खाली मकान
जयश्री रॉय
इतनी सारी चीजें- महंगी घड़ी, परफ्यूम, साड़ियां, सुगर-ब्लड प्रेशर जांचने के यंत्र... कितने सारे महंगे उपहार ले आया है परिमल उसके लिये! अपराजिता इन्हें परे हटा कर खिड़की के पास आ खड़ी होती है- अब इन सामानों से भरपाई नहीं होती उस कमी की जो एक खोह की तरह दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है उसके अंदर! प्यार का विकल्प कुछ नहीं होता, ये सामान तो कभी नहीं! काश इन चीज़ों को परे रख कर कभी परिमल उसके साथ थोड़ी देर पहले की तरह हंस-बोल लेता! कितना कुछ जमा रह गया है उसके अंदर उससे साझा करने के लिये!
खिड़की के पार एक टुकड़ा ज़र्द, पीले पत्ते-सा आकाश फैला है, बेडौल सीमेंट फैक्टरी का गाढ़ा धुआं उगलते चिमनी के पीछे... वही जा कर रोज़ सूरज डूब जाता है कालिख के एक विशाल कुंड में. कुकुरमुत्ते की तरह हर रोज़ यहां-वहां से उग आते इस शहर में अब आकाश के किनारे भी सीवन उधड़ कर फटने लगे है. चिन्दी-चिन्दी! कहीं एक मुकम्मल, साफ-सुथरा टुकड़ा नहीं जिस पर आंखें दूर तक दौड़ सके! सोचते हुये अपराजिता को घबराहट-सी होती है, उसके भीतर भी कुछ ऐसा ही है- हर छोर से बन्द होती हुई एक गली! बहुत संकरी! बहुत तंग! यहां हवा नहीं, धूप नहीं, आकाश भी नहीं...
इस बार कितने बरस बाद लौटा है परिमल अमेरिका से? वह सोचने की क़ोशिश करती है. स्मृतियां अब आंख-मिचौली खेलने लगी हैं, सहज पकड़ में नहीं आतीं- शायद पांच साल बाद! पहले पहल जाना ही नहीं चाहता था उसे छोड़ कर- ‘नहीं दी! तुम्हें छोड़ कर तो हर्गिज़ नहीं जाऊंगा!’ इतना अच्छा नौकरी का ऑफर था, उसी ने उसे किसी तरह समझा-बुझाकर भेजा था- ‘कब तक दीदी के पल्ले से बंधा रहेगा! तुझे वैज्ञानिक नहीं बनना, चांद पर नहीं जाना?’
जा कर भी उसे चैन नहीं, रोज़-रोज़ फोन, लम्बी-लम्बी चिट्ठियां- ‘दी! मेरा मन नहीं लगता यहां, खाना भी रुचता नहीं, लौट आऊंगा...’ कभी सुबह के चार बजे उठ कर उसे समझाना पड़ता था. वह परेशान हो कर रह गई थी- अपने इस इकलौते भाई का क्या करे वह!
परिमल उससे उमर में बहुत छोटा है. उसके जन्म के साथ ही मां चल बसी थी. एक तरह से उसी ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था. साथ बस बूढ़ी दाई ईजा. बाबूजी सुबह से शाम तक दफ्तर और दुनिया भर के काम में. परिमल की देख-भाल करते हुये बड़ी मुश्क़िल से उसने अपनी पढ़ाई पूरी की थी. बाबूजी की मृत्यु के बाद उसने नौकरी कर ली थी. परिमल तब दस साल का रहा होगा. उसके बाद उसके जीवन में परिमल के सिवा और कुछ नहीं रह गया था.
खिड़की से हट कर वह बिस्तर पर आ कर लेट जाती है. खाने का मन नहीं. कितने चाव से बनाया था सब कुछ! परिमल की पसंद का- तिल वाले आलू, भरवा करेला, बूंदी रायता... मगर पंखुरी ने खाने से मना कर दिया था- ‘नहीं! ममा खाने पर हमारा इंतज़ार करेंगी. उन्होंने परिमल से पूछ कर उनकी पसंद का खाना बनाया है. इन्हें तो अब पंजाबी खाना मुझसे भी ज़्यदा पसंद है! ममा के हाथों का बना छोले-भटूरे खाने के लिये कब से मरे जा रहे थे!’ बनाया तो उसने भी था परिमल के मन का खाना मगर... उसने कुछ भी नहीं कहा था. कहती भी क्या! कहना तो परिमल को चाहिये था! मगर वह इधर-उधर देखता रह गया था. आज कल वह सीधे आंखों में देख कर बात नहीं करता...
बचपन से परिमल खाने-पीने का शौकीन था. सादा या ठंडा खाना उसे पसंद नहीं था. तेल-मसाले वाला तीखा, ज़ायकेदार खाना उसे चाहिये था. हज़ार काम के बीच भी उसे उसके लिये दोनों शाम गरम खाना बनाना पड़ता था. दूसरे के हाथों का बना खाना तो वह छूता भी नहीं था. इसलिये नौकर रहते हुये भी उसे ही खाना बनाना पड़ता था. परिमल के लिये रोज़ कुछ न कुछ नया बनाने के लिये उसने जाने कितनी सारी रेसिपी की क़िताबें इकट्ठा कर रखी थीं! सोचते हुये वह टेबल पर ढके रखे खाने के बर्तनों को देखती रही थी. हाथ तो अब भी उसके वही हैं, मगर परिमल के मुंह का स्वाद ही बदल गया. बदलता वक्त शायद सब कुछ बदल कर रख देता है! फिर... उसके मन को क्या हो गया!... एक ही जगह ठहरा है वर्षों से!
पंखुरी ने इस घर में आते ही परिमल को पूरी तरह अपने वश में करने की कवायद शुरु कर दी थी. अपराजिता को पता था, एक दिन उसे अपनी सेवा से रिटायर होना पड़ेगा और इसके लिये वह कहीं ना कहीं से तैयार भी थी, मगर इस तरह निकाले जाना, बेदख़ल होना, वह भी अपनी ही तिल-तिल कर बनाई हुई दुनिया से... वह भीतर तक छिल कर रह गई थी. इसी लड़की को अपने भाई की दुल्हन बनाने के लिये उसने इतनी क़ोशिशें की थी! पंखुरी पंजाबी थी. जात भी अलग. उसके परिवार वाले इस शादी के लिये तैयार नहीं थे. अपने भाई की ख़ुशी के लिये तब उसने जाने कितनी मुश्क़िल से उन्हें इस शादी के लिये राजी किया था.
स्मृतियां टुकड़े-टुकड़े बादल की तरह उसके मन के आकाश में घिर आई थीं और जाने कब नींद के श्यामल छांव में तब्दील हो कर उसे पूरी तरह से ढंक लिया था. नींद भी बेचैनी भरी, काले धब्बों से लिथड़ी हुई...
दूसरे दिन सुबह की रेशमी धूप में वह आंगन में चटाई बिछा कर छोटे-छोटे स्वेटर, मोजे और टोपियां फैलाती है. ये सब उसने बड़े प्यार और अरमान से परिमल के बेटे श्रेयस के लिये बुने हैं. दो साल का है श्रेयस. उसने उसे अब तक देखा नहीं है. उसके जन्म के समय वह अमेरिका जाना चाहती थी मगर जा नहीं पाई थी. पंखुरी की मां गई थी. कल उसे देखने के लिये वह सुबह से टकटकी लगाये बैठी थी मगर वह आया नहीं था. पंखुरी ने बताया था, वह सफर से थका है इसलिये उसे उसकी नानी के पास ही छोड़ आई है. श्रेयस अपनी नानी से बहुत घुला-मिला हुआ है. रोज़ उनसे विडियो चैट होती है. पंखुरी कहती है, यह बहुत ज़रुरी है वर्ना नाना-नानी से लगाव कैसे बढेगा! वह अपने बेटे से हमेशा पंजाबी में बात करती है ताकि वह पंजाबी सीख कर अपने नाना-नानी से बात कर सके. मगर परिमल उससे अंग्रेज़ी में ही बात करता है. अमेरिका में बाल विशेषज्ञ ने उन्हें सलाह दी है कि बच्चे से एक या दो ही भाषा में बात करे ताकि वह ठीक से सीख सके. श्रेयस उसकी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह अब तक मामा या डाडा बोलना भी नहीं सीखा था. इस से परिमल और पंखुरी दोनों चिन्तित थे. अपराजिता की चिंता दूसरी थी. वह अंग्रेज़ी ठीक से बोल नहीं पाती. परिमल के बेटे से कैसे बात करेगी! लोरी गाने का समय भी बीतता जा रहा है. भीतर इतने सारे किस्से-कहानियां इकट्ठा कर रखी थी उसके लिये... सब पर धूल जम रही है, रह-रह कर कसक उठती हैं सीने में.
अब तो कभी-कभी खुद को सुलाने के लिये लोरियां गा लेती है. नींद की गोलियों से तो अब नींद आती नहीं.
उस दिन जब दोपहर तक परिमल पंखुरी और श्रेयस के साथ आया था, श्रेयस किसी भी तरह उसकी गोद में नहीं आया था. पंखुरी से चिपट कर रोता रहा था. पंखुरी ने कहा था- वह आपके पके बालों से डर रहा है. संता क्लॉज को देख कर भी रोने लगा था. स्वेटर आदि भी लेने से मना कर दिया था- दीदी, श्रेयस को एलर्जी है. ऐसे वूल के स्वेटर नहीं पहन सकता. हम इसके लिये एंटी-एलर्जीक सामान ही इस्तेमाल करते हैं- कपड़े, खिलौने- सब! सुन कर अपराजिता ने श्रेयस के लिये अपने हाथों से बनाई कपड़े की गुड़िया चुपचाप एक कोने में रख दी थी. श्रेयस पहली बार अपने घर आया था, मगर ना वह उसे कोई उपहार दे सकी थी, ना कुछ खिला सकी थी. उस ने जब थोड़ा-सा मधु उसे चटाने की क़ोशिश की थी, पंखुरी ने उसे रोक कर उसके हाथ में एक स्प्रे थमा दिया था- ‘दीदी! हाथ डिस इनफेक्ट कर लें प्लीज़!’ इसके बाद उसने श्रेयस के पास फटकने की हिम्मत नहीं की थी.
थोड़ी देर बाद परिमल ने घुमा-फिरा कर अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट किया था- ‘इस पुश्तैनी घर को वह बेच देना चाहता है. आई टी हब बन जाने की वजह से इस शहर में प्रापर्टी के दाम आकाश छू रहे हैं. इस घर को बेच कर वे अमेरिका में एक फ्लैट लेना चाहते हैं.’ सुन कर उसने किसी तरह से कहा था- ‘और मैं?’ उसके सवाल पर परिमल ने उसके हाथ पकड़ लिये थे- ‘तुम हमारे पास रहोगी दी! थोड़े समय बाद श्रेयस किंडर गार्डन जायेगा. पंखुरी को भी अपनी नौकरी ज्वाइन करनी है...’ पंखुरी ने बीच में ही उसकी बात लपक ली थी- ‘वहां बच्चों के लिये बेबी सिटर रखना बहुत महंगा पड़ता है!’ परिमल ने इस बात पर उसे घूर कर देखा था. अपराजिता हां ना कुछ कह नहीं पाई थी.
उनके जाने के बाद उतरती सांझ में अपरजिता चुपचाप आंगन में बैठी रह गई थी. एक धूप नहाये दिन के बाद एक गहरी उदास शाम- दालान को घेर कर खड़ी ढहती दीवारों पर किसी आसेब की तरह बेआवाज़ उतरती हुई... इसी आंगन को लीपते-बुहारते, कभी गिरती छत को सम्हालते, कभी बैठती दीवारों को थामते जाने कितने साल बीत गये! जिम्मेदारियों ने कभी अपने बारे में सोचने नहीं दिया. परिमल की परवरिश, उसकी ज़िन्दगी, पढ़ाई, करियर... यही उसकी सोच की प्राथमिकता रही. कभी किसी ने हाथ बढ़ाया, साथ चलने की क़ोशिश भी की तो उसने मुड़ कर नहीं देखा. आकाश के गहरे बैंजनी पट पर एक-एक कर उग आते चमकीले सितारों की ओर देखते हुये उसे श्यामल की याद आई थी. उसी के स्कूल में संगीत का टीचर. गहरे सांवले चेहरे पर दो उजली, भाव प्रवण आंखें और उनकी खोई-खोई-सी उदास दृष्टि! कुछ था कि पहली बार उसे अपने जीवित होने और देह में किसी अज्ञात पीड़ा में टीसती रेशमी नसों का अहसास हुआ था. उन्हीं दिनों उसके ज़र्द सपनों में गुलाल की कुछ छींटें पड़ी थीं। मगर वह हिम्मत जुटा नहीं पाई थी. उसी साल परिमल ने बोर्ड की परीक्षा दी थी. उसका पूरा फ्यूचर प्लान करना था. सब कुछ बीच में छोड़ कर कैसे चली जाती. निर्णय के हर कठिन क्षण में मां-बाबूजी सामने आ खड़े होते हैं. साथ में उनके आख़िरी शब्द- ‘अपने छोटे भाई को सम्हालना...’
दूर रह-रह कर मिल का भोंपू बज रहा है. आकाश में धुयें की एक महीन स्लेटी पर्त बिछ गई है. आधा चांद एक धब्बे की तरह दिख रहा है. कहीं कोई नहीं... सन्नाटा कानों में ज़मीन पर गिरती थाल-सा झनझना रहा है. वह फिर देखती है, पड़ोस में यादवजी का घर मलबे के ढेर में बदल कर पड़ा है. उन्होनें भी अपना घर बेच दिया है. उस जगह कोई बड़ी बिल्डिंग आयेगी. साथ ही उनका तबेला भी टूटा पड़ा है. उन्होंने अपनी गाय भी किसी कसाई को बेच दी है शायद. बूढ़ी हो गई थी... जाते हुये वह बूढ़ी गाय यादवजी की पत्नी का हाथ चाट रही थी... वह दृश्य याद करके जाने क्यों अपराजिता को घबराहट-सी होने लगी थी. कुछ ज़्यादा ही. पूरा बदन पसीने से भीगने लगा था.
बिस्तर पर लेट कर एक बार ख़्याल आया था परिमल को फोन करने का, मगर उसने नहीं किया था. आज परिमल की छोटी साली आने वाली है. घर में पार्टी है. फिर कल समधन जी का जन्म दिन, मन्दिर जाने का प्रोग्राम... शाम को पड़ोस की मिसेज़ बत्रा पूछ रही थ- ‘क्यों, अब आपका एन. आर. आई. भाई अपने घर पर नहीं ठहरता?’ उसने बहाना बनाया था- ‘उनकी सास की तबीयत ठीक नहीं!’ सुन कर मिसेज़ बत्रा खुल कर हंसी थी- ‘अच्छा! वैसे आज शाम को तो इन्टर नेशनल शॉपिंग मॉल के सामने सासूजी अपने बेटी-दामाद के साथ खड़ी हो कर पानी पुरी खा रही थीं!’ सुन कर उसके कान गरम हो गये थे.
अंधेरे में छत की कड़ियां गिनते हुये वह कुछ सोचना नहीं चाहती. कल वह घर के कागज़ परिमल को सौंप देगी. पंखुरी कई बार उसे इशारे से समझा चुकी है, वह सिर्फ इस सम्पत्ति की केयर टेकर है. सम्पत्ति का उत्तराधिकारी तो बेटा ही होता है! हां, बेटी के हिस्से तो बस मान-मर्यादा, सेवा का अधिकार, कर्तव्य और खानदान की इज्ज़त का बोझा ही आता है. बेटे को मिलता है नाम, अधिकार... वह सब दे देगी परिमल को, आख़िर एक दिन तो उसे ही देना था सब कुछ! पहले मां-बाबूजी ने कहा था, परिमल को देखना. आज परिमल कह रहा है, दी! मेरे श्रेयस को सम्हालना... सम्हालेगी वह. उसने परिमल को कभी किसी चीज़ के लिये ना नहीं कहा है. इस बार भी ना नहीं करेगी. कर नहीं सकेगी!
इस घर की तरह वह भी हमेशा से एक घर रही है सबके लिये- अपनों का आश्रय! हर घर को अपने ढहने तक बने रहना पड़ता है- दोनों बाहों में सबकी सुरक्षा, रिश्तों, अभिलाषाओं को समेटे. सपनों को आकार देना होता है. सामना करना पड़ता है तूफानों का, सर्दी, गर्मी, बरसात को झेलना पड़ता है. कभी छत बन कर सारा आकाश का बोझ उठाना पड़ता है तो कभी दीवार बन कर पूरी दुनिया को रोकना पड़ता है! इन सब के बीच उसका होना, बने रहना ही उसके जीवन की सार्थकता होती है. अपराजिता भी अब तक इसी में- सबके लिये अपने घर होने मे, बने रहने में ख़ुश थी. मगर आज... उसकी आंखें आंसुओं से अंधी हुई जा रही है, शायद इस अहसास से कि वह अब अपनों के लिये एक घर से महज ईंट-पत्थरों के मकान में तब्दील होती जा रही है- एक खाली मकान!
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