Nai Chetna - 6 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | नई चेतना - 6

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नई चेतना - 6



अमर घर से निकल तो पड़ा था लेकिन उसे खुद ही पता नहीं था उसे जाना कहाँ है करना क्या है ? बस वह चला जा रहा था । तेज तेज कदमों से। बिना रुके चला जा रहा था । वह जल्द से जल्द उस घर से उस गली से उस गाँव से दूर निकल जाना चाहता था , जहां उसकी धनिया के साथ अन्याय हुआ था ।

अमर की नज़रों में यह अन्याय ही नहीं बहुत बड़ा अन्याय हुआ था । ‘ क्या उनके साथ ऐसा किया जाना चाहिए था ? वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि मैंने उससे शादी करने की इच्छा जताई थी? मेरी इच्छा के लिए वो कैसे जिम्मेदार हो गयी ? बिना कुछ किये ही उसे और उसके बीमार बाप को घर से बेघर कर दिया । अब पता नहीं कहाँ होंगे ? किस हाल में होंगे ? ‘ यही सब सोचते अमर के पाँव स्वतः ही शहर जानेवाली मुख्य सड़क पर पहुँचकर शहर की तरफ मुड़ गए थे ।

कितनी विचित्र चीज है ! कहते हैं शरीर में दिमाग सर्वोपरि है तो फिर ऐसा क्यों होता है कि जब दिल में कोई बात घर कर जाती है तो दिमाग भी अपनी पूरी शक्ति से दिल की बात पर ही विचार करने लगता है। शरीर के अंग भी दिल की धड़कन के साथ ही ताल में ताल मिलाने लगते हैं।

कुछ इसी अवस्था में अमर सड़क के किनारे पैदल ही चला जा रहा था । उसके कदम अपने आप बढे जा रहे थे एक अनजानी दिशा की ओर जिसकी खबर न उसके दिल को थी और न ही उसके दिमाग को । पीछे से आती तेज हॉर्न की आवाज के साथ ही गाड़ी के ब्रेक की चिंघाड़ से उसकी तन्द्रा भंग हुयी ।

एक महँगी विदेशी गाड़ी उसके बिलकुल करीब आकर रुक गयी थी । शायद ड्राईवर ने उसे बचाने के लिए तेजी से ब्रेक मारा था । गाड़ी रुकते ही ड्राईवर ने सिर बाहर निकाल कर उसे एक भद्दी सी गाली दी, “मरने के लिए हमारी ही गाड़ी मिली थी क्या ?” और सर्र से गाड़ी आगे बढा दिया ।

अमर दूर जाती गाड़ी की टेल लाइट को देर तक निहारता रहा और सड़क पर ही एक किनारे बैठ गया । ड्राइवर की बेहूदगी उसे आहत कर गई थी । और कोई वक्त होता तो क्या कोई उसे आँख दिखाकर भी निकल जाता ? उसकी आँख ही निकाल लेता। लेकिन वह स्वयं हैरान था कि उसने आखिर यह सब बर्दाश्त कैसे कर लिया ? उस ड्राईवर को बिना सबक सिखाये जाने कैसे दिया ? माना कि वह बेख्याली में सड़क पर आ गया था लेकिन क्या उस ड्राईवर की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह दूर से ही हॉर्न बजाता ? क्या ऐसे वह रस्ते पर चलने वालों को उड़ाते या फिर अपमानित करते चलेगा ? लेकिन अब सोच के क्या फायदा ? वह तो जा चुका था ।

न जाने कितनी देर वह यूँ ही सड़क किनारे बैठा रहता कि वहीँ से गुजर रहे हरिया ने उसे देख लिया। हरिया उसी हरिजन बस्ती का निवासी था जिसमें बाबू और उसकी बेटी धनिया रहते थे । सड़क पार कर हरिया भागकर अमर के पास पहुँच गया और अमर को सड़क किनारे नीचे बैठे देख हैरत से बोल उठा, “छोटे मालिक ! आप और यहाँ इस हाल में ? गाडी कहाँ है ? क्या हुआ ? ”

एक साथ कई सारे सवाल उसके मुँह से निकल पड़े । उसकी हालत देखकर हरिया अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सका । वह लाला धनीराम के कई अहसानों तले दबा हुआ था और लालाजी की बड़ी इज्जत करता था। यूँ तो लाला धनीराम अपने मधुर व्यवहार और अपनी नेक नियति के लिए पूरे इलाके में मशहूर थे । और ऐसे लाला धनीराम के इकलौते सुपुत्र को सड़क किनारे नीचे जमीन पर बैठा देखना वह हजम नहीं कर पा रहा था ।

उसके सवालों से गाफिल अमर अपने में ही खोया रहा । वह अभी तक उस गाडी के बारे में ही सोच रहा था । सोच रहा था ‘ कुछ पैसे वाले ऐसे संवेदनहीन क्यों हो जाते है ? वह स्वयं भी तो एक काफी रईस घर से ताल्लुक रखता है । उसके बाबूजी की गिनती भी तो रईसों में होती है फिर हम लोग ऐसे क्यों नहीं हुए ? शायद यही संस्कार का प्रभाव हो।'

कुछ देर हरिया उसके समीप खड़ा उसकी हरकतों को देखता रहा और कुछ न समझ पाने की सूरत में उसके दोनों कन्धों को पकड़कर जोर से चीखा “छोटे मालिक !” अब अमर वापस अपनी दुनिया में लौट आया। चौंककर हरिया की तरफ देखा और कमजोर स्वर में बोल उठा, ” हरिया काका ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? ”

हरिया उसकी बात पर ध्यान दिए बिना बोल पड़ा ” छोटे मालिक ! कहाँ खो गए थे आप ? मैं कब से आप को आवाज दे रहा था और ऐसा लग रहा था जैसे आप कुछ सुन ही नहीं रहे हों । आप यहाँ कैसे पहुंचे ? बस्ती तो यहाँ से तीन किलोमीटर दूर है । आसपास आपकी गाड़ी भी नहीं दिखाई दे रही है तो क्या आप पैदल ही यहाँ तक आ गए ? ”

अमर का सब्र जवाब दे गया था । आँखों में आँसू तैरने लगे थे । भर्राए गले से बोला ,“हरिया काका ! क्या बताऊँ ? कैसे बताऊँ?” कहकर वह फिर खामोश हो गया । हरिया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था । फिर भी तसल्लीभरे स्वर में हरिया बोल पड़ा, ” कोई बात नहीं छोटे मालिक ! आप यहीं रुकिए । मैं बड़े मालिक को जाके बता देता हूँ । वो आपके लिए गाडी भेज देंगे…” अभी हरिया कुछ और कहता कि अमर बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोला, ” नहीं नहीं काका ! आप किसीको कुछ नहीं बताएँगे । मैं चला जाऊंगा । जैसे आया वैसे ही चला भी जाऊंगा । ”

हरिया बोला ” नहीं मालिक ! इतनी दूर आप पैदल कैसे चल पाएंगे ? मैं जाकर बड़े मालिक को बताता हूँ । वही कुछ करेंगे।”

अमर कुछ सोचते हुए बोला ” ठीक है हरिया काका ! ये बताओ ! तुम पैदल कहाँ से आ रहे हो ? ”

हरिया बोला ,” पास के ही शहर गया था कुछ काम से । कोई साधन अपने गाँव के लिए तो है ही नहीं सो पैदल ही घर जा रहा था कि आप पर नजर पड़ गयी।”

” ठीक है हरिया काका ! ये बताओ आप बाबू काका के बारे में जानते हो कि वो कहाँ पर हैं ? ” अमर ने सवाल किया ।

” बाबू को तो मैंने सुबह भी नहीं देखा था । लगता है उसकी तबियत ज्यादा ख़राब हो गयी होगी और धनिया उसे लेकर शहर चली गयी होगी इलाज कराने के लिए। लेकिन आप क्यों पूछ रहे हो?” हरिया को अमर का सवाल हैरत भरा लगा था । ‘आखिर छोटे मालिक का बाबू हरिजन से क्या लेना-देना ? ‘

हरिया के सवाल को अनसुना करके अमर फिर पूछ पड़ा “अच्छा हरिया काका ! क्या बाबू काका का कोई परिचित भी है शहर में जहाँ वो जाकर रहकर अपना इलाज करा सके ? ”

हरिया कुछ न समझते हुए भी सोचने के अंदाज में बोल पड़ा ” हाँ हाँ छोटे मालिक ! बाबू का दूर का एक रिश्ते का भाई नारायण हरिजन शहर में ही ‘विश्राम मिल’ के नजदीक ही बने झुग्गियों में ही कहीं रहता है । वहीँ मिल में पहरेदारी का काम करता है। सुना है उसका एक बड़ा लड़का भी है और शहर में रिक्शा चलाता है। लेकिन आप यह सब क्यों पूछ रहे हो ? ”

अब अमर को काफी कुछ पता चल चुका था । वह सोच रहा था बाबू काका को लेकर धनिया अवश्य ही नारायण के यहाँ ही गयी होगी । आखिर और कहाँ जाएगी ? हरिया से बोला “कोई बात नहीं काका । वो क्या है न कि धनिया बाबू काका की बेटी आज काम पर नहीं आई थी । इसीलिए आपको देखा तो पूछ लिया कि शायद आपको सही मालुम हो । आप भी तो उनके बगल में ही रहते हो न इसीलिए । ”

” अब आप जाओ हरिया काका ! मैं यहाँ किसी का इंतजार कर रहा हूँ । थोड़ी ही देर में घर वापस आ जाऊंगा ।” अमर ने साफ साफ झूठ बोल दिया था । हरिया को उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ लेकिन वह और कर भी क्या सकता था ? अमर को वहीँ बैठा छोड़कर हरिया अपने गाँव की तरफ चल दिया । हरिया के कुछ दूर जाने के बाद अमर भी उठ कर शहर की तरफ चल दिया ।

शहर अभी वहाँ से लगभग पांच किलोमीटर दूर था। और जिस मिल का हरिया ने जिक्र किया था वो तो शहर की सीमा से भी तीन किलोमीटर और अन्दर था । अब अमर के सामने एक मंजिल थी। उसके पास एक मकसद था । नतीजा चाहे जो हो लेकिन अब उसे सबसे पहले नारायण के घर पर ही दस्तक देनी थी । हरिया ने उसे बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दे दी थी ।

मंजिल और मकसद साफ़ होते ही उसके कदमों में आश्चर्यजनक तेजी आ गयी थी । तेज तेज कदमों से वह शहर की तरफ बढ़ते जा रहा था । कभी आधा किलोमीटर भी पैदल नहीं चलनेवाला शख्स तीन चार किलोमीटर चलने के बाद भी मन में सात आठ किलोमीटर और चलने का हौसला रखता था । कहीं यह प्रेम की शक्ति तो नहीं ?

(क्रमशः)