और ये सुमित्रा! इसे तो मैं खूब पहचानती हूं. इसकी तो रग-रग में मुझे नीचा दिखाने की नीयत भरी है. इसीलिये इसने बुड्ढे से मेरी शादी करवाई, इसीलिये ये यहां ले के आई ताकि मेरे सामने ये दोनों अपनी सुन्दरता बखानती घूमें. इस सुमित्रा को इतना नीचा दिखाया, लेकिन तब भी अकल ठिकाने न आई इसकी. ये बड़े भैया बहुत प्यार करते हैं न सुमित्रा को, बड़ी इज़्ज़त करते हैं न..... देखना सुमित्रा इनकी नज़रों में तुम्हें न गिराया तो मेरा नाम बदल के मंथरा रख देना हां. स्वग्त में लगातार खुद से वार्तालाप करती कुन्ती की अन्तिम पंक्ति फिर ज़ोर से निकल गयी. बड़े भैया, जो वहीं बैठे थे, चौंक गये-
’क्या हुआ कुन्ती? किसका नाम मंथरा रखना है?’
कुन्ती हड़बड़ा गयी-
’अरे हम सपना देख रहे थे भैया....... ज़िन्दगी ने इतने बुरे दिन दिखाये हैं न कि इतने बुरे दिन किसी दुश्मन को भी न दिखाये......’ इतना कह के, अपना पल्लू मुंह में ठूंस, कुन्ती सुबकने लगी. बात बदलने के लिये कुन्ती ने सबसे बेहतर सुबकना ही समझा.
कुन्ती के दुख से सबसे सबसे ज़्यादा व्यथित बड़े भैया ही थे. कुन्ती की तमाम हरक़तों के बाद भी उसके लिये उनके मन में पूरा स्नेह था. आखिर थी तो बहन ही. फिर बड़के दादाजी के निधन की ख़बर ने तो जैसे बड़े भैया को तोड़ ही दिया था. उन्हें लगता था कि किस तरह तो वे कुन्ती को इस दुख से बाहर ले आयें. इसीलिये वे चाहते थे कि कुन्ती कुछ समय को वहां अपनी ससुराल से निकले तो शायद मन बदले. ये अलग बात है कि दादाजी की मौत ने कुन्ती को हतप्रभ तो किया था मगर दुखी वो नहीं हो पाई. जिस दिन उसकी पोल खुली और दादाजी ने एकान्त में उसे आगे से ऐसी हरक़त न करने के लिये चेताया था, तब से तो उसे नफ़रत सी हो गयी थी उनसे. लगने लगा था कि ये भी बस सुमित्रा के ही हितैषी हैं. अपनी ग़लती तो कभी मानती ही कहां थी कुन्ती? पूरी दुनिया ही उसे अपने खिलाफ़ साजिश रचती नज़र आती थी. पता नहीं कितनी ही बार उसने सुमित्रा जी के सामने- ’पता नहीं ये बुड्ढा कब मरेगा’ जैसी बद्दुआएं दी थीं और कुन्ती की इस नफ़रत भरी ज़ुबान के एवज़ में मन ही मन भगवान से माफ़ी मांगी थी.
बड़े भैया बहुत देर तक सुबकती कुन्ती के सिर पर हाथ फेरते रहे. फिर रसोई में आ के सुमित्रा जी को सम्बोधित करते हुए, लक्ष्मी भाभी को लगभग चेताया कि कुन्ती का दिल न दुखे, किसी भी बात से. वैसे ही उस पर बहुत बड़ा दुख पड़ा है. ये दोनों तो वैसे भी कुन्ती के दुख को दूर करने की कोशिशों में ही लगी थीं. लक्ष्मी भाभी रोज़ कुन्ती की पसन्द का खाना बनातीं, खाली समय में दुनिया भर की, हंसी-मज़ाक की बातें करतीं ताकि कुन्ती बहल सके, लेकिन कुन्ती इन सब बातों को उल्टे ही रूप में लेती. मन ही मन कुढ़ती- ’ इधर मेरे ऊपर दुख पड़ा है, उसका शोक मनाने की जगह इन्हें पकवान बना के उत्सव मनाने की सूझ रही! हंसी-मज़ाक तो ऐसे कर रहीं जैसे शादी-ब्याह का घर हो!!!! किसी को मेरी परवाह नहीं....!! और कुढ़ती-बिसूरती कुन्ती मुंह ढाप के लेट जाती. कई बार तो सीधे-सीधे कह भी दिया उसने- ’ ऐसे दुख के समय तुम लोगों को हंसी कैसे आ जाती है भाभी?’ और उसे हंसाने की कोशिश करती लक्ष्मी भाभी का चेहरा अनायास फ़क्क पड़ जाता. लगता जैसे कोई ग़लती कर दी हो उन्होंने.
(क्रमशः)