मैं एक आधा किसान और आधा मजदूर का बेटा हूँ
मेरे पिता के पास दो बीघा समतल और
तीन बीघा उबड़-खाबड़ ज़मीन है
इनमें से कुछ चौरहा तो कुछ बटइआ की शर्तों पर
किसी दूसरे किसान को दे दी गयी है वर्षों से
हर साल उपज जाते हैं कुछ अनाज जिससे
मेरी दादी बना लेती है मोटी-मोटी रोटियाँ
कुछ अच्छे चावल को बेचकर खरीद लेती है
नमक-गुड़,जीरा-गोलकी और सौ ग्राम हुमाध
बाकी बचे खुद्दी को बना लेती है गीला भात
इतने में ही खत्म हो जाती है मेरे घर की किसानी
शेष बचे हुए पिता रह जाते हैं एक मजदूर
उनके पास मजदूरी के बखत पहनने को
दो कम दामों की कमीज और पायजामा है
उन्होंने कमीजों का नाम दिया है ड्यूटी वाला शर्ट
माँ उसे धोते हुए हर रविवार को परेशान होती है
सुना है कि सालों पहले पिता ने रोपा था प्याज
दादी बताती है ज़मीन में धँसी थी बड़ी-बड़ी पोटियाँ
उसके बाद ख़ूब रुआँसा होकर कहती है
इंदर देवता इतना गुस्साए कि पोटियाँ
ज़मीन में ही रह गयी और गल कर हो गयी पानी
और उसी साल पिता जी ने हल-अरौवा फेंक
पहुँच गए लुधियाना,फिर बन गए मजदूर
मेरे पिता आत्महंता होने से बच गए।
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वो नफरत के बीज बोने का कारोबार करता था
और मेरा कारोबार था प्रेम से उस बीज को सींचना
जब उसे नफ़रत वाला फल नहीं मिलता
वह बहुत ज्यादा हो जाता था बेचैन
फिर मुर्दा कर लेता ख़ुद को या बन जाता था प्रेमी
वह फिर से रोप रहा है नफरत का बीज
मैं फिर से उसके वन में प्रवेश कर गया हूँ
उसे फिर नहीं मिलेगा नफरत का फल
मेरा नाम हिंदुस्तान है।
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जब मुस्कराती है लड़कियाँ
मैं उन मुस्कुराहटों से अपनी स्मृतियों को
सजाता हूँ और खुद को खुशनुमा बनाता हूँ
सिर्फ़ चमनिया और अठनिया नहीं होती हैं
लड़कियों की मुस्कानें,अनमोल होती हैं।
जब बक-बक करती है बेमतलब
तब मैं चुनता हूँ उसके मीठे बोल जो कि
मुझमें घुल जाता है मिश्री की तरह
और मैं भी बोलने लगता हूँ प्यार की बोली
सिर्फ़ लिपिस्टिक के रंगों पर लहालोट नहीं होता हूँ।
मुझे धानी चुनरिया आकर्षक लगती हैं
जब वह लहराती है हवाओं में तो
लगता है जैसे हवाओं से जीत लेगी
और कर देगी धानी मरियल धानों को
फिर भर जाएंगे खेत मीठे चाउर से
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सरकारें दमन करती है
ताकि,युग-युगों तक सत्ता पर रह सके काबिज़
सरकारें जो अधिक मूर्ख होने के बाद भी चुनी जाती है
वह करती है दमन स्थूल यंत्रों से
वह चलवाती है लाठियां और गोलियां
देती है उलूल-जुलूल भाषण
देश को भर देती है साम्प्रदायिक बयानों से
करवा देती है कई-कई दंगे
और चीथड़ी हो जाती है जनता की देह
एक दूसरी सरकार भी होती है
पाँच-दस साल की सत्ता नहीं चाहती है वो
वो सत्ता रच लेती है सतयुग से कलयुग तक
वो गढ़ लेती है कोई नकली ईश्वर और
करवा देती है धरती पर निष्ठुर मेघों की बारिश
जिससे जनता की आत्मा हो जाती है जर्जर
और बच जाता है समूचा जिश्म...।
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एक मौसम होता है बसंत
जब आता है बहारों को साथ लाता है
नींद को भर देता है ख़ुशनुमा सपनों से
आंखों को भर देता है रंगीनियों से
दिल को बना देता है एकदम बसंती
एक मौसम ऐसा भी होता है जिसमें
ज़ज्ब होती है निष्ठुर असफलता
कुछ दर्द और असीमित घुटन
और भी न जाने क्या-क्या!
हमने दोनों मौसम देखा है।
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मैं घूम आता हूँ जहाँ-तहाँ
धरती से लेकर आसमान तक
नदी-सागर कहाँ नहीं डूबता-उतरता हूँ
मुझे डर नहीं लगता
पर,जब कोई मुझसे चुरा लेता है
मेरे नीम के पेड़ों और बसंत के दिनों को
मैं एकदम रुआँसा हो जाता हूँ
क्या पता है आपको
डरने से भी ज्यादा कमज़ोर करता है
रुआँसा हो जाना?