Karm Path Par - 1 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 1

Featured Books
  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

  • સંઘર્ષ જિંદગીનો

                સંઘર્ષ જિંદગીનો        પાત્ર અજય, અમિત, અર્ચના,...

Categories
Share

कर्म पथ पर - 1


Chapter 1



सन 1942 का दौर था। सारे देश में ही अंग्रेज़ों को देश से बाहर कर स्वराज लाने का प्रबल संकल्प था। देश को अंग्रज़ों की पराधीनता से छुड़ाने का जुनून हर स्त्री, पुरुष और युवा पर छाया था।
9 अगस्त 1942 को गांधीजी ने बंबई के गोवालिया टैंक मैदान से अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाने की चेतावनी दी। उन्होंने देशवासियों को नारा दिया 'करो या मरो'।
गांधीजी के इस आवाहन पर हजारों की संख्या में नर नारी सड़कों पर उतर पड़े। युवा वर्ग इस मुहिम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा था। उनका एक ही उद्देश्य था। अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर कर अपना शासन स्थापित करना।
देश को आजाद कराने के इस आंदोलन में हर धर्म, हर जाति तथा हर वर्ग का प्रतिनिधित्व था। जिसकी जैसी योग्यता थी, वैसी ही उसकी इस महायज्ञ में आहुति थी।
लखनऊ के मशक गंज इलाके में युवाओं का एक जुलूस अंग्रेज़ों को देश छोड़ कर चले जाने की चेतावनी देते हुए आगे बढ़ रहा था। इस जुलूस की अगुवाई मोहसिन रज़ा नामक बीस साल का एक नौजवान कर रहा था।
लंबे कद और गठीले बदन का मोहसिन आत्मविश्वास से भरा जुलूस के आगे आगे चल रहा है। अपने साथियों के मन में जोश भरने के लिए वह रामप्रसाद बिस्मिल के गीत की पंक्तियां तेज स्वर में गा रहा था।
“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजुए-कातिल में है?”

उसके साथी भी साथ में ये पंक्तियां दोहरा रहे थे। जुलूस में करीब बारह लोग थे। सभी सोलह से बीस साल के नवयुवक थे। जो अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई छोड़, घरवालों के विरोध के बावजूद देश की आज़ादी के आंदोलन में अपने सर पर कफ़न बांध कर निकल चुके थे।
नवयुवकों का ये जुलूस पास के थाने का घेराव करने जा रहा था। थाने के बाहर दारोगा रामशरण सिंह अपने सिपाहियों के साथ उनके जुलुस को रोकने के लिए खड़े थे।
थाने के पास पहुँच कर मोहसिन और उसके साथियों ने ज़ोर ज़ोर से नारे लगाने शुरू कर दिए।
"अंग्रेज़ों भारत छोड़ो...."
"करेंगे या मरेंगे पर रुकेंगे नहीं...."
रामशरण ने अपनी बुलंद आवाज़ में उन्हें धमकाया।
"चुपचाप चले जाओ, नहीं तो मार मार कर हड्डी पसली एक कर दूँगा।"
लेकिन मोहसिन पर दारोगा रामशरण की धमकी का असर नहीं हुआ। वह निडर शेर की तरह दहाड़ता आगे बढ़ता रहा। साथ में उसके साथी भी नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे।
दारोगा रामशरण को उन लोगों के इस दुस्साहस पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने सिपाहियों को लाठीचार्ज का आदेश दिया। सिपाही लाठियां लेकर जुलुस पर टूट पड़े। जुलूस तितर बितर हो गया। सब अपने आप को बचाने के लिए इधर उधर भागने लगे।
मोहसिन लाठियों की परवाह किए बिना उसी तरह बिस्मिल की पंक्तियां गाता आगे बढ़ता रहा। एक सिपाही की लाठी उसके सर पर पड़ी। खून का फव्वारा निकल पड़ा। मोहसिन की चोट गंभीर थी। वह ज़मीन पर गिर पड़ा।
मोहसिन की मौत की खबर पूरे लखनऊ में आग की तरह फैल गई। हर कोई अपनी तरह से उसकी मौत पर राय दे रहा था। कुछ लोगों के लिए यह निरी बेवकूफी थी। उनका कहना था कि अंग्रेजों को देश से निकाल कर हम क्या प्राप्त कर लेंगे ? बेवजह ये लोग हल्ला मचा रहे हैं। अच्छा हो कि यह सब भूल कर पढ़ने लिखने में ध्यान लगाएं।
दूसरी तरफ बहुत से ऐसे लोग थे जो मोहसिन जैसे नौजवानों के बारे में अच्छी राय रखते थे। उनका मानना था कि ये नौजवान अपने स्वार्थ के बारे में ना सोंच कर देश की सेवा कर रहे हैं। इन लोगों में मोहसिन की मौत को लेकर गुस्सा था।
पर इन लोगों में इतनी हिम्मत नहीं थी कि इस मौत का खुलकर विरोध कर सकें।
शहर के एक दैनिक हिंद प्रभात में कृष्णदत्त के द्वारा लिखे एक लेख ने लोगों के मन में दबे हुए इस गुस्से की चिंगारी को भड़का दिया था। अब तक जो लोग दबे छुपे मोहसिन की मौत पर गुस्सा जाहिर करते थे, अब खुल कर बोलने लगे थे।
अमीनाबाद इलाके में हिंद प्रभात का दफ्तर गुप्त रूप से एक घर में चल रहा था। उसके प्रमुख कर्ताधर्ता और संपादक उमाकांत शर्मा अपने अखबार के माध्यम से समाज में क्रांति की ज्वाला को जलाए हुए थे। दफ्तर में बैठे उमाकांत अगले अंक की तैयारी कर रहे थे। उसी समय उनके सहायक मदन सक्सेना ने दफ्तर में प्रवेश किया।
"नमस्ते भाईजी...."
"आओ भाई मदन। क्या समाचार लाए हो ?"
"भाईजी कृष्णदत्त ने मोहसिन पर जो लेख लिखा है, उसने तो कमाल कर दिया। हर तरफ हिंद प्रभात के इस लेख की चर्चा है। वाकई ये कृष्णदत्त बहुत अच्छा लिखता है। मैंने इसके पहले के लेख भी पढ़े हैं। सचमुच इसके शब्दों में चिंगारी होती है।"
मदन की बात सुनकर उमाकांत मुस्कुरा रहे थे। अपनी बात कहते हुए मदन बोला,
"पर कभी इस कृष्णदत्त से मिलने का मौका नहीं मिला। कभी मिलवाइए इससे।"
उमाकांत हंस कर बोले,
"कितनी बार तो मिले हो उससे।"
"मैं मिला हूँ ?"
"हाँ.... तुम मिले हो। यहीं इसी दफ्तर में।"
"भाईजी पहेलियां ना बुझाइए। मेरी उत्सुकता बढ़ रही है।"
"वो लड़की जो मेरे दफ्तर में आती है।"
मदन ने दिमाग पर ज़ोर डाला।
"आपका मतलब है....वृंदा ?"
"हाँ वो कृष्णदत्त के छद्म नाम से लिखती है।"
मदन के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उसने कई बार वृंदा को हिंद प्रभात के दफ्तर में देखा था। उसने उमाकांत से पूँछा भी था कि वह यहाँ क्या करने आती है। तब उन्होंने कहा था कि उसे लिखने का शौक है। इसलिए कभी कभार कुछ लिख कर उन्हें दिखाने लाती है।
वृंदा हिंद प्रभात के दफ्तर के दो गली आगे ही रहती थी। वह बाल विधवा थी। मदन जानता था कि उसके पिता ने अपने गांधीवादी बड़े भाई के कहने पर, विधवा होते हुए भी वृंदा को घर पर मास्टर रख कर पढ़ाया था।
पर वह यह कभी नहीं सोंच सकता था कि सीधी-सादी दिखने वाली वृंदा के भीतर एक आग होगी। ऐसी आग जो जलाती नहीं है। बल्कि लोगों को झकझोर कर नींद से जगा देती है।
मदन के मन में वृंदा के लिए सम्मान का भाव जाग उठा था।
मदन को गंभीर देख कर उमाकांत ने पूँछा,
"क्या हुआ ? क्या सोंच रहे हो ?"
"भाईजी मैं सोंच रहा था कि हमारे समाज में औरतों के व्यक्तित्व को इतना सीमित करके रखा जाता है। मैं खुद की ही बात करूँ तो वृंदा को अब तक मैंने एक बाल विधवा से अधिक नहीं समझा था। पर उस सीधी-सादी सी दिखने वाली लड़की में कितना साहस है।"
"इसीलिए तो हम आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। जब अपना राज होगा तब हम इन सामाजिक मुद्दों पर काम कर पाएंगे।"
"भाईजी एक बात समझ नहीं आई कि वृंदा इतनी गुणी होने के बाद भी छद्म नाम से क्यों लिखती है ?"
"बात तो तुम्हारी ठीक है। पर इस विषय में ना मैंने कभी पूँछा, ना ही उसने कभी बताया।"
हिंद प्रभात के दफ्तर के बाहर अंग्रज़ी सरकार का एक गुप्तचर खड़ा था।