Unka Nark in Hindi Moral Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | उनका नर्क

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उनका नर्क

उनका नर्क

नाबदान के पास पहुंचकर उनकी कांपती टांगे ठिठक गयीं. गली में दूर तक पानी इकट्ठा हो गया था. बरसात थमे काफी देर हो चुकी थी, लेकिन छत और आंगन का पानी भक-भक की आवाज के साथ अभी भी नाबदान की मोरी के रास्ते गली में आ रहा था. उन्होंने हाथ के डंडे से गली में रखी ईंटों को टटोला, जो पानी में छुप चुकी थीं. किसी ईंट से डंडा दो बार टकराया, लेकिन वे ईंटों की स्थिति का सही अनुमान न लगा सकीं. किंर्तव्यविमूढ़-सी वे खड़ी रहीं सोचती हुई -- 'कैसे पार कर सकेगीं उस कीचड़ सने बदबूदार पानी को, -- टांगें आगे बढ़ने से जवाब दे रही थीं. हाथ कांप रहे थे. उनकी बूढ़ी आंखों में दयनीयता तैर गयी---- ‘कोई इधर दिखाई भी नहीं पड़ रहा जिसकी चिरौरी करके उस गंधैले समुद्र को पार कर लेतीं--- कब तक खड़ी रहूंगी.’

उत्तरी क्षितिज की ओर बादल चिंघाड़ उठे. उन्होंने आसमान की छाती पर मन्द ज्योति नेत्र टिका दिए. बादलों के समूह अठखेलियां-सी कर रहे थे.

'बारिस फिर होगी' सोचकर उन्होंने फिर डंडे से ईंटों की टोह ली. ये ईंटें वहां बारहो महीने रखी रहती हैं, गली से गुजरने वालों की सुविधा के लिए. क्योंकि नाबदान का पानी हर मौसम में निर्धारित सीमा को पार कर बदबूदार भभकों के साथ गली में आवारागर्दी करने के लिए निकल आया करता है. यह नाबदान भी उन्हीं का है. उन्होंने कितनी ही बार बेटे से कहा कि वह भलीभांति नाबदान बनवा दे, लेकिन अब कौन सुनता है उनकी बातें! न बेटा -- न पोते--.

अचानक मोटी बूंदें कंकड़ की तरह झीनी-पुरानी धोती को भेदती शरीर से टकराईं तो वे हड़बड़ा गयीं. सारा शरीर कांप उठा. वहां रुकना व्यर्थ समझ वे पानी में धंस गयीं. घुटनों से ऊपर था पानी. धोती भीग गयी. लेकिन वे धीरे-धीरे खभर-खभर आगे बढ़ती रहीं डंडे के सहारे. अन्दर रखी ईंटों से कई बार पैर टकराये. सूखी हड्डियां सीत्कार कर उठीं. पड़ोसी मकान की दीवार का सहारा लेकर खड़ी न रह जातीं तो जल-समाधि निश्चित थी.

बारिस फिर शुरू हो चुकी थी. किसी प्रकार पानी पार कर भीगती हुई वे चौपाल तक पहुंची तो शरीर में सैकड़ों सुइयां-सी चुभती महसूस हुईं. गीली धोती बदलना आवश्यक था. लेकिन तेजी से घर के अन्दर जाने के लिए बढ़ते कदम पुत्रवधू की आवाज सुनकर दरवाजे पर ही ठिठक गए.

"कब की गई हुई हैं--- गप-सड़ाके से ही फुरसत नहीं--- दोपहर होने को आई--- घर के सारे काम----बर्तन तक पड़े हैं--- खाना कब बनेगा?"

"मोहल्ले में ही गई हैं रामलाल के यहां--- उनकी बहू बीमार है--- उसे देखने--- आती ही होंगी--- तुम नाहक---." बेटा आगे कुछ और कहना चाह रहा था कि पुत्रवधू ने झिड़क दिया.

"तुम चुप रहो जी---- तुम्हें क्या--- एक दिन खाना नहीं मिलेगा तब दिमाग ठिकाने लग जाएगा--- बाप-बेटों के."

वे चौपाल में ही दीवार का सहारा लेकर बैठ गयीं. गीली धोती बदन से चिपक गयी थी. हल्की-हल्की ठिठुरन महसूस हो रही थी.. लेकिन इस अनुभूति से दूर उनका मन अतीत की अतल गहराइयों में डूब गया था.

*****

जब वे इस घर में ब्याहकर आयी थीं तब यह जन-धन से हरा-भरा था. अठारह बारस की थीं वे अल्हड़ दुनियादारी से अनभिज्ञ. अल्हड़ता उन्हें उस माटी से मिली थी, जहां उनके अठारह वर्ष बीते थे. बांदा के एक छोटे से गांव की थीं वे, जो यमुना की कगार पर बसा है. लेकिन वह अल्हड़ता कुछ ही दिनों में पानी में उठे बुलबुलों की भांति धीरे-धीरे गायब होती चली गयी थी. उसके स्थान पर घर के प्रति जिम्मेदारियों का अहसास गहन होता चला गया था.

यह अकारण नहीं था. घर में वे अकेली ही थीं. सास-ननद थीं नहीं. पति, तीन देवरों और वृद्ध श्वसुर के मध्य एक मात्र वे ही थीं, जिन्हें सबकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना था. घर में सब कुछ होते हुए भी वे मुंह बोलने के लिए एक नारी स्वर के लिए तरस-तरस जाती थीं. दिन में जब सभी पुरुष खेतों की ओर मुंह कर लेते, लम्बे-चौड़े घर की ऊंची दीवारें खुली कोठरियां उनको काटने दौड़तीं. वे दिन भर अपने को अनाज कूटने, पछोरने और पीसने में व्यस्त रखतीं, फिर भी प्रतिक्षण घबड़ाहट का सांप अन्दर ऎंठता ही रहता. लेकिन दो वर्षों बाद बेटे जगदीश के रूप में जब आंगन में किलकारियां गूंजने लगीं तब उनके दिन आसान हो गए थे.

वे उस घर की पहली और अन्तिम बहू बनकर रह गयी थीं उन दिनों. देवरों की शादियां हुई नहीं. जगदीश के पैदा होने के कुछ दिनों बाद श्वसुर चल बसे थे. वे उस घर को स्वर्ग बनाने में जुट गयीं थीं. लेकिन उनके कर्मनिष्ठ और लगन से सजाए गए उस गृह-कानन को एक दिन वक्त के झंझावात ने धराशायी कर दिया था. जगदीश अभी चार साल का भी न हुआ था कि पति ने आंखें मूंद लीं. आपदाओं के शिलाखण्ड ढहने लगे. ऎसे अवसरों में प्रकृति का क्रूर रूप भी दर्शनीय होता है. उनकी गीली आंखें अभी सूख भी न पायी थीं कि बादलों की उमड़-घुमड़ से दिल कांप उठा. रातभर ओलावृष्टि होती रही. खलिहान आने को मचलती सूखी बालियां ओलों के नीचे समाधिस्थ होकर रह गयीं थीं.

उनकी आंखें सूख गयीं. व्यथा को ह्रदय के कोटरों में दबा वे उदास-व्यथित देवरों को समझाने लगीं. स्वयं टूटकर भी उनको टूटने से बचाने के लिए वे बाह्य रूप से चेहरे पर सामान्यता का लेप चढ़ाये रहतीं. उन्हें जगदीश के भविष्य की चिन्ता थी और अब तो देवरों का ही सहारा था. उनको समझा-बुझाकर बांधकर रखना नितान्त आवश्यक था. वे उन्हें मां का स्नेह देतीं तो वे श्रद्दावनत हो उनकी बातें सुनते-मानते. उन्हें सन्तोष होता और जगदीश के भविष्य के प्रति आश्वस्ति भी. लेकिन पति की स्मृति से वे अपने को कभी काट न सकीं. दिनभर सामान्य दिखने वाली उनकी आंखें रात के अंधेरे में कितनी ही देर तक बरसती रहतीं.

कभी-कभी जगदीश जागकर पूछता, "अम्मा तुम लो लही हो?" वे तत्क्षण आंचल से आसूं पोंछ लेतीं और लोरियां सुनाकर उसे सुलाने में व्यस्त हो जातीं.

जिस जगदीश को पालने-पोसने में उन्हें कितने ही कष्टों का सामना करना पड़ा, आज वही उनके लिए पत्नी के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है. उन्होंने एक दीर्घ निश्वास छोड़ी और पैर पर चढ़ रहे चीटें को हाथ से दूर झटक दिया.

*****

उस वर्ष ओलों से फसल नष्ट हुई तो कोठरियों-बखारियों में भरा पुराना अनाज काम आ गया. लेकिन उसके बाद एक के बाद एक तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई. अकाल पड़ गया. गांव के अनेकों घरों की भांति उनका घर भी दाने-दाने के लिए तरसने लगा. देवर एक-एक मुट्ठी चना अंगौछे में बांधकर सुबह काम करने जाते और दिन भर उसी के बल पर खटते रहते. वे दिनभर निराहार रहतीं, लेकिन जैसे-तैसे जगदीश का पेट भरतीं.

और एक दिन ऎसा भी आया जब घर में दाना नहीं बचा. कहीं से कुछ पाने की भी आशा न थी. जेवर और पुरानी पूंजी पहले ही बनिया के यहां जा चुकी थीं. तब भी वे हिम्मत नहीं हारीं और गांव छोड़कर शहर जाने को तत्पर देवरों को पुरखों की ड्योढ़ी खेत-खलिहान का वास्ता देकर रोकने में सफल रहीं थीं. उन दिनों महुआ उबालकर वे सबकी क्षुधा शांत करने का प्रयत्न करती रही थीं.

तभी एक घटना घटी थी. जमींदार का लगान वसूली अभियान जोरों पर था. सूखे का कुछ भी प्रभाव उन लोगों पर नहीं पड़ा था. जमींदार के नुमाइंदे निर्ममतापूर्वक लोगों को तबाह करने में व्यस्त थे. हर दिन जमींदार के सिपाहियों द्वारा किसी न किसी पर कोड़े बरसाये जाने, पेड़ों पर उल्टा लटकाये जाने और बैलों से घिसिटाये जाने के समाचार उन्हें मिलते. कितने ही किसानों को जमींदार ने खेतों से बेदखल कर दिया था. उस घर पर भी किसी न किसी दिन उसका कहर बरपा जरूर होगा, यह बात वे जानती थीं. उनके कहने पर देवर रात-दिन इधर-उधर रहने लगे थे, जिससे बेइज्जती से बच सकें. लेकिन वे ड्योढ़ी पर ही जमीं रही थीं जमींदार के सिपाहियों से मोर्चा लेने के लिए.

और एक दिन वह दिन भी आ गया. कारिंदा पंडित ब्रजभान चार सिपाहियों के साथ आ धमका. देवरों को अनुपस्थित पा सिपाहियों से बोला, "उखाड़ ले चलो ड्योढ़ी--- देखें कब तक तीनों मरदूद हाजिर नहीं होते."

सिपाही आगे बढ़े तो सिर पर घूंघट निकाल वह बोली थीं, "मैं खबरदार किए देती हूं---- ड्योढ़ी पर हाथ न लगाया जाय."

"अबे मुंह क्या देखने लगे--- उखाड़ते क्यों नहीं." कारिंदा चीखा था.

"पंडितजी, यह ठाकुर जगमोहन सिंह के हाथों लगायी ड्योढ़ी है---- इस गौतम खनदान की इज्जत--- इतनी आसानी से न जाने दूंगी." आगे बढ़कर कुछ ऊंचे स्वर में वे बोलीं.

सिपाही ठिठक गए. पंडित ब्रजभान भी सकते में आ गया. कुछ संतुलित स्वर में बोला, "फिर अदा कर दो न लगान ठकुरानी. बेइज्जती से भी बचोगी और जमीन की बेदखली से भी."

वे मुड़कर घर के अन्दर गयीं और एक पोटली में बंधे चांदी के रुपये-सिक्के कारिन्दा के सामने उछालते हुए बोलीं,"गिनकर ले लो जितने लगान के लिए चाहिए."

पडित ब्रजभान और सिपाहियों की आंखें फटी की फटी रह गयी थीं. हजार कष्ट सहकर भी घोर संकट के क्षणॊं के लिए धन बचाकर रखना वे गृहस्थी का भार संभालते ही सीख गयी थीं. उस दिन के बाद सारे गांव में चन्दन बहू के गुणगान गाये जाने लगे थे. लेकिन वे गांववालों के गुणगान से असंपृक्त ही रही थीं…. अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त.

आगे के वर्ष सामान्य होते गये थे. फसलें ठीक होने लगी थीं. अभाव कम होते गये थे.

जगदीश बड़ा हो गया तो उन्होंने उसे पढाना चाहा, लेकिन पांचवीं से आगे वह पढ़ न सका. चाचओं के साथ खेती सम्भालने लगा. चाचाओं का वह प्यारा भी बहुत था.

वर्ष गुजरते गये. दॊ छोटे देवर भी एक वर्ष के अन्दर ही काल के कराल गाल में विलीन हो गये. शेष बचे बड़े देवर कमल सिंह. कमल सिंह ने अपनी इच्छा से जगदीश की शादी की इस आशा से कि जीवन भर कष्टों से जूझने वाली उनकी भौजाई को अब इस उम्र में कुछ सुख मिल सकेगा. पुत्रवधू के हाथों की सिकी उन्हें भी मिल सेकेगीं. भौजाई के हाथों की सिकी तो वे कब से खाते आ रहे थे. लेकिन कहां पूरी हो सकी उनकी इच्छा! वे भी एक दिन उन्हें छोड़कर चले गये.

अतीत के अंधेरे आकाश में जिन्दगी का इतिहास सदैव रोमांचक प्रतीत होता है. देवर की भांति पुत्रवधू से सुख की कामना उन्होंने भी की थी. लेकिन कामना करने से ही अभीप्सित नहीं मिल जाया करता. उन्होंने कभी जिस बात की कल्पना भी न की थी वह सब जगदीश के पचीस वर्षीय वैवाहिक जीवन में देखने-सुनने और सहने को मिला. वे किसे दोष दें--- प्रारब्ध को, स्वयं को या जगदीश को--- कभी समझ नहीं सकीं.

*****

बैठे-बैठे उनकी आंखें झपक गयीं कि पुत्रवधू की कर्कश आवाज ने उन्हें अचकचा दिया. झुर्रियों-भरे चेहरे पर टकी आंखें कसाई के सामने बंधी गाय की भांति पुत्रवधू के चेहरे पर टिक गयीं.

"यहां बैठे ऊंघ रही है----- वहां बर्तन पड़े गंधा रहे हैं---- घर की बिल्कुल चिन्ता ही नहीं रही----." पुत्रवधू ड्योढ़ी पर खड़ी चीख रही थी.

उनके मन में आया कि कह दें, 'वह किस घर की चिन्ता की बात कर रही है---- आज घर जिस स्थिति में है वह किसकी बदौलत---." लेकिन वह चुप रहीं. जानती हैं एक वाक्य बोलने का अर्थ होगा सौ वाक्य सुनना. बहू बड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं.

"हे राम---- अभी और कितने दिन यह नर्क भोगना पड़ेगा." वह रसोई के बाहर नहा पर फैले बर्तनों के पास जमीन पर हाथ टिकाकर पीढ़े पर बैठ गयीं. बदन में असह्य पीड़ा हो रही थी. हाथ कांप रहे थे, फिर भी उन्होंनें मंजना उठा लिया.

बारिस और तेज हो गयी थी. भूरा-मटमैला आकाश कुछ और नीचे झुक आया था. उन्होंने एक दृष्टि आकाश की ओर डाली, फिर कड़ाही पर मंजना घुमाने लगीं.

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