zimmedaar in Hindi Children Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | ज़िम्मेदार

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ज़िम्मेदार

बड़ी माता जी की आँखों में मोतियाबिंद उतर आया ,उन्हें देखने में परेशानी होने लगी |

"आप ऑपरेशन क्यों नहीं करा लेतीं ?"हरिद्वार में रहने वाली माता जी को उनकी पड़ौसन ने सलाह देते हुए कहा |

"हाँ,करा लूँगी---" एक उदास सी आवाज़ में उन्होंने उत्तर दिया था |

प्रेक्षा को यह बात बड़ी माता जी की पड़ौसन ने बताई थी कि अब उन्हें देखने में परेशानी होने लगी थी |

बड़ी माता जी यानि प्रेक्षा की नानी ने अपने लिए एक कुटिया हरिद्वार में बनवा ली थी | वो वहीं रहतीं ,बेटी के पास कभी-कभी ही जाती थीं |

"बेटी है तो बेटी के पास ही रहेंगी न ,क्या हर्ज़ है ?"

पर वो लड़की के पास रहने के लिए सहमत ही न होतीं |

रोज़ सुबह चार बजे से संध्या ,यज्ञ आदि शुरू हो जाते और बड़ी माता जी उनमें अपना मन लगाने का प्रयत्न करतीं |

जीवन की ऊँच-नीच को बहुत अच्छी तरह से समझने वाली बड़ी माता जी यूँ तो आर्यसमाजी थीं ,कोई धर्म-जाति न मानतीं किन्तु जब कोई उनके कपड़े छू लेता वो बड़बड़ करतीं |

प्रेक्षा को उनका दोहरा व्यक्तित्व समझ न आता |

नानी जी को सभी बड़ी माता जी कहते थे ,वो थीं भी बड़ी साहस वाली स्त्री |

न जाने जीवन के कितने वर्षों से अकेली रह रही थीं | माँ लक्ष्मी की उन पर कृपा थी |

बहुत बड़े घर की मालकिन बड़ी माता जी का नाम त्रिवेणी देवी था | उनके पति दिल्ली के बड़े व्यवसायी थे |

प्रेक्षा की माँ बताती थीं कि उनकी कोठी में पीछे की ओर बहुत से 'सर्वेंट क्वार्टर्स' बने थे और उनके बाऊ जी यानि पिता जब ड्राइवर के साथ अपनी गाड़ी में बैठकर लंबे से बगीचे को पार करते उससे

पहले वे माँ के हाथ पर एक गोल ताँबे का पैसा रख देते थे |

जब कभी वो अपनी लाड़ली बिटिया को पैसा देना भूल जाए ,बिटिया गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ लगती हुई आती |

"लगता है बाऊ जी आज बिटिया को पैसा देना भूल गए ---" ड्राइवर कहता |

गाड़ी रुक जाती , बाऊजी गाड़ी से नीचे उतरकर बिटिया को पैसा देते और मुस्कुराकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते |

मुस्कुराकर ,हाथ में पैसा लेकर भागती हुई अपनी बेटी को वो तब तक देखते जब तक वह उन्हें दिखाई देती |

उसके पेड़ों के झुरमुट में छिप जाने पर ही बाऊजी की गाड़ी आगे बढ़ती |

प्रेक्षा की माँ यानि दमयंती ने न जाने कितनी बार उससे अपने उस घर का ज़िक्र किया था जिसमें उनका बालपन बीता था |

खुद खाने में चोर थीं वो ,रोज़ाना बाऊजी के दिए छेद वाले ताँबे के पैसे से वो वहाँ रहने वाले नौकरों के बच्चों के लिए नाश्ता उन्हीं से मंगवाती और उन्हें खाते देखकर खुश होती |

"देखना इत्ता --इत्ता सारा नाश्ता आता था उन दिनों ---" उन्होंने अपने दोनों हाथों को चौड़ाई में फैलाकर न जाने कितनी बार उसे कहानी सुनाई थीं कि प्रेक्षा को वह कहानी रट गई थीं |

बाऊजी के न जाने कितने व्यवसाय थे --सिनेमाघर ,आरा मशीन और हाँ इत्र वाले रामकिशन जी के साथ हीरे के व्यापार में भी वो इतना आगे बढ़ गए थे कि रामकिशन जी को उनके बाज़ार में अधिक

साख होने का भय सताने लगा था |

बाऊजी ने मित्रता के बीच में आने वाले इस भय को महसूस किया और उनके साथ काम करने से हाथ खींच लिया |

समझदार रामकिशन भी थे ,उन्होंने सरलता से व्यवसाय अलग कर लिया किन्तु मित्रता में कोई अलगाव नहीं आने दिया |

इन्हीं बाऊ जी की धर्मपत्नी और प्रेक्षा की माँ थीं बड़ी माता जी | पाँच भाइयों की एकलौती बहन और पति की लाड़ली पत्नी |

ज़िंदगी के बदलाव से बेख़बर त्रिवेणी देवी ने बड़े-बड़े काम खुद खड़े होकर किए थे |

वो अंग्रेज़ों का ज़माना था ,बड़ी माता जी बहुत शिक्षित नहीं थीं किन्तु इतनी उत्साहित व साहसी थीं कि अपने श्वसुर की याद में उन्होंने अनूपशहर में खुद खड़े होकर धर्मशाला बनवाई थी |

प्रेक्षा को वाक़ईआश्चर्य हुआ था जब उसे पता चला कि वह धर्मशाला बड़ी माता जी ने खुद खड़े होकर इतनी बड़ी धर्मशाला बनवाई थी जिसमें माँ उसे लेकर बचपन में छुट्टियों में जाया करती थीं |

गंगाजी के किनारे बनी विशाल धर्मशाला में आस-पास के गाँवों के यात्री हर त्यौहार पर आते और धर्मशाला में ठहरकर गंगा जी में स्नान करते |

प्रेक्षा के विवाह पर बड़ी माता जी ने उसके भात की क्या ज़ोरदार तैयारी की थी |उनके कोई बेटा तो था नहीं लेकिन कोई ऎसी रस्म नहीं थीं जो उन्होंने न निभाई हो |

यूँ तो उनके मायके से भी सारे संबंधी इस विवाह में सम्मिलित होने आए थे किन्तु बड़ी माता जी एक मर्द के समान उसके पिता के साथ खड़ी रहीं |

प्रेक्षा एक ही धेवती थी ,बड़ी माता जी तब तक अपनी हरिद्वार की कुटिया बना चुकी थीं |

प्रेक्षा के विवाह के बाद बड़ी माता जी फिर से अपनी कुटिया में लौट गईं |

प्रेक्षा ने बचपन से देखा था ,बड़ी माता जी के पास कोई न कोई पैसे देने या लेने आता रहता |

"माँ ,ये लोग बड़ी माता जी को पैसे देने क्यों आते हैं ?" किशोरी प्रेक्षा ने एक बार अपनी माँ से पूछा |

"माता जी ने अपना पैसा ब्याज पर चढ़ा रखा है ,वो ब्याज देने आते हैं |"

तब प्रेक्षा को पता चला था कि बड़ी माता जी के पास खर्चे के लिए पैसा कहाँ से आता था |

" पर --उनके पास इतना पैसा कहाँ से आया ?' किशोर मन की उत्सुकता स्वाभाविक थी |

" जब बाऊ जी काम पर बाहर जाते थे ,माता जी के तकिए के नीचे दोनों हाथ भरकर रूपये रख जाते थे |"उन्होंने अपने दोनों हाथ फैलाकर दिखाए थे |

"इतने रूपये ?" आँखों में आश्चर्य भरकर जब प्रेक्षा ने पूछा था ,माँ मुस्कुराईं थीं |

"बाऊ जी ने कभी नहीं पूछा कि जो पैसे वो देकर जाते हैं ,उसमें से कितना खर्च हुआ ,कितना बचा ?"

कमाल ही था न ,आज तो प्रेक्षा उस सबकी कल्पना भी नहीं कर सकती | जीवन के लगभग तीस साल से भी ऊपर बड़ी माता जी ने उस पैसे के ब्याज से अपना गुज़ारा किया था |

अपने श्वसुर की आदमकद ध्यानावस्थित मुद्रा में संगमरमर की मूर्ति बनवाकर माता जी ने उस धर्मशाला में आगे के बरामदे में एक रंगीन संगमरमर के 12 बाई 12 के कमरे में स्थापना करवाई थी |

उसी समय बड़ी माता जी के भाग्य को जैसे नज़र लग गई और वहीं से एक ब्राह्मण कन्या बाऊजी की आँखों में बस गई |

बहाना हुआ ,लड़के के लिए दूसरा विवाह कर रहे हैं |

बड़ी माता जी अपना छिपा हुआ खज़ाना लेकर वहाँ से निकल आईं थीं और अलग एक कमरा लेकर बेटी के घर के पास सहारनपुर में रहने लगीं थीं |

प्रेक्षा ने जब से होश संभाला ,अपनी नानी को माँ के घर के पास अलग कमरे में रहते देखा |

पहले उसे कभी-कभी अनूपशहर धर्मशाला में ले जाया जाता था ,बाद में बंद हो गया |

प्रेक्षा बड़ी होने लगी थी, अपनी शिक्षा ,व अन्य कार्यों में व्यस्त ! उसने भी कभी इस बारे में बहुत नहीं सोचा |

विवाह के बाद अक़्सर माँ के पास जाती | तब तक माता जी की कुटिया बनकर तैयार हो गई थी और वे हरिद्वार में रहने चली गईं थीं |

उसके आने की खबर सुनकर अधिकतर वो उससे मिलने आ जातीं |

" प्रीशू,हरिद्वार में मेरे पड़ौसी बच्चों को पूछते रहते हैं | तू भी इन्हें लेकर आजा कभी ----"

और बच्चों को साथ लेकर प्रेक्षा जब हरिद्वार गई तब उसने माता जी का वो छोटा सा कमरा और रसोई देखी |

ख़ुशी से माता जी जैसे युवा हो गईं थीं | प्रसन्नता से उनकी बाँछें खिली जा रही थीं | सारे पड़ौसियों को दावत दे आईं थीं वे |

" अरे बिटिया ! हफ़्ते भर से बिना घी लगाए रोटी खा रही हैं ये ---" बिलकुल बगल वाली पड़ौसन ने बताया |

"क्यों ?"प्रेक्षा को सुनकर अच्छा नहीं लगा |

" बच्चे आने वाले थे न ---इसीलिए तभी लाऊँगी कहती रही ---" पड़ौसन ने बताया |

" ये क्या बात हुई माता जी ---" प्रेक्षा की आँखों में आँसू भर आए |

"अरे ! तो बज़ार इतना पास थोड़े ही है ,एक हफ़्ते में एक ही बार जाती हूँ | "माता जी ने आँखें चुराकर कहा |

माता जी ने बहुत खूबसूरती से बहाना बना दिया था |माँ ने बताया था ,उन्होंने पूरी उम्र बहुत संभलकर गुज़ारा किया है इसीलिए किसीके आगे कभी हाथ नहीं फ़ैलाने की नौबत आई |

उन्होंने शुद्ध घी के लड्डू ,हलवा -पूरी और न जाने क्या-क्या बनाकर रखे थे |

बड़े चाव से वो बच्चों को परोस रही थीं और बच्चे थे कि मुँह भी नहीं लगा रहे थे |

प्रेक्षा को बहुत दुःख हुआ ,उसका कलेजा मुँह को आने लगा |

उसने खुद कितनी चिरौरी की बच्चों की तब कहीं बड़ी मुश्किल से उन्होंने थोड़ा बहुत खाया |

ख़ैर,बच्चे थे भी चार-पाँच वर्ष के ,खा भी कितना सकते थे ? पर बड़ी माता जी अपना सारा प्यार उन पर ऊँड़ेलना चाहती थीं |

माता जी ने बच्चों के आने की खुशी में अपने पड़ौसियों को दावत दे डाली थी ,कितने आग्रह से सबको खिला रही थीं वे |

गोर-चिट्टे,खूबसूरत बच्चों को सबसे मिलवाकर माता जी बड़ा गर्व महसूस कर रही थीं |

पड़ौसियों की प्रशंसात्मक दृष्टि से वे जैसे फूली पड़ रही थीं | प्रेक्षा को लगा ,वह क्यों बड़ी माता जी से मिलने हर बार यहाँनहीं आ सकती ?

माता जी के पड़ौसी बच्चों को प्यार करते और अपनी हैसियत के अनुसार उनके हाथों में पैसे पकड़ा जाते |

"बड़ी माता जी अभी तो हम रहेंगे ,आप हमारे साथ चलिए न बड़ी मम्मी के घर ---" प्रेक्षा का बड़ा बेटा केवल पाँचसाल का था |

" अब तो तुमसे मिल ली मैं ,अब क्या करूंगी वहाँ जाकर---?

" आप हमारे पास रहना ,जब हम वापिस पापा के पास जाएंगे न तब आप यहाँ आ जाइएगा | "

दोनों बच्चों ने मिलकर इतनी ज़िद की कि माता जी को उनके साथ आना ही पड़ा |

सहारनपुर आते ही प्रेक्षा के बेटे ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि बड़ी माता जी का आँख का ऑपरेशन करवाइए |

माता जी बच्चों की ज़िद पर केवल दो दिनों के लिए आईं थीं ,वे बिलकुल भी तैयार नहीं थीं |

प्रेक्षा व उसकी माँ ने कितनी कोशिश की परन्तु ज़िद्दी बड़ी माता जी माननेको तैयार ही नहीं थीं |

" मुझे पता है ,आप ऑपरेशन क्यों नहीं करवा रहीं ?" छोटे से बच्चे की बात सुनकर सब चौंके |

" ला मिंटी ,अपने भी दे ----"

मिंटी ने अपने गले में लटके छोटे से पर्स में से वो सारे पैसे पलंग पर उलट दिए जो उसे आश्रम से मिले थे |

बेटे दिव्य ने अपनी शॉर्ट की जेब से पैसे निकालकर पलंग पर मिंटी के पैसों में मिला दिए |

"ये रहे ,इतने सारे पैसे ---चलिए मम्मा अब बड़ी माता जी का ऑपरेशन करवा दीजिए,हम बड़े हो गए हैं न !" मिंटी ने बड़े भोलेपन से कहा |

बच्चों ने माता जी की पड़ौसिन की बात सुन ली थी और अपने आप ही न जाने दोनों ने कब सलाह कर ली थी|

बड़ी माता जी बच्चों को अपनी गोदी में समेटकर ज़ार-ज़ार रो पड़ीं |

उनके पास ऑपरेशन करवाने के आलावा कोई चारा नहीं रह गया था |

डॉ. प्रणव भारती