काला सूरज
रोज़ रात को राहब मोआसा एक ही सपना देखती कि उसके देश यूथोपिया की सारी ज़मीन हरी-हरी घास से भर गई है। खेत-खलिहान अनाज से और घने सायेदार दरख़्त फ़लों से लद गए हैं। रिमझिम बारिश हो रही है। बच्चे पानी से भरे गड्ढों में खेल रहे हैं और वह गोद में गदबदा-सा बच्चा लिए उसे दूध पिला रही है। चूल्हे पर उबलती हाँड़ी भाप उड़ाती खदबद-खदबद पक रही है। उसका लंबा-चौड़ा शौहर कसरती बदन के साथ घर में दािख़ल होता है और वह उठकर उसके आगे खाने की रकाबी रख उसमें गर्म-गर्म खाना परोसती है। तभी बड़े बेटे ने छोटे की पिटाई कर दी और वह उन्हें धमकाने उठती है और चौखट से टकराकर फ़र्श पर माथे के बल गिर पड़ती है। उसके मुँह से चीख़ बुलंद होती है और फ़टाक से आँखें खुल जाती हैं।
राहब रो नहीं पाती है, क्योंकि उसके बदन में पानी बचा ही नहीं है तो आँसू निकलें कहाँ से| वह फ़टी ज़मीन की तरह सूखी सिसकियाँ टुकड़ों में भरती है, फि़र अपने सूखे लटके सीने को, जो उसके बच्चे के लिए सिफ़ऱ् एक भावनात्मक छलावा है, देखती हुई बेटे के मुँह से मक्खी हटाती हुई सोचती है कि चार बच्चे मर गए, कल यह भी मर जाएगा, इसे मैं बचा नहीं सकती हूँ। मेरे पास सिफ़ऱ् सपने का सुख बचा है, जो मैं इसको सुना सकती हूँ, मगर छह मास का बच्चा क्या सपना सुनकर हँसेगा| उसको क्या पता दूध, पानी, अनाज, बारिश, हँसी और खाने की धीमी आँच पर पकना किसे कहते हैं| उसे तो भूख का अनुभव है, अकाल की प्यास का तजुर्बा है जिसको वह बयान नहीं कर सकता, मगर उसकी यह आँखें---| क्या पूछती हैं|
रसद की गाड़ी पहुँच गई। गिरते-पड़ते बच्चे, औरतें, बूढ़े, जवान अपनी रकाबियाँ लेकर दौड़ रहे हैं और राहब मोआसा को लगता है कि यह भीख हम सबको क्यों खानी पड़ती है| क्या कभी हमारा समय नहीं बदलेगा| यह कौन लोग हैं| यह कहाँ से लाते हैं हमारे लिए यह सब| क्या यह इस ज़मीन को पानी से भिगो नहीं सकते हैं| इस पर फ़ल, फ़ूल, अनाज नहीं उगा सकते हैं| यह क्यों हमें सिफ़ऱ् खाना देते हैं| क्या हमें वह प्यारा सपना नहीं दे सकते हैं|
राहब मोआसा अपनी भरी रकाबी लेकर लौटती है। माँ अपने साथ बेटे के पेट की आग बुझाती है। बस्ती में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा जाता है। भूखे पेट में अनाज ने जाकर सबके बदन में जैसे सुस्ती ला दी और उनकी आँखों में नींद का ख़ुमार छा गया। चटखीली धूप छितर गई और तपिश बढ़ गई। राहब ने सोते बच्चे को ज़मीन पर लिटाया और बाहर निकली। रसद-गाड़ियाँ धूल उड़ाती जा रही थीं। वह लौट आई और सोचने लगी कि यह खाना बाँटने वाले सदा सफ़ेद क्यों होते हैं| यह सूरज भी सफ़ेद चमकीला है। क्या इनकी सफ़ेदी का आपसी रिश्ता बहुत मज़बूत है जो इनके पास सबकुछ है|
उदास-सी राहब अपने चारों तरफ़ देखती है। इन औरतों ने अट्ठारह-अट्ठारह, बीस-बीस बच्चे जने मगर अब इनकी गोदें खाली हैं। शायद ऊपर वाले का भी रंग गोरा हो तभी तो उसने चाँद, तारे, सूरज सबको सफ़े़द बनाया, जो भी काम-धाम होता है, वह दिन में, रोशनी में चहल-पहल होती हैं रात काली, ख़ामोश और मौत की बहन नींद को संग लेकर आती है। यह काला रंग सदा शोक और बदिक़स्मती का निशान क्यों है|
राहब उठकर बैठती है, बेटे के चेहरे पर बैठी मक्खियाँ हिलाती है। सोचती है, यह भी कोई काम हुआ| सारा दिन हाथ पर हाथ रखे निकल जाता है। न धोना-पछोड़ना, न पकाना-खाना, न झाड़ू-बुहारू, कुछ भी नहीं, सिफ़ऱ् एक-दूसरे के खटाई होते चेहरे को देखने और दरार पड़ती सूखी ज़मीन को तकने---अगर ख़ुदा काला होता तो---| यह सूरज---यह सूरज तब काला होता---। क्या तब भी यूँ ही चमकता|
एकाएक बेटे के चेहरे पर उसकी नज़र पड़ गई। एक सूखी घुटी रुलाई टुकड़ों में हड्डीले सीने में घुमड़ी और उसने लपककर सोते बच्चे को सीने से लगा लिया। बच्चे ने घबराकर आँखें खोल माँ को देखा। उसके चेहरे पर मासूम हँसी कौंधी जो इतनी अनजानी थी कि माँ बेटे के डरावने चेहरे से सहम गई। बच्चे ने सूखे सीने में अपना मुँह गाड़ दिया। राहब की साँस तेज़ चलने लगी। उसने बेटे के मुँह को चूमना शुरू कर दिया।
रात घिर आई। खुले आसमान परर बड़ा-सा चाँद टँग गया। अपने-अपने बच्चों को समेट सब अपने खोल में छुपने लगे। राहब को भी ठंडी मंद हवा के चलने से नींद आ गाई। उसने देखा, पूरा यूथोपिया हरे-हरे पेड़ों से ढक गया है। हर जगह चहल-पहल है, दुकानें सामान से भरी हैं और घर पकवानों से। हर एक की ज़बान पर ख़ुशी का तराना हैं उसके सामने एक ऊँचे क़द का जवान खड़ा हाथ हिला-हिलाकर कुछ कह रहा है। उसको घेरे भीड़ उसकी बातों पर ताली बजा री है और धीरे-धीरे उस लड़के का चेहरा उसके बेटे से मिलने लगा। उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू भर आए। उसका बेटा जवान हो गया है। उसका चेहरा कैसा चमक रहा है, जैसे---जैसे काला सूरज हो।
चारों तरफ़ से ‘काला सूरज िज़ंदाबाद’ के नारे लगने लगे। ख़ुशी में दीवानी राहब बेटे को गले लगाने आगे बढ़ी। दोनों हाथ फ़ैलाकर उसने जवान बेटे को सीने से लगाया और कसके उसे बाँहों में भींचा। चारों तरफ़ से एक शोर बुलंद हुआ हारैर वह बेटे के साथ खड़ी उपहार में दिए फ़ूलों को सँभालती आगे बढ़ने लगी। तभी किसी ने उसे धक्का दिया और फ़ूल हाथ से गिर गए। उसकी आँखें खुल गईं।
उसे घेरे सारे मर्द-औरत खड़े थे। उसकी बाँहों में छह मास का लड़का बेदम चिपका था। उसने हैरत से सबका मुँह ताका। सपना और सच उसे गड्डमड्ड लगा। उसके हाथों की जकड़न से बच्चे को आज़ाद करके एक अधेड़ औरत ने उसे ज़मीन पर लिटाया और उसकी नाक के पास हाथ लगाया, किसी और ने राहब को झँझोड़ा। राहब ने उस औरत का हाथ ज़ोर से झटका और झुककर बेटे का माथा चूमा और बुदबुदाईµ”काला
सूरज---मेरा काला सूरज---एक दिन सबकुछ बदल डालेगा---मैंने सपपना देखा है---सपना।“
भीड़ छँटने लगी। राहब की गोद सूनी हो गई। ठीक उस धरती की तरह बंजर, जिसने बीज क़बूल करना और अखुवा फ़ोड़ने बंद कर दिए हों। मगर उसने सपना देखना बंद नहीं किया, हर रात वही एक सपना देखती है। खुश होती है और ऊँचे क़हक़हे लगाती है। औरतें उसे देखकर दुखी हो कहती हैं कि राहब पागल हो गई है, मगर राहब ने सबकुछ खोकर वह सपना अपना बना लिया है।
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