मृत्यु-बोध
मैं पहली बार श्मशान गया था। अन्त्येष्ठि मेरे मित्र की थी इसलिये खालीपन का कसैला स्वाद रह-रहकर मस्तिष्क अनुभव कर रहा था। मेरे इर्द-गिर्द सभी चेहरे मुझे सहमे हुए लगे। कुछ अवश्य ऐसे भी थे जो श्मशान में भी ‘हैलो’ कहकर अभिवादन करने की रस्में पूरी कर रहे थे। दायें हाथ की सिगरेट, बायें हाथ में थामा कर हाथ भी मिला रहे थे। मुझे उनकी यह अंग्रेजियत हरकत बद्बूदार लगी। मैंने फटी नीकर पहने एक छोकरे को भी देखा। उसने एक रात पुरानी चिता से दहकते अंगारे को ढूंढ़ निकाला और उससे बिड़ी सुलगाई। दो-तीन कश खींची और चलता बना। मेरा मन खीज उठा। मैंने सोचा था कि श्मशान ही एक ऐसी जगह है जहाँ मानव-मस्तिष्क पूर्ण शुद्धि लिये हो जाता है।
उधर संस्कृत श्लोकों से सिंचित क्रियाक्रर्म चल रहा था तो इधर कुछ लोग बातें कर रहे थे। श्मशान में मनुष्य मृत्यु विषयक बातें बेझिझक करते हैं और सुनने वाले उन्हें दिलचस्पी से सुनते भी हैं, जैसे यही मोक्ष और मुक्ति का पवित्र सोपान हो। एक सज्जन अनुभवी मुद्रा का मुखौटा ताने कह रहे थे, ‘मृत्यु का आभास मनुष्य को पहले से होने लगता है। कुछ लोग तो मृत्यु का समय तक जान लेते हैं।’ उन्होंने यह भी बताया कि यह कोई योग विद्या नहीं है। आम आदमी भी अगर सजग रहे तो स्वयं की मृत्यु का समय जान सकता है।
‘कैसे ?’ शायद इर्द-गिर्द खड़े सभी व्यक्ति यह जानने को उत्सुक थे। चिता पर धूँ-धूँ करती अग्नि जैसे पार्श्वसंगीत दे रही थी और हम सुन रहे थे उन बातों को जिनमें छिपी मृत्यु स्वयं के बोल की सुर-साधना कर रही थी। इन बातों से मुझे मालूम हुआ कि जिस व्यक्ति का श्वास दोनों नथुनों से पूरे एक दिन व रात चले तो उसकी तीन वर्ष में मृत्यु हो जाती है। जिस व्यक्ति का श्वास 48 घंटे दाहिने नथुने से चले वह दो वर्ष और जिसका श्वास 72 घंटे दाहिने नथुने से चले वह एक वर्ष में मर जाता है। ‘योगाभ्यास से इसे सुधारा जा सकता है,’ किसी ने तर्क प्रस्तुत किया, ‘ मृत्यु को टाला भी जा सकता है योग से।’
‘ पर कैसे ?’ मैंने जानना चाहा। पर तब तक विषय मृत्यु से हटकर योग की क्षमता और उसकी प्रशंसा की ओर बढ़ गया था। योग से पेपर आऊट किये जा सकते हैं, इलेक्षन जीते जा सकते हैं, आदि पहलू जो योग से संबंधित हो सकते हैं, वे सब सुनने मिले।
पर मेरा मन न जाने क्यों अपनी श्वास की ओर खिंचता गया। श्मशान से लौट कर भी मैं इन विचारों से मुक्ति न पा सका। कहते हैं कि पहले-पहल श्मशान जाने से मन में ऐसा ही सब कुछ होता है। बच्चों को और स्त्रियों को इसीलिये श्मशान जाने नहीं दिया जाता।
अंतर्द्वंद
किन्तु, मेरी तरह चैबीस सावन की बौछार में भींगा कोई बच्चा नहीं कहलाता। उस रात मैंने यह भी अनुभव किया कि मैं अपने दोनों नथुनों से श्वास ले रहा था। मैं सिर से पैर तक काँप उठा। हर पल मैं इसकी जाँच करता रहा और जितना मैं अपने दोनों नथुनों से श्वास का होना पाता, उतना ही विचलित होता जाता। हाँ, यही तो उसने कहा था कि जिसकी श्वास दोनों नथुनों से पूरे एक दिन व रात चले तो उसकी मृत्यु तीन वर्ष में हो जाती है।
मैं रात भर जागता रहा अपनी श्वास की परीक्षा करता हुआ।
मैंने सुना था कि सिगरेट पीने से श्वास अपना रुख बदल देती है। यह विचार आते ही मैं नुक्कड़ की दुकान से सिगरेट खरीद लाया। पहली कश ने सिर चकरा दिया। खाँसी के दौर से गुजरा धुँआ जिगर में घर कर गया। वो शख्स जो पहले सिगरेट पीने की लत को घृणा से देखता था, अब पैकेट पर पैकेट पीने लगा, बिना ग्लानि का अनुभव किये। सच है, मृत्यु के निकट आते ही मनुष्य की विचार-ग्रंथियाँ परिवर्तन का अनुभव करने लगती हैं। क्रोध, करुणा, घृणा, ग्लानि आदि घुटन से दूर हो जाता है आदमी। मैंने स्वयं को चिकौटी काटी। दर्द हुआ। कुछ तसल्ली हुई कि मैं अभी जिन्दा हूँ। पर मौत को तीन वर्ष की दूरी पर खड़ा देखकर फिर भयभीत हो उठा। सोचा घर पर चिठ्ठी लिखूँ। एक-दो अक्षर लिखे भी। फिर सोचा अपनी चिन्ता को औरों पर क्यूँ लादूँ।
हाँ, चिन्ता-निवारण का एक उपाय है। मैंने जी कड़ा किया। सारी नैतिकता की शिक्षा को ताक में रखकर टेबल पर ग्लास रखे। तले काजू ले आया और साथ में विदेशी शराब। एक घूँट पी तो लगा सिद्धांतों को झुठलाना कितना सरल है। ऐसा लगा कि पीकर मैंने मौत के खिलाफ जंग छेड़ दी है। अब मैं मौत को ठीक से परिभाषित करने लगा था। उसे अपने आप में महसूस भी करने लगा था। मृत्यु यदि अवश्यम्भावी है तो वह नकारने या स्वीकारने से नहीं, अनुभव से पहचानी जाने वाली वस्तु है। ऐसी पहचान जिसके कारण उसके साथ उठने बैठने से सुख की ही अनुभूति होती है। मैं टूट-टूट कर बिखरता चलूँ और मौत गुनगुनाते हुए, इन टुकड़ों को बटोरती चले। जो लोग टूटना नहीं जानते, मृत्यु से अपरिचित रहते हैं और इसी कारण मृत्यु से डरते हैं।
जो चरित्र को सर्वोपरि मानकर जीवन को नैतिकता के शिकंजे में बाँधे रखते हैं, वे यह नहीं जानते कि ऐसा जीवन ठहरे हुए, बंधे हुए, रुके पानी की तरह होता है, जिसमें बिलबिलाते कीड़े सड़ते, गलते व मरते इस जीवन को बद्बूदार बना देते हैं। मित्रों ! मृत्यु तो कभी न रीतने वाला निरंतर प्रवाह है जिसमें पानी की तरह उतार-चढ़ाव का अभिनय नहीं होता। जीवन का सरलीकरण मृत्यु है। इसकी भाषा में जीवन की कठिन व्याकरण नहीं होती। जीवन मात्र ध्वनि है, परन्तु मृत्यु उसकी ऐसी प्रतिध्वनि है जिसमें जयघोष का नाद छिपा होता है। जीवन में ना तो सुख और ना ही दुख स्थायी होता है पर मृत्यु में शान्ति का वास सदा बना रहता है। मृत्यु में न तो छल-छद्म है, न कोप-कपट, न मोह-माया। न कुंठा, न विरोध, न ईष्र्या और न ही कोई अंतर्द्वंद। इसमें जीवन की प्रमांध या अस्पष्ट संधियाँ नहीं होती जो हरपल घुटन को परिभाषित करती रहती हैं।
जीवन का कोई निश्चित रूप नहीं है। मैंने स्वयं देखा है कि कल तक मैं धूम्रपान, नशा खोरी, वैश्यागमन को तुच्छ दृष्टि से देखता था। कितनी कुंद दृष्टि थी, वह। कितनी संकुचित थी वह विचारधारा। इस अवश्यम्भावी मृत्यु के एहसास ने मुझे कितना दिलेर बना दिया है। मैं बचे दिन जिस उन्मुक्तता से बिताना चाहता हूँ, वही अब मुक्ति का आभास कराने वाली दिनचर्या-सी लगने लगी है, मुझे।
समय गुजरते देर नहीं लगती। मैंने पाया कि मेरी श्वास 48 घंटे दाहिने नथुने से चलती हुई मुझसे कह रही थी, ‘राजू, ! अब तुम्हें बस दो वर्ष और जीना है।’ इन दो वर्षों में मुझे अपनी संपत्ति गरीबों में लुटा देना है या यूँ ही मनमौजी में। समय कम है और मनमौजी में धन धीमी गति से निकलता है। सो मैंने कुछ पैसे गरीबों में लुटाना चालू किया तो मित्रों टोका, ‘ राजू ! ये तुम क्या कर रहे हो ? आगे की जिन्दगी का तुम्हें कुछ ख्याल नहीं है।’ मैं मन ही मन हँसता हूँ, क्योंकि मैं अपने मित्रों की तरह आगे की जिन्दगी से अबोध नहीं हूँ। लोगों ने मुझे ज्यादा पीने की लत को छोड़ने भी कहा। पर मेरे अंदर बैठी मृत्यु हँसने लगी। काश ! कोई उन्हें बताता कि मैं मृत्यु के उस महातीर्थ पर पहुँच गया हूँ जिसके आगे कोई और तीर्थ है ही नहीं ।
लोगों की दया-दृष्टि से घिरा, मैं जीवन के उस चैराहे से हट कर खड़ा हूँ जहाँ भटकाव के दिशा ज्ञान कराते सिग्नल जलते बुझते रहते हैं और अनाम मोड़ की ओर चलने का इशारा देते रहते हैं। यदि आप कहते हैं कि मैं अपने आप को मृत्यु की ओर खींच लिये जा रहा हूँ तो मैं कहूँगा कि यह मृत्यु श्रद्धा का विषय नहीं है। किसी छटपटाहट, रुदन या मोह का विषय भी नहीं है। जीवन मृगतृष्णा है तो मृत्यु पानी की सही तलाश। मैं इस तलाश में प्यासा भटकना नहीं चाहता और इसलिये ही पीता हूँ। यह शराब मृत्यु के पहले, मृत्यु का रसास्वादन कराने वाली ‘सोम’ है।
इस साधना में मैंने पैसे बहाये -- सड़क पर, फुटपाथ पर पड़े भिखारियों को रुपये बाँटे और कोठे में बैठी चंपाबाई की झोली में डाले, सिर्फ यह देखने के लिये कि चंपाबाई की जिन्दगी एक-एक क्षण में कितने बार मरती है। मेरी हालत पर जब वो रो उठती तो मैं कहता कि मृत्यु बस एक क्षण की होती है। इसमें जीवन की तरह रुदन भरे अर्धविराम नहीं होते -- होता है सिर्फ एक पूर्णविराम। मृत्यु के आगे तुम्हारे समान विकल्पहीन बिखरता जीवन नहीं है। ना धुँआ है, ना काजल की परतें। बस है एक उज्जवल प्रकाश, जिसमें जीवन के क्षण-भंगुर बहुरंगी छलाव नाम मात्र भी नहीं होता।
मैंने अगर अपने जीवन की शैली बदली है तो मृत्यु की शैली समझने के लिये। इस शैली को समझते दो वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। और अब मैंने देखा कि मेरी श्वास दाहिने नथुने से 72 घंटे चलने की अवधि पूरी करने की ओर बढ़ रही है। याने अब एक वर्ष के अंदर मुझे मृत्यु लाभ होने वाला है।
रोज मरकर जी उठनेवाले अनुभव से युक्त दिन गुजरते रहे। मन कह उठा कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जिसका आना अनिवार्य है। इससे भयभीत होने की चेष्टा न करो, क्येंकि इसके आगे समस्त सत्य, मिथ्या का रूप ले लेते हैं।
मेरे पड़ोसी ने भी कई बार टोका, ‘राजू ! तुम्हें क्या होते जा रहा है ?’ पर मैं उसे कैसे बताता कि मैं मृत्यु के स्वागत में दो वर्ष से व्यस्त हूँ। कुछ और लोगों को भी मैंने यह बात बतायी तो वे मुझे पागल समझ कर मुझसे कतराने लगे।
अब एक और बात हुई। मेरा बाँया स्वर रात भर चलता रहा और दिन भर दाँया स्वर, जिसका मतलब था कि अब मृत्यु के आने में मात्र छह माह बाकी हैं। मृत्यु का स्वागत करने मेरी उत्तेजना बढ़ी पर अब वास्तव में मेरा शरीर गवाह देने लगा था। मुझे सुबह से शाम तक नशे में चूर देख मेरे मित्र बोल उठे कि ‘राजू की आँखों का तेज नष्ट हो गया है। लगता है कि अब वह ज्यादा से ज्यादा चार माह का मेहमान है।’ सच है, जीवन भर आत्मा बिन बुलाये मेहमान बनकर इस शरीर में कुड़मुड़ाती रहती है और मृत्यु आने पर वह बिना लगेज के व बिना टिकिट के अपनी अनन्त यात्रा में स्वच्छन्द निकल पड़ती है। मैंने एक किताब भी ले रखी थी, जिसमें मृत्युकाल जानने की बातें लिखी थीं। उसमें भी यही लिखा था कि यदि दीपक की लौ कभी स्वर्ण के समान व कभी काले रंग की दिखाई दे तो जान लेना चाहिये कि मृत्यु तीन माह दूरी पर खड़ी है।
मैं दौड़कर चंपाबाई के पास गया और सारी बातें कही । वह एक पानी भरी थाली ले आयी और कहने लगी, ‘ इसमें अपनी परछाई तो देखो। ’ मैंने देखा कि मेरी कमीच के कालर के ऊपर सिर नदादद था। यह बात सुन चंपाबाई भी घबरा गई। वह कहने लगी, ‘इसका मतलब है कि मौत एक माह के अंदर हो जाने वाली है। बाबूजी, मेरा कहा मानो तो यह दारू पीना छोड़ दो।’
‘ हाँ, छोड़ दूँगा,’ मैंने सहज भाव से कह तो दिया पर सीढ़ी उतरते सोचता रहा कि क्या अब ये संभव था ?
पर कहते हैं कि मौत धोखा देकर बीच रास्ते पर नहीं छोड़ जाती। यूँ गुमराह करना तो जीवन की रीत रही है न कि मौत की। और तब मौत न चंपाबाई को दिये गये मेरे वचन का विकल्प बताया। सच कहो तो मैं और मेरा प्यार में डूबा मन चंपाबाई को दिये वचन को तोड़ना नहीं चाहता था। ऐसे समय वचन तोड़ना प्यार की हत्या करने जैसा होता है --- यह एक घोर पाप होता है जो स्वर्ग में जाने नहीं देता और नरक में ठहरने नहीं देता। यही कारण था कि राजा दशरथ ने कैकयी को दिये वचन को निभाया और मौत को आव्हान दे दिया। सच्चा प्यार यही तो कहता है कि हे प्रिये! मैं तुम्हारे लिये प्राण तक न्योंछावर कर सकता हूँ। मैंने दारू छोड़ दी और स्मैक का सहारा लिया। जितनी जब यह चाही, उतनी वह मुझे मिलती भी रही।
मैंने फिर किताब के पन्ने देखे। लिखा था कि यदि आँख की भृकुटी न दिखे तो समझना कि नवें दिन मर जाना है। बिना किसी रोग अथवा कारण के अचानक कानों में शब्द सुनाई न देना सात दिन में मृत्यु का द्योतक है।
मैं स्मैक के सहारे दिन काट रहा था कि एक दिन वह भी आ गया जब मुझे जीभ का अग्र भाग दिखना बंद हो गया। याने मेरे जीवन के सिर्फ चैबीस घंटे शेष रह गये थे।
मैंने घड़ी देखी। मृत्यु को मेरे घर के दरवाजा खोल कर मुझ तक आने में ज्यादा से ज्यादा तीन मिनिट लग सकते हैं। मैंने स्मैक की बड़ी डोज़ ली और मौत की प्रतीक्षा में लेट गया। मुझे विश्वास था कि जब मौत की घड़ी आवेगी तो मैं सोता रहूँगा। और शान्ति से गुजर जावेगा वह क्षण भी, जब मौत मुझे अपने कंधे पर उठाकर चल पड़ेगी। मौत ‘काल बेल’ बजाकर आपके घर नहीं आती। वह दबे पाँव चुपचाप आती है। अतः मुझे विश्वास था कि जब मौत आवेगी, मैं सोता रहूँगा।
पर जब आँख खुली तो मैंने देखा कि सामने दीवार पर लगी घड़ी के काँटे घूम रहे हैं। ‘टिक...टिक.... ’ की बोरियत भरी आवाज आती रही। मैं सोच में पड गया कि अब मौत किस बात का इंतजार कर रही है ? पर मेरे सिरहाने मौत नहीं खडी थी --- खड़ी थी मेरी आत्मा, शून्य में खोई हूई। तो क्या मैं मरा नहीं ? मृत्यु कहाँ रुक गई ? कहाँ भटक गई ?
या फिर, क्या ये सारी मृत्यु-बोध संबंधी मान्यतायें झूठी है ?
नहीं ! शायद सब कुछ सही था। अपने सात्विक विचारों को तिलांजली देकर पापकर्म की खाई में गिरना एक तरह की मृत्यु ही तो थी और इस खाई से बाहर आने का कोई उपाय भी तो नहीं होता। बुरी लतों के कारण मैं वास्तव में अब जीवित ही कहाँ रह गया था?
...... भूपेन्द्र कुमार दवे