Divy Drashti in Hindi Short Stories by Naval books and stories PDF | दिव्य दृष्टि

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दिव्य दृष्टि

जवानी के तेवर बड़े ही सुहाने होते हैं,यदि इसमें दोस्तों का प्यार और संग मिल जाए तो हमारी खुशियों पर चार चांद लग जाते हैं। मैं भी अपने युवावस्था में अपने दोस्तों के साथ कुछ इस कदर ही खोया था -
आज सुबह से ही में अपने दोस्तों के संग मौज मस्ती में इतना व्यस्त और खुशियों में इतना घुला हुआ था कि मत पूछो शायद ही मुझे पहले कभी इससे ज्यादा खुशी की अनुभूति हुई हो, साथ मैं हमनें खूब मौज मस्ती की किसी एक बात को लेकर हम सभी दोस्त उसके ऊपर इतना हंस पड़े थे कि मानो हंसी के ठहाकों ने,ऊंची ऊंची बुलंदियों को इस कदर छू लिया था कि सारे खिल खिलाकर इधर उधर लोट-पोट हो गए। वक्त भी अपने कर्म पथ पर अड़िग था जो आंगन से चुपके-चुपके अपनी किरणों को छिपाकर निकलता जा रहा था। सांझ की बेला हुई? अंधकार भी बढ़ने लगा था यह देख हम सभी मित्र अपने-अपने घर चल पड़े।

में! मुस्कुराते हुए अपने घर आ पहुंचा, कुछ समय बाद में हाथ मुंह धोकर अपने शयन कक्ष पर आया और लेट गया,पुनः मुझे उसी बात का स्मरण बार-बार हो आता और खिलखिलाने लगता, कुछ समय बाद भी मेरे हंसी रुकी तो, मैं दीवार घड़ी की ओर एकाएक दृष्टि से उसे निहारने का प्रयत्न करने लगा,
दीवार घड़ी समय की गति के साथ क्रमश: बढ़कर टिक-टिक कर ध्वनि संकेत दे रही थी,जिसने मेरी दृष्टि को ये दर्शाया 6:30 बज चुके हैं।
कुछ क्षण व्यतीत हो जाने पर में मैं एकाग्रचित्त होकर घड़ी को निहारता रहा मुझे उसमें एक दिव्य प्रकाश दिखाई दिया जिसमें मेरी देह समा गई, में खुद से इस प्रकार मन ही मन में प्रसन्नचित्त भाव से मुस्कुराते हुए कहने लगा,इस हंसते मुस्कुराते वक्त की रंगीन घड़ियों को समेट लूँ? क्या पता कल ऐसे हंसी खुशी घड़ी मिले या ना मिले,यदि मैं इस घड़ी की सुई को रोक दूं तो क्या पता मेरी हंसती खेलती मुस्कुराती जिंदगी भी जिंदगी भी खेलती मुस्कुराती जिंदगी भी जिंदगी भी इन्हीं पलों में थम जाएं कुछ समय बाद मैंने खड़ा होकर दीवारघड़ी के सेल निकाल दिए,
और हाथ में सैल लिए तभी अकस्मात मस्तिष्क में एक घने अंधकार का निर्माण हुआ, और उसमें से एक दिव्य ज्योति निकल आई और वह अंधकार मिट गया मैं अपने समक्ष क्या देखता हूं कि एक दिव्य ज्योति मेरे समक्ष आ पड़ती हैं जिसका आदि है ना अंत, जिसका अस्तित्व मेरी आंखों की झोली में समा न सका, उसके ततपश्चात ये ब्रह्मांड बहुत ही तेजी से मेरे चारों ओर घूमने लगता है, मैं इसके दर्शन मात्र से भय ग्रस्त हो गया और ये दुनिया के चलचित्र,दौर ये वक़्त हंसकर अपनी विराट और अद्भुत सी आवाजों मैं कहतें है, हे मिट्टी से बने मानव!! क्या तू अपनी मिट्टी के पहचान भूल गया, मुझे रोकना तेरे वश में नहीं है मानव, तुझे रोकने के लिए मेरे इस माटी में बल ही कहां है मानव, तू मुझे रोकना ही चाहता है तो फिर! रोक मुझे,
हे मिट्टी के तुछ मानव मैं तेरी दृष्टि की झोली में मेरा संपूर्ण और सीमा रहित रूप नहीं दर्शन देने वाला।

तूने उस दीवार घड़ी को तो रोक लिया मैं उसके अंदर ही मौजूद था,तुझे मैं नहीं दिखाई दिया लेकिन मैं तेरे हाथ नहीं लगने वाला और नहीं मैं थमने वाला ही हूँ?
मैं हर पल चलता रहता हूं मैं ना दिखाई देता हूं नाही सुनाई देता हूं मैं पल पल चलता रहता हूं मैं तुम्हारे माटी का योग भी तुम्हारे निश्चित क्षण के अनुसार तुम्हें बता देता हूं, मैं अनंत हूं? न मरता हूं?न मैं जीता हूं बस इस ब्रह्मांड पर विचरता रहता हूं,मैं वक्त हूं मैं तुम में मौजूद हूँ, हे मानव!अपनी मिट्टी के पहचान याद कर....
इतना कहकर वह दृष्टि वह ब्रह्मांड मेरी दृष्टि से ओझल हो गई। इस ब्रह्मांड और उसकी वक्त की विराट सी तथा विचित्र आवाजें सुनकर मैं भयग्रस्त, और पसीने से तरबतर हो गया।
और फिर अपने मन कि उस दिव्य दृष्टि से पूर्णतया बाहर आ चुका था, में ही इस कदर अपने आप से कहता बना,इस पल को रोकने के लिए तो मुझे अपना संपूर्ण जीवन को त्याग करना भी पड़े, तब भी मैं इसे रोक नहीं पाऊंगा। मैं हार के रह गया और मेरे अंदर का आदर्श जाग उठा और मुझे कहने और समझाने लगा, हे नवीन क्या कुएं के पानी सुखा लेने से कभी समुद्र का पानी सूखता है क्या,तुमने भी वही किया इसे रोकना हमारे वश में नहीं यह सुनकर मैं चुप हो गया।

(सॉरी दोस्तों मैं इस को और बेहतर नहीं बना पाया कोशिश करूंगा इसे और बेहतर बनाने की और बेहतर बनाने की मेरे शब्दों में बहुत सी त्रुटियां हैं, मुझे ज्ञात है, मुझे क्षमा करना दोस्तों!यदि ये पोस्ट आपको थोड़ा सा भी अच्छा लगा हो तो, प्लीज मुझे कमेंट मैं बताना, यदि आपका कॉमेंट आया तो ही में इस कहानी को और सही से लिख पाऊंगा वरना नहीं आप मुझे बता सकते हो इसमें कौन-कौन सी त्रुटियां हैं,मुझे एक बड़ी सीख मिलेगी आप सभी से)😊
धन्यवाद!