पछतावा (लघु कथा)
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
किचन के हर बर्तनों की अपनी एक प्रकृति होती है और उनका कठोर व नाजुक स्वभाव होता है। जैसे लोहे की कड़ाहीे, तवा, स्टील की गंजियाँ, थाली, चम्मचें, कटोरियाँ आदि का स्वभाव सदा कठोर होता है। पर इसके विपरीत क्राकरी और काँच का अपना नाजुक स्वभाव एवं प्रकृति होती है। इसीलिए तो किचिन में इनको अलग से शो केश में रखा जाता है, बड़े प्यार और सम्हाल कर।
काँच के शो रूम में बैठी क्राकरी, रोज स्टील के बर्तनों की धुलाई के समय मन ही मन कुढ़ती रहती। सिंक से आ रही आवाज को बड़े ध्यान से सुनती और सोचती कि एक साथ धुलने में कितना आनंद आता होगा। किचिन की यह मालकिन कितनी गंदी है। मुझे उनके संग रहने का आनंद ही नहीं लूटने देती। वह हमें उनसे इतना दूर क्यों रखती है। हमें उनसे घुलने मिलने ही नहीं देती है। हम भी तो इनके किचिन की एक शोभा हैं। हम में और उनमें इतना भेद क्यों ? मेहमानों के सामने हम तस्तरी में बैठ कर इनका कितना सम्मान बढ़ाते हैं, यह हमारी मालकिन हमारे बारे में जरा भी यह नहीं सोचती कि समय कितना बदल गया है ? आज क्या कठोर और क्या नाजुक ? कहाँ भेद रह गया है। समानता का युग चल रहा है। हम सब बराबर हैं।
एक बार किचिन में नई नवेली शादी होकर घर की मालकिन आई। उसने स्टील के वाश बेसिन में, बर्तनों के साथ धुलने के लिए क्राकरी की वर्षों से दबी हुई इच्छा की पूर्ति कर दी। उसने सोचा ये भी किचिन का ही एक अंग हैं, उनके साथ ही सभी की धुलाई एक साथ होना चाहिए । यह भेदभाव ठीक नहीं। सभी को समानता का अधिकार मिलना चाहिए। उसने किचन के सभी जूठे बर्तनों को उठाया और स्टील के वाश बेसिन में डाल दिया।
बर्तनों ने अपने साथ क्राकरी को देख कर कहा- “बहिना तुम यहाँ क्यों आई हो। हम लोग तो ठहरे कठोर और मोटी चमड़ी वाले। तुम ठहरी नाजुक कोमल प्रकृति की। हमारा तुम्हारा इस तरह से मेल उचित नहीं है। तुम अपनी मालकिन से बोल कर अपनी व्यवस्था अलग से कर लो। नहीं तो नाहक तुम्हें कष्ट उठाना पड़ेगा।
थोड़ी देर बाद ही नई दुल्हन ने नल चालू किया और सबको हिला डुला कर बर्तनों को माँजना चालू कर दिया। क्राकरी की वर्षों की साध आज पूरी हो रही थी। बड़ी खुश थीं।
क्राकरी को तो अपनी नई मालकिन पर बड़ा गर्व था। उसने मुँह बिदकाते हुए कहा तुम्हें तो अपने आप में बड़ा घमंड हो गया है। और उसकी बात को अनसुना कर दिया।
थोड़ी ही देर बात देखा, क्राकरी अपनी सहेलियों से बिछुड़ कर डस्टबीन में पड़ी कराह रहीं थीं। नई मालकिन अंदर से सहमी घबराई आने वाले संकट से परिचित थी। अपनी सासु माँ की डाँट से अपने आप को बचाने बहाने की तलाश कर रही थी।
और इधर डस्टबिन में पड़ी क्राकरी के कानों में अब भी उन बर्तनों की आवाज गूँज रही थी।.....
पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत.....
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”