Aadamkhor - 2 - last part in Hindi Moral Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | आदमखोर - 2 - अंतिम भाग

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आदमखोर - 2 - अंतिम भाग

आदमखोर

(2)

"लम्बरदार, आप----?" साश्चर्य उसने पूछा.

"कौ---कौ----कौन---?"

"मैं हूं सरजू, लम्बरदर!"

"स----स----स---र---- जू----ग----ग----- जब-----ठण्ड ----है----. लगता है----प्राण निकल----जायेंगे." किसी प्रकार रमेसर सिंह कह पाये.

सरजुआ चुप रहा. रमेसर सिंह को कांपता-दांत किटकिटाता देख उसे अच्छा लग रहा था.

"----बूढ़ा----खूसट----खूब गरीबन का खून चूसा है तैने---- अब कहां गई ऊ हेकड़ी----." वह मन-ही मन बुदबुदाया.

"क्या----करने आया था रे यहां?"

"आपै ते तो पूछा रही लम्बरदार पतावर खातिर. आज सुब्बो से वही काटित रही."

"ओह---ठीक है -- ठीक है. हे भगवान--- फसल तो सब सत्तानास हो गई. लागत है पत्थर गिरी----."

सरजुआ फिर चुप रहा. इस समय उसके दिमाग में एक बात घूमने लगी थी, "आज मौका अच्छा है, क्यों न इस पापी को ठिकाने लगा दिया जाय. क्यों न अपने बापू के साथ किए गए इसके अत्याचार का बदला चुका ले."

एकाएक उसकी आंखों के सामने अपने बापू की मौत का दृश्य घूम गया. वह जेठ माह की तपती एक दोपहर थी. सूरज आग उगल रहा था. बाहर लपटें-सी उठ रही थीं और कोठरी के भीतर भट्ठी सुलग रही थी. उसका बापू झिंगला खटोली पर पड़ा तड़प रहा था. वह और मोहल्ले के लोग अवश-उदास नजरों से तिल-तिल समाप्त हो रहे उसे देख रहे थे. और बापू की मौत के लिए जिम्मेदार रमेसर सिंह इस समय उसके पास बैठे ठंड से थरथरा रहे थे.

***

रमेसर सिंह के यहां ही उसका बापू एक प्रकार से बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा था. यह सब उसके बापू को विरासत में मिला था. उसे अपने बाप से यानी उसके बाबा से. उसका बाबा भी रमेसर सिंह के बापू की हलवाही में था और मरते समय हल की मुठिया अपने बेटे रमजुआ को पकड़ा गया था. एक बार पकड़ी हल की मुठिया उसके बापू के हाथों से तभी छूटी जब वह उनके अत्याचार का शिकार होकर उसे अकेला छोड़कर चला गया. वह हताश- हतबुद्धि कुछ न कर पाया था उस आदमी के खिलाफ, जिसने सुलगती रात में महुए की शराब उतारने के लिए उसके बापू को मजबूर किया था.

महुए की कच्ची शराब उतारकर बेचना रमेसर सिंह का वर्षों पुराना धन्धा रहा है, जो पुलिस की मिली-भगत से आज भी बदस्तूर जारी है. उस रात भी सड़े महुओं से शराब उतारी जानी थी. इस काम में उसके बापू को ही लगाया जाता था. उस दिन उसकी तबीयत ठीक न थी. बुखार से उसका बदन तप रहा था. उसने जाने से इनकार कर दिया, लेकिन रमेसर सिंह के लठैतों के सामने उसकी एक न चली. वे उसके बापू को जबर्दस्ती घसीट ले गये. वहां पहुंचकर बापू ने रमेसर सिंह के सामने हाथ जोड़ दिए, "मालिक, बुखार के मारे चक्कर आ रहा है. काम न करि पाउब सरकार."

"महुओं की गंधाहट पा के तेरा बुखार एक मिनट में रफूचक्कर हो जायेगा." होंठ चबाकर बोले थे रमेसर सिंह और जानवरों के बांधे जाने वाले बाड़े की ओर धकियाने लगे थे उसे.

"मालिक मोहते न होई---- मोहका----." उसका बापू गिड़गिड़ा उठा था.

"देखता हूं साले, कैसे नहीं होता…." रमेसर सिंह ने अपने एक लठैत से लाठी छीनकर छः-सात लाठियां बापू की पीठ पर जमा दी थीं. औंधे मुंह गिरकर बेहोश हो गया था उसका बापू और जब होश आया तब वह उस कोठरी में था जिसमें शराब उतारी जाती थी. सामने उसके रमेसर सिंह खड़े थे और कह रहे थे, "अब रात-भर यहां से हिलने का नाम न लेना वर्ना---- अच्छा न होगा."

रात-भर बुखार में तपकर भी बापू काम करता रहा था और सबेरे घर आते ही औंधा मुंह खटोली पर ढह गया था. एक के बाद एक कितनी ही उल्टियां और फिर दस्त शुरू हो गये थे उसे. कुछ ही घंटों में शरीर पीले पत्ते की तरह हो गया था, जैसे खून की एक-एक बूंद निचुड़ गयी हो. मौत मुंह फैलाए उसके बापू को निगलने के लिए क्षण-प्रतिक्षण आगे बढ़ती जा रही थी और वह मौत को परे धकेलने के लिए उपाय सोच रहा था. पैसे एक भी न थे उसके पास. मोहल्लेवाले भी उसी की तरह थे. उनसे मांगना बेकार था. गांव में और किसी से भी उम्मीद न थी उसे कुछ मिलने की,क्योंकि उसका बापू रमेसर सिंह के यहां काम करता था और उसकी मदद करके कोई भी गांववाला रमेसर सिंह से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता. कम-से कम उस समय तो नहीं ही और वह रमेसर सिंह की शक्ल भी नहीं देखना चाहता था. उसे घृणा हो गयी थी उनसे.

"कहां से इन्तजाम करे पैसों का!" वह सोचता ही रह गया था और मौत उसके बापू पर अपने पंजे गड़ा चुकी थी. वह रह गया था अकेला---- बेहद अकेला---- रोता-बिलखता----. तभी उसके आंसू पोंछने दौड़े आए थे रमेसर सिंह, सांत्वना के मरहम से उसके घाव को भरने के लिए. वक्त जरूरत पर मदद करते रहने के आश्वासनों की झोली खोल दी थी उन्होंने उसके सामने. और वह उनसे घृणा करता हुआ न चाहकर भी गाहे-बगाहे मदद लेने के लिए मजबूर होता रहा. लेकिन उनके बहुत कहने के बाद भी वह उनकी हलवाही करने नहीं गया.

***

"आज से अच्छा मौका कब मिलेगा सरजू---- दबा दे इसका टेंटुआ---- बड़ी शान्ति मिलेगी बापू की आत्मा को. कौन जानेगा कैसे मरा ---- दुनिया समझेगी पानी और ठंड से मर गया होगा." उसके हाथ रमेसर सिंह की गर्दन की ओर बढ़ने लगे.

"क---क---का है रे?" कंपकंपाई आवाज में रमेसर सिंह बोले तो उसने अपने हाथ सिकोड़ लिए.

"कुछ नहीं लम्बरदार---- सरदी बहुत है." वह बोला, फिर मन-ही मन सोचने लगा, 'पापी कितना चौकन्ना है!'

बूंदों की धार के साथ छोटे-छोटे ओले पड़ने लगे. सरजुआ के ठीक ऊपर एक डाल थी इसलिए उस पर बहुत असर नहीं हुआ, लेकिन रमेसर सिंह के सिर पर चार-छः ओले आ गिरे तो वह चीख उठे, "हाय मर गया रे---- हाय-हाय सिर फट गया----."

"इधर आ जाओ लंबरदार----." सरजुआ ने उन्हें अपने निकट खींच लिया. वहां भी कुछ ओले छिटककर उनके आ लगे. वह फिर चीखे, "सरजुआ, यहां भी बचना मुश्किल है. देख ये ओले---." रमेसर सिंह ने कुछ ओले उसके सामने बढ़ा दिए.

"लम्बरदार एकै उपाय है. आप हमार यो कोट सिर पर डारि लेव---- साइद कुछ बचत हुई जाय."

"ला रे---- जल्दी ला---- नहीं तो यो सिर सही-सलामत न बची."

सरजुआ ने थेगलिहे और सालों से अनधुले कोट से रमेसर सिंह का सिर ढक दिया. उनको कुछ राहत मिली. सरजू के बदन में अब केवल फटा कुर्ता रह गया था और ठंड थी कि हड्डियां भेदकर अन्दर घुसी जा रही थी. दोनों टांगें हाथों से बांधकर वह उकड़ूं बैठ गया. उसके दिमाग में फिर भूचाल उठा रमेसर सिंह का गला घोंट देने के लिए. वह सर्दी भूल गया और सोचने लगा कैसे रमेसर सिंह के गले में पंजा फंसायेगा, कैसे धीरे-धीरे दबायेगा और जब वह गिड़गिड़ाने लगेंगे तब वह ठहाका मारकर हंसेगा. रमेसर सिंह को तड़पता देखकर मन की आग को कुछ तो शान्ति मिलेगी.

उसने टांगों को घेरे हाथों को छुटाना चाहा. लेकिन हाथ थे कि ठंड में जम-से गये थे. उसने बहुत कोशिश की कि हाथ दोबारा चैतन्य होकर अपना काम शुरू कर दें, लेकिन वे तो चुंबक की तरह टांगों से चिपक कर रह गये थे. एक बार थोड़ी-सी जकड़न ढीली हुई तो लगा जैसे हवा का तीर पसलियों में घुसने लगा है. उसने फिर टांगें छाती से चिपका लीं और हाथ कस लिए.

तभी उसे रमेसर सिंह की आवाज सुनाई पड़ी, 'ओरे सरजुआ, देख तो अब ओला-पानी थम गया है---- किसी तरह घर पहुंचना चाहिए."

रमेसर सिंह का टेंटुआ दबा देने की उसकी योजना धराशायी हो गयी. ओला-पानी सचमुच बन्द हो चुके थे. उसने देखा, रमेसर सिंह उठ खड़े हुए थे. वह भी उठने का प्रयत्न करने लगा, लेकिन उठ न सका. लगा जैसे शरीर जम-सा गया है.

"क्यों रे कितने पूरे काट पाया था पतावर के?"

"होंगे कोई पचास, लेकिन-----."

"लेकिन क्या रे?"

"पचास में से कुल पांच ही बांध पावा रही ----- ओ रहा उनका बोझ---- बाकी सारी पतावर आंधी मा उड़ि गई है, ठाकुर साहब."

"उड़ गयी----? उड़ गयी तो भोगना स्साले हरजाना----" रमेसर सिंह के स्वर में क्रोध स्पष्ट था, "तूने न काटी होती तो काहे को बरबादी होती---- मैं कुछ नहीं जानता."

"इह मा म्हार का दोष, ठाकुर साहब." सरजुआ हतप्रभ उनकी ओर देखने लगा.

"तो मेरा दोष है?--- भाग स्साले." रमेसर सिंह ने एक लात उसके हुमक कर मारी तो वह गिरते-गिरते बचा.

"ले---- सौ रुपये तुझ पर और चढ़ गये करज के---- हो गये अब पूरे ग्यारह सौ." कोट उसके मुंह पर फेंक रमेसर सिंह पगडण्डी पर उतर गये.

सरजुआ की आंखों में सैकड़ों बिजलियां एक साथ कौंध गयी. मुट्ठियां भिंच गयीं और वह उठ खड़ा हुआ.

"आदमखोर----जिनावर----." वह चीखा और उछलकर पगडण्डी पर आ गया.

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