Anjane lakshy ki yatra pe - 12 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 12

Featured Books
Categories
Share

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 12

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

भाग-12

संकट में प्राण

सारा दिन हमारे जलपोत पर हलचल रही; किंतु दिन बीत गया। कोई विशेष बात या घटना के बिना। दिनभर की हलचल के बाद सभी लोग सोने चले गये। मैंने मित्र गेरिक से कहा कि वह भी दिनभर का थका हुआ है अत: विश्राम करे मैं यथासम्भव रात जागकर स्थिति पर नज़र रखूंगा और आवश्यकता होने पर सभी को जगा दूंगा। गेरिक ने मेरी ओर अर्थपूर्ण ढंग से देखा और सोने चला गया। मैंने अभियान प्रमुख से भी उनका सहायक बनने का प्रस्ताव रखा और प्रार्थना की कि वे विश्राम करें मैं उन्ही के कक्ष का नियंत्रण सम्हालूंगा और कोई आवश्यकता होने पर उन्हे जगा लूंगा। यह वास्तव में, मेरी ओर से अपने होने वाले सम्भावित ससुर को प्रभावित करने का प्रयास मात्र था। ईश्वर की कृपा से वे सहमत हो गये और मैं जागता हुआ जलयान में घूमते फिरते हुये हर एक से बातचीत करता रहा। अब मुझ में एक नये अनुभव का संचार होने लगा। और मुझे अपने अंदर उस गर्व की अनुभूति हुई जो किसी सार्थक कार्य में व्यस्त होने पर होती है। कहा भी गया है, कि उत्तरदाईत्व के बिना आत्म्सम्मान कहाँ और आत्मसम्मान के बिना सम्मान कहाँ। यदि आप स्वयम् में ही अपने प्रति सम्मान का भाव जागृत नहीं कर सके तो किसी और से सम्मान की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

रात…

पता नहीं वह रात अपेक्षाकृत रूप से शंत लग रही थी। आकाश अपेक्षाकृत काला था। चंद्र्मा अनुपस्थित था किंतु तारे इतने अधिक थे कि आकाश की ओर देखने से भय लगता कि अभी वे तारे टूट कर, हमारे सिरों पर गिर पड़ेंगे। शीतल बयार मद्ध्म गति से बह रही थी। मैं ऊपर पोत की छत पर धीमें- धीमें कदमों से टहलते हुये निशा के मनमोहक जादू के बंधन में बंधा, अपनी प्रेयसी के सपनो में लीन था। हवा में एक प्रकार की खुशबू थी। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो; किंतु मैं उस खुशबू और उस हवा को अपने अंदर गहराई तक उतारने के लिये गहरी गहरी सांस ले रहा था। पता नहीं क्यों यह मुझे अपनी प्रेमिका की याद दिला रही थी।

मैं सोंचने लगा, ‘यह हवा तो निश्चित रूप से वहाँ भी जा रही होगी जहाँ मेरी प्रेयसी मेरी प्रतीक्षा में एक एक पल गिन रही होगी। मैं रात की इस नीरवता में उसे अपनी कल्पनाओं में देख सकता था, उसे अनुभव कर सकता था। वह तो मेरे पास थी। मेरे आस-पास। ये मेरे मन मस्तिष्क में पल्लवित होते प्रेम के नवांकुर ही तो थे। जो मेरे चित्त को भ्रमित कर रहे थे। शायद मैं पागल होता जा रहा था और यह पागलपन मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं रात के इस एकांत में इस उन्माद में इस पागलपन में डूब जाना चाहता था।

मैं अपने उन्माद में डूबा कल्पना करने लगा- वह भी रात में अपने द्वीप के समुद्र तट पर खड़ी है। ठीक उसी जगह जहाँ हमारे जहाज़ को बिदाई देते समय खड़ी थी। उसकी आँखों मैंनाना अब भी वैसी ही उदासी थी। वे आंखें मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रही थी। मुझको छू कर गुज़रती हुई हवा उसके चेहरे को सहला रही थी। कमर तक लम्बे उसके बालों को लहरा रही थी। उसके कानों में कुछ गुनगुना रही थी।

उसका सारा अस्तित्व ही, मुझे छू कर उस तक पहुंचती समीर को अनुभव कर रहा था। वह शायद उस हवा के स्पर्ष में मुझे अनुभव कर रही थी।

“ऐ पवन...” मैंने समुद्री हवा से बातें करनी शुरू की, “मेरी प्रेयसी के कानों को चुपके से मेरा संदेश देना, कि जिस तरह तू मेरी विरह में तड़प रही है, मैं भी तेरी विरह में तड़प रहा हूँ। ऐ मेरी प्रियतमा ! ये तारों से भरे आकाश और हिलोरें लेते सागर को और मुझे छू कर तुझ तक पहुंचती इस पवन को साक्षी बनाकर मैं तुझे वचन देता हूँ, मैं तुझे निराश नहीं करूंगा। मैं वापस आऊंगा। मैं तेरे पास वापस आऊंगा। यदि इस प्रयास में मुझे अपने प्राण गंवाने पड़े तो मैं मेरी आत्मा ही तुझ तक पहुंचेगी। मेरी प्रतीक्षा करना...”

“किसे संदेश भेज रहे हो?” अचानक मेरे कानों में पड़े इन शब्दों ने मुझे चौंका दिया।

मैं तेजी से पलटा। हमारे साथ आने वाली सैन्य टुकड़ी के सेनापति का एक गुप्तचर मुझे संदेह भरी निगाहों से घूर रहा था।

वह कब मेरे पीछे आया, मेरी कितनी बातें सुनी, या नहीं भी सुनी; मुझे पता नहीं। पता है तो केवल इतना कि उसे मुझ पर संदेह हो गया है।

संदेह यानि मृत्यु।

हमारे लिये संदेह का यही अर्थ हो चला था। मैं और गेरिक इसी संदेह से मुक्ति के लिये तो इस अभियान का हिस्सा बने थे। यह अभियान ही हमें संदेहमुक्त कर सकता था। और अभी हमारा अभियान प्रारम्भ ही हुआ था कि यह संकट आ पड़ा।

मुझे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं सूझ रहा था। इसका मतलब भी मैं भलीभांति समझता था। अतः मेरा मन भयाक्रांत हो गया। हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा। मैं स्तब्ध था। और मेरी यह अवस्था उसे और अधिक सशंकित कर रही थी।

वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में कुछ क्षण मुझे घूरता रहा, फिर वह बड़ी तेज़ी से वहाँ साए चला गया।

मैं जानता था वह कहाँ गया है?

मैं अब भी स्तब्ध था। मानो समय भी मेरे साथ स्तब्ध था। हवा भी थम गई थी। तारों भरा काला आकाश और अधिक नीचे आ गया था। पोत पर जलदस्युओं के भय से प्रकाश की कोई व्यवस्था थी भी नहीं। फिर भी अंधकार और अधिक गहराता लगने लगा था। आगामी कठिनाइयों की कल्पना मुझे मारे डाल रही थी।

प्रेम की भावना जाने कहाँ विलीन हो चुकी थी। अब न प्रेयसी की कल्पना थी न प्रेम की उमंग।

बस एक ही बात बार-बार मस्तिष्क में उठ रही थी...

मैंने एक बार फिर अपने प्राण संकट में डाल दिये थे।”

**

व्यापारी द्वारा अपनी इस अवस्था के वर्णन ने, उसे उन दोनो डाकुओं का खूब मनोरंजन किया।

वे खूब हँस रहे थे। लेकिन यह उस व्यापारी के लिये बहुत राहत की बात थी। वह यह सोंचकर ही प्रसन्न था कि उसकी यह कथा उन जंगली डाकुओं को बांधे रखी थी।

“प्रेम ! ... ह ह ह... प्रेम... और तुम.... ह ह ह....” वे ठहाके लगा रहे थे, “तुम्हे प्रेम कैसे हो सकता है?...”

“कभी देखा है अपने आप को?... ह ह ह...”

उनकी आवाज़ से शेरू चौंक कर उठ बैठा था। वह प्रसन्नता से तीनो के इर्द-गिर्द दुम हिलाते हुये चक्कर काटने लगा।

आकाश में तारों की चमक फीकी पड़ने लगी थी। आकाश से रात की कालिमा भी छटने लगी थी।

सुदूर पूर्व में कहीं कोई बंसी की स्वरलहरियां हवा में बिखर रही होंगी। अलसाये से बैल अपने स्वामी किसानों के साथ खेतों की ओर प्रस्थान कर रहे होंगे। उनके गले की घंटियाँ कानों में मधुर संगीत घोल रही होंगी...

किंतु, अभी यहाँ जंगल में सूर्योदय के लिये प्रतीक्षा करनी होगी।

**

व्यापारी को लगा थोड़ी देर में सवेरा हो जायेगा और जंगल में खजाने की खोज में आगे की यात्रा में निकलना होगा; अतः थोड़ा विश्राम आवश्यक है। अतः उसने उन दोनो डाकुओं के उपहास पर चुप्पी साध ली और सोने की कोशिश करने लगा।

अपने बंदी को सोता देख दोनो डाकुओं ने भी थोड़ी देर विश्राम करना उचित जाना और हँसते हँसते सो गये। तीनो रातभर के जागे हुये थे तुरंत सो गये और जंगल एक नये प्रकार की आवाज़ से गूंजने लगा वह आवाज़ थी तीन थके हुये प्राणियों के समवेत स्वर में गूंजते खर्राटों की आवाज़।

शेरू चौंक उठा।

शेरू ने भी तीनों के खर्राटों का समवेत स्वर पहली बार ही सुना था; क्योंकि तीनों कभी एक साथ सोये नहीं थे। उनमें एक तो पहरेदारी में जागता ही था और खास बात यह थी कि जंगल में आज से पहले कभी वे इतनी गहरी नींद नहीं सोये थे।

शेरू ने पहले तो अपनी जगह पड़े-पड़े ही कूँ कूँ के स्वर में अपनी अप्रसन्नता प्रकट की, फिर उठकर उन तीनों कि एक परिक्रमा की और फिर आकर अपनी जगह अपने अगले पंजों पर अपनी थूथन टिकाकर सो गया।


( आगेे हैै... भाग-13 वीर और चतुर

और यह भी कि दुनियां वीरों से भरी पड़ी है और चतुर की संख्या नगण्य होती है। यानि आमजन सदा वीर होते हैं और सत्ताधारी चतुर्। यही कारण है कि मुट्ठी भर सत्ताधारी लोग आमजन से सेना तैयार कर उसी के बल पर आमजन पर शासन करते हैं। और व्यापारी वर्ग तो इन सबसे चतुर होता है; वह जब चाहे आमजन से अपनी बात मनवाता है और जब चाहे शासक वर्ग से। हाँ, दोनो पक्षों से काम निकालने का तरीका अलग अलग है। )

मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति