जब आप किसी विश्वास के तहत किसी लेखक की किताब को पढ़ने के लिए उठाते हैं और उसमें आपकी उम्मीद के विपरीत अगर अलग तरह का पढ़ने को मिल जाए तो आपका आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है। ऐसा ही कुछ इस बार मेरे साथ हुआ जब मैंने बहुमुखी प्रतिभा के धनी किशोर श्रीवास्तव जी के कहानी संग्रह "कही अनकही" जो कि उन्होंने मुझे भेंट स्वरूप प्रदान किया, को पढ़ना शुरू किया।
सीधी...सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी उनकी कहानियाँ दर्शाती हैं कि वे अपने आसपास के माहौल पर गहरी नज़र रखते हैं और हर छोटी बड़ी बात उनकी पकड़ में आए बिना नहीं रहती है। इस हिसाब से अगर देखो तो उनके पास अपनी रचनाओं के लिए विषयों तथा किरदारों की कमी नहीं है।
उनकी कुछ कहानियों में हिंदू मुस्लिम एकता की बात मुकम्मल तौर पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही होती है तो किसी कहानी में मुँह बोले रिश्तों को मरते दम तक निभाने को भी कोई तैयार दिखता है। इसी संकलन की किसी कहानी में बूढ़ी माँ के पास मनीऑर्डर भेज बस अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेने और उस बेटे की यादों के सहारे अकेले रहने को मजबूर माँ की दुखदायी कहानी है तो किसी कहानी में बीवी बच्चों की उपेक्षा झेल रहे एक कामयाब पति की व्यथा को लेकर पूरा ताना बाना बुना गया है।
इसी संकलन की एक कहानी में अपनी निजी मजबूरियों के चलते बूढ़ी माँ को बोझ समझने वाले बेटे की कहानी है कि किस तरह सब कुछ खत्म होने के बाद उसकी तथा उसके परिवार की आँखें खुलती हैं। सरल शब्दों में अगर कहें तो उनकी कहानियाँ कहीं ना कहीं हमारे अंदर की कमियों को कभी मार्मिक तो कभी त्रासद ढंग से उजागर करती हैं।
पूरा संकलन पढ़ने के बाद मैंने एक बात नोट की कि अपनी हँसोड़ तबियत एवं प्रसिद्ध छवि के ठीक विपरीत उनकी सभी कहानियाँ एक तरह के सीरियस नोट से बेहद प्रभावित हैं। एक पाठक होने के नाते मुझे ऐसा लगा कि किसी भी किताब में इतनी ज़्यादा नाकारात्मकता होना सही नहीं है। ये सही है कि ज़िंदगी में सिर्फ सुख ही नहीं होते। इन्सान को दुखों से भी आए दिन वाबस्ता होना पड़ता है और सुख की अहमियत भी तभी पता चलती है जब दुख के दर्द का एहसास होता है। इसलिए मेरा लेखक से विनम्र आग्रह है कि अपनी आने वाली पुस्तकों में वो इस बात का ध्यान रखें और अपनी रचनाओं को जीवन के हर रंग से रंगने का प्रयास करें।
पूरे संकलन की कहानियों को पढ़ते वक्त कई मर्तबा ऐसा लगा जैसे लेखक एक बड़े एक्सप्रेस टाइप के हाइवे पर कहानियों की गाड़ी को महज़ 40-50 की स्पीड पर दौड़ा रहा है या फिर ट्वेंटी ट्वेंटी के टूर्नामेंट में टैस्ट मैच जैसी रणनीति अपना रहा हो। एक पाठक के रूप में मेरा मानना है कि जब सामने खुला मैदान हो तो खिलाड़ी को खुल कर खेलना चाहिए।
एक सुझाव और कि उनकी कहानियों को पढ़ते वक्त मुझे ये लगा जैसे कहानी के पात्र कोई और हैं और उनकी कहानी कोई और (सूत्रधार) सुना रहा है। इससे कहानी के कई बार सपाट होने का सा आभास हुआ। इसके बजाए अगर लेखक अपने पात्रों को खुद अपनी कहानी कहने दें (अधिक से अधिक चुटीले संवादों एवं हावभाव के माध्यम से) तो कहानी एक अलग ऊँचे स्तर पर अपने पाठकों को अपने साथ बहाए ले चलेगी।
अंत में चलते चलते एक मज़ाक की बात कि ल... समझ नहीं आता कि ऊपरवाला एक ही व्यक्ति में गायक, एंकर, कवि, लेखक, व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, एक्टर, गंभीर चिंतक, एक निर्दयी संपादक जैसे सभी गुण कैसे और क्यों भर देता है?
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साहित्य तथा कला को लेकर आपके ज़ुनून एवं जज़्बे को सलाम।
उम्दा क्वालिटी के इस 102 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है के.बी.एस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹180/- । आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।