडी या ---पता नहीं, और क्या ? लेकिन वे होते हैं मन की भीतरी दीवार के भीतर सहेजकर रखी कुनमुनी धूप से जिन्हें मन में बर्फ़ जमने पर अदृश्य खिड़की की झिर्री से मन-आँगन को गर्माहट मिल सकती है | सुन्न पड़े हुए मन के हाथ-पाँव क्षण भर में ही चैतन्य हो जाते हैं और एक गरिमा से मन के तार झँकृत हो जाते हैं |
रीता को पता लग गया था प्रज्ञा किसी काम से इंग्लैण्ड आ रही है | जैसे ही पता चला उसका फ़ोन 'ट्रिन-ट्रिन' बोल उठा | बहुत शैतान हैं प्रज्ञा के बच्चे भी, गुपचुप सारी बातें समुन्दर पार बैठी रीता के पास कितनी आसानी से, बिना माँ-पापा को भनक पड़े पहुँचा देते हैं | अजीब सा रिश्ता है रीता व प्रज्ञा के परिवार का ! सालों पुराना रिश्ता इतनी दूरी से भी एक अलग सी सुगंध से महकता रहता है | इतने मौसम एक साथ ओढ़ता-बिछाता है इनका रिश्ता कि आभास ही नहीं होता, आख़िर चल कौनसा मौसम रहा है !
रीता का पति देव प्रज्ञा से राखी बँधवाता है तो रीता उसकी दीदी हुई लेकिन अपनी सारी मुश्किलों का हल ढूंढने रीता भी प्रज्ञा दीदी को ही खटखटाती है | उसमें पति के साथ मनमुटाव हो या फिर बच्चों की कोई परेशानी ! वे पति-पत्नी दोनों ही प्रज्ञा को दीदी कहते, मन से बड़ी बहन मानते हैं तो प्रज्ञा के बच्चे रीता को दीदी और देव को भैया कहकर अपने मन की सभी बातें उनसे शेयर करते रहते हैं |
अब तो दोनों बच्चे 'हॉस्टलर' हैं किन्तु बेतार का तार है न जोड़ने के लिए ! प्रज्ञा रीता की आवाज़ की छलक सुनते ही समझ गई थी कि उसका सरप्राइज़ तो धरा ही रह गया है, सरप्राइज़ कैसा ? ये पोलम-पट्टी तो खुल चुकी है पहले ही |
' ये बच्चे भी न -----!' भुनभुनाती है प्रज्ञा !
भारत में उस समय दिन के तीन बजे थे, रविवार का उनींदा दिन जो नौ बजे से पहले बिस्तर में से निकलने की इज़ाज़त ही नहीं देता | हर काम में देर करने की पकी हुई आदत ! उस दिन 'कुक' को देरी से बुलाया जाता है, नहा-धोकर 'ब्रंच' से ही काम चलाया जाता है | पेट भरा कि फिर बिस्तर पुकारकर लोरियाँ गुनगुनाने लगता है |
शामत तो आई नहीं थी प्रज्ञा की कि देव व रीता के गर्माहट भरे रिश्ते को झटक सकती | शिकायत का मौका ही तो नहीं दिया उसने रीता को ;
"भई ! चैन तो रखा करो ज़रा ---सब्र ही नहीं है | कर दिया न मेरे सरप्राइज़ का सत्यानाश !" प्रज्ञा रीता के बिना कुछ बोले ही उछल पड़ी |
"कमाल है दीदी ! आदत है आपकी ! चोर की दाढ़ी में तिनका ! मैंने कुछ पूछा क्या आपसे ?" फ़ोन पर ही रीता खिलखिला पड़ी |
"अरे ! तुम्हारे साथ कहने-पूछने की बात ही कहाँ थी, एक मरा ज़रा सा सरप्राइज़ चाहती थी वो भी इन दुष्टों ने ----"प्रज्ञा भुनभुनाई |
"मेरे बच्चों को दुष्ट मत कहना दीदी---" रीता ने उसको पूरी बात कहने का मौका ही कहाँ दिया |
"मैंने कहाँ कुछ कहा ?--- तुमने ही पोलपट्टी खोल डाली ---| " दोनों ओर से दाँत फाड़ने की आवाज़ गूँज गई |
" तो डिटेल्स दीजिए न, हम आएँगे न आपको 'हीथ्रो' पर लेने ---"
"नहीं रीता, मुझे पहले प्रॉपर लंदन-थियेटर में काम है फिर कॉवेन्ट्री जाना पड़ेगा ---"
"तो ---कॉवेन्ट्री तो पास ही है, आप जब आईं थी तब रवि पंडित जी के यहाँ नहीं गए थे हम डिनर पर कॉवेन्ट्री में ?"
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