Agin Asnaan - 2 in Hindi Love Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | अगिन असनान - 2

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अगिन असनान - 2

अगिन असनान

(2)

उस दिन जोगी घर लौटा तो चाँद बंसबारी के पीछे उतर चुका था। थाली में धरी रोटी-तरकारी पानी-सा ठंडा। ढिबरी का तेल भी खत्म! पहले तो उसे खूब गुस्सा चढ़ा, आधी रात बीता कर घर की सुध आई! ज़रूर कहीं ताड़ी पी कर पड़ा रहा होगा। मगर मूँज की खटिया में मुर्दे-सा पसर गए जोगी को देख उसका मन अजाने डर से भर गया- क्या तो घटा है उसके प्राण में! चढ़ी हुई आँखें, जलती हुई खाल, धौकनी हुआ सीना... माथे पर हाथ धरते ही ऊंगली के पोर दहक गए। पूरे आँगन में चमेली की गंध फैली हुई थी। उसका शरीर छम-छम कर उठा, हे भगवान! यह कौन-सा हवा-बतास लगा कर लौटा! उसे लाख हिलाया-डुलाया- कहाँ से हो कर आया? श्मशान का दखिन घाट गया था? बूढ़े पाकड़ की छांव में दिशा तो नहीं फिरा? मजार की चौहद्दी में बीड़ी-तंबाकू पीया? बोल भी... मगर जोगी मुंह लपेटे पड़ा रहा।

उसकी लाल, घुलघुली आँखें देख उसका दिल बैठ गया। कल भोरे भोर ओझा को बुला कर झाड-फूँक करवायेगी, गंडा-ताबीज बंधवायेगी। मुट्ठी भर नून-राई देह पर फिरा कर वह बुझते चूल्हे में झोंक आई और उसके सिरहाने बैठ मन ही मन विघ्नहर्ता का जाप करती सूरज उगने का रास्ता देखने लगी। उस वक्त उस अभागी को पता नहीं था, उसके जीवन का सूरज हमेशा-हमेशा के लिए डूब चुका है! जो हवा जोगी को लगी है, जो रोग वह आज जी को लगा कर आया है, उसका दो जगत में कोई ईलाज नहीं!

उस दिन के बाद से जोगी एकदम बदल गया- उसकी नज़र, उसकी चाल, उसका रवैया... उसे देख कर भी नहीं देखता, उसे सुन कर भी नहीं सुनता। दिन-दिन भर जाने कहाँ गायब रहता। कोई कहता, नदी के उस पार जाते देखा तो कोई कहता औघड़ के डेरे पर पड़ा मिला। कचरी हुई मिट्टी का पहाड़ पड़ा रहता, सगुन उसके खाने की थाली लिए इंतज़ार में बैठी-बैठी ऊंघ जाती, धूप देहरी उतर कर चाँद निकल आता मगर उसके जोगी का कोई पता-ठिकाना नहीं मिलता। जाने किस मेले में गुम गया था वह! उसे ढूंढ-ढूंढ कर सगुन का जी हल्कान हो आया था। सख्ती से पूछो तो आँख से टप-टप आँसू चूने लगते। देख कर उसका जी कच्चा हो जाता। इतना लंबा-चौड़ा मर्द कितना बेचारा दिखता है! भीड़ में खोये बच्चे-सा। रोई-रोई आँखें, डांट खाया-सा बदहबास चेहरा! उससे सहता नहीं। क्या हुआ उसके जोगी को! कौन दुश्मन वाण मार गया! मूठ चला गया! किसीने कुछ खिला दिया, मंतर पढ़ दिया... बुढ़वा बाबा के थान पर पाँच सिक्को का प्रसाद चढ़ा आई, काली मंदिर में साष्टांग हो कर जोड़ा पठरू बलि का मानता मांग आई मगर जोगी के चेहरे का रंग ना लौटा ना उसके होश ठिकाने आये।

चलते हुये पैर कहीं के कहीं पड़ते, आँखें ना देखती-सी जाने किस शून्य में हरदम टंगी! देर रात चमेली की खुशबू से तर लौटता और बिना खाये-पिये दूसरी तरफ करवट बदले पड़ा रहता, ऐसे जैसे कोई अजनबी हो। वह छूती तो उसकी खाल सिकुड़ कर सख्त हो जाती। अंग में अंग चुरा कर अपने में सिमट एकदम दुहरा हो जाता। चोर बिलार-सा। कुछ कहता नहीं मगर आँखों से लगता, कोई अपराध घटा है। उसने किसी पराई को छू लिया है। उसका कलेजा कट जाता। वह पराई हो गई अपने जोगी के लिए! उस जोगी के लिए जो वह खुद बन गई थी लगन की पहली रात से। दोनों ने एक-दूसरे की देह ही नहीं ओढा, पहना था, मन भी बदल लिया था आपस में। वह जोगी में रहती, जोगी उसमें… कितनी बार तो वह भूल जाती, वह कौन और जोगी कौन! लोग जोगी को पुकारते और वह जवाब देती जाती। भूख उसे लगती और वह रोटी का टुकड़ा जोगी के मुंह में डालती। उसे खाते-पीते देख उसने तृप्ति का डकार लिया है हर बार!

वह गीली आँखों से देखती, बक्से से लगन का दुशाला, चांदी की बिछिया गुम होते। रोज़-रोज़ कांसे, पीतल के एक-एक बर्तन जाते। धीरे-धीरे जैसे सारा घर ही। दो-चार लत्ते, बासन में उसका निर्धन संसार सिमट कर रह गया था। साथ जोगी की हंसी, आँखों की चमक, बातें... उसका सर्वस्व! वह सब कुछ कहाँ रेहन चढ़ा आया! चांदी-पीतल तो ठीक, जान भी! कौन-सा परदेश गया है वह! कब लौटेगा! लौटेगा भी...! सगुन हिया गला कर रोती- जोगी लौट आ, बहुत हुआ! देख तेरी मिट्टी, तेरा घर-द्वार, तेरी सगुन... हू-हू करते आँसू, पानी के बीच जोगी अनमन, उदास बैठा रहता। कुछ सुन कर भी ना सुनता। सगुन समझती, जोगी उसकी पुकार, उसके स्पर्श के पार कहीं चला गया है। किसी ऐसे देश जहां से लौटने का कोई रास्ता नहीं। उसे शकुंतला की कथा याद आती। उन दोनों के बीच तो ना कोई मुँदरी, ना निशानी, उसका भुला घर कैसे लौटेगा!

वह उसे तरह-तरह से याद दिलाने का जतन करती- जोगी! याद कर, पूस-आषाढ़ की रातें, झड़ता मेह, बूंदी-बादर, सीला-सीला बिछावन... फिर हिम, टांट से गल कर आता कन-कन बतास... बोरसी का ताप... सारा लाज-मरजाद त्याग कर अपनी उतरी देह साध कर खड़ी हो जाती उसके सामने, एक-एक कर कपड़े के घेर खोलती, डिबरी की लौ में उसके गले, कमर की हड्डियाँ चमकतीं, उठान-धसान दीवाल पर छाया बन फैलती... मगर देखते हुये जोगी की आँखें बुझी अंगीठी-सी बेजान बनी रहतीं। जैसे उनमें कोई नज़र ना बची हो। उसकी खुली पीठ का तिल देखता और अचकचा कर आँखें फेर लेता, बुदबुदा कर कहता, मुझे कुछ मत दिखा, मैं अंधा हो गया हूँ!

दुख, अपमान से भरी सगुन देह के साथ अपने कपड़े समेट कर कोठरी के कोने में पसरे अंधकार से जा मिलती और मुंह दबा कर रोती। उसका आहत स्त्री दर्प भीतर ही भीतर पछार खाता। जोगी के लिए अब वह ना देह रही ना मन! गोबर-माटी-सी एकदम निरर्थक हो गयी!

एक बार बहुत मिन्नतों के बाद बोला था जोगी, रोई आवाज़ में, अब मेरा रास्ता मत देख सगुन! मैं चला गया हूँ- मुझमें से, तुझसे, इस जगत के सारे व्यापार से... अब कहीं लौटना मुमकिन नहीं। यह जोगी का डेरा बिल्कुल खाली है, वह तो अपनी झोली उठा कर चल दिया... सुन कर वह अवाक रह गई थी। कोई इस तरह भी बदलता है! सपाट दीवाल-सा चेहरा, पथराई आँख, काठ बन गई भाव-भंगिमा... यह उसका जोगी ही था! यह चमेली की गंध और बेसुध भुजंग-सा रात-दिन लहराता वह... उसकी दिन-दिन हाड़-मांस एक होती काया में जाने अब कौन रहता है! शैतान को कोई और डेरा ना मिला! एक ही तो ठौर था उसका! हथेली भर की झोंपड़ी, मुट्ठी भर मन... वह आसरा भी गया!

एक दिन उसने मंगल को पकड़ा था, जोगी का दोस्त। दोनों बचपन में साथ-साथ जंमीदार के ढोर चराते थे। बहुत आँसू, मिन्नत के बाद आँख चुराते हुये कहा था, कोई बंजारन है, नदी के पार महीना भर से उनका डेरा पड़ा है। रोज़ साँझ के गिरने के साथ उनके तम्बू में गैस की हंडियाँ जलती हैं, नाच-गाना होता है, जोगी...

सुन कर सगुन शोक, भय, क्रोध से गूंगी बन गई थी- उसका जोगी और किसी और औरत के साथ! उस दिन उसने खटिया में मुर्दे-से पड़े जोगी को रई-सई तोड़ कर पीटा था, जो हाथ आया था, उसीसे, झाड़ूँ, बेलन, बांस का फट्टा... ढोर-डंगर की तरह। पीटते-पीटते आख़िर खुद बेदम पड़ गई थी और ऐसे चीख-चीख कर रोई थी जैसे कोई मर गया हो। यह मौत ही तो थी, उसके प्रेम की, विश्वास की, जीवन भर के समर्पण की मौत... उसे भगवान ठगता, उसका जोगी क्यों!

मगर बुरी तरह पिट कर भी जोगी कुछ नहीं बोला था। अपने घाव सहलाते चुपचाप रोता रहा था। सख्ती से भींचे होंठ और धारासार बहती आँखें। उसके बार-बार झिंझोड़ने पर बस इतना ही बोला था, कातर, असहाय स्वर में- इसमें मेरा क्या दोष है, बता सगुन? मैंने कुछ जान कर किया क्या! प्रेम हो गया... मगर तू मुझे क्षमा मत कर, मेरी जान ले ले... ऐसा बोलते हुये जोगी की आँखें कैसी दिख रही थीं, बेआब मोती-सी- उदास और गीली! उसमें उसका सारा मन था, बिना किसी झोल, मिलावट के। वह एकदम से हार गई। जोगी झूठ बोलता, लड़ता, मुड़ कर उस पर हाथ उठाता तो वह भी लड़ती, उसकी जान ले लेती। मगर अब क्या करे! जोगी ने ईमानदारी से अपना सच थमा दिया उसे। उसी से पूछ बैठा, एक बच्चे की तरह, उसका क्या दोष! क्या जवाब दे अब वह उसे? कि प्रेम हो जाना गुनाह है...! झूठ से लड़ने के हज़ार तरीके मगर सच से कैसे लड़ा जाय! उससे लड़ने का हथियार कौन-सा होता है? यह मार-पीट, गाली, श्राप तो कुछ काम ना आया! जोगी की आँखों में गाढ़ा दुख है, मगर पश्चाताप तो कहीं नहीं...

इसके बाद वह जोगी से लिपट कर खूब रोई थी। दर्प का जुआ उतार कर! हार-जीत- हर दशा में तो यही एक ठौर उसका। यहाँ ना आए तो कहाँ जाय। जाएगा जोगी भी कहाँ! जहाज का पंछी ठहरा! उड़-उड़ कर जब भी थका उसे अपना घोंसला याद आया। तो साथ जोगी भी रोया। अपने-अपने दुख में नहीं, एक-दूसरे के दुख में! यह सारे सुख से बढ़ कर कोई बात थी। दुख का ऐसा सुख दोनों ने आज से पहले कभी ना जाना था। अपने-अपने दुख-सुख में दोनों अरसा हुये, बहुत अकेले पड़ गए थे। आज जोगी उसके स्पर्श से बिदका भी नहीं था, क्योंकि आज वह किसी औरत की नहीं, अपनी माँ की गोद में था...

इसके बाद सब ठीक हो गया था। सगुन अपने प्रेम के फूल सिरा कर अपने जोगी के प्रेम में हो ली थी। खुद को हटाये बिना उससे एक कैसे होती! दो मन के बीच दीवाल बन रही थी। तो देह की मिट्टी हटा कर आत्मा के लिए जगह बनाई, ईर्ष्या-द्वेष बुहार फेंका। सुहागन का जोड़ा उतार जोगन का रूप धरा। अपनी टिकुली उतार कर आरसी पर चिपका दिया। जोगी का सब कुछ स्वीकार उसे, उसका प्रेम भी, उसकी मीत भी! तो उसके सुख में अपना सुख ढूँढती वह फिर से मगन हो गई।

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