कभी अलविदा न कहना
डॉ वन्दना गुप्ता
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अब रविवार की सुबह का मुझे इंतज़ार रहता था। मैं आज देर तक सोना चाहती थी। कितनी अजीब बात है न कि जब रोज़ जल्दी उठकर जाना होता था, तो नींद से लड़ाई होती थी और आज जब मैं नींद से दोस्ती करना चाह रही थी तो वह रूठ कर बैठी थी। पूरी रात यूँ ही कच्ची पक्की नींद में गुजरी थी। एक रात में इतने सपने... शायद पहली बार ही था जो मैं सपनों में भागते दौड़ते इतनी थक चुकी थी कि बिस्तर से उठना ही नहीं चाह रही थी। शरीर विश्रांत था किंतु दिल और दिमाग क्लांत और विचलित... शरीर के निढाल पड़े रहने से सोच कुछ ज्यादा ही मुखर होने लगती है.. और विचारों को विराम देने के लिए मैंने बिस्तर त्यागना ही मुनासिब समझा।
वाह... मटर वाले पोहे और पकौड़ियाँ... टेबल पर नाश्ता देखकर मैं खुश हो गयी। अलका दी गुलाबजामुन का डोंगा ले आयीं। गनीमत ही रही कि गुलाबजामुन की खुशबू ने अलका दी कि उपस्थिति को नगण्य बना दिया, पता नहीं क्यों मुझे उनसे चिढ़ होने लगी थी। बिल्कुल नहीं पता हो.. ऐसा भी नहीं... बस उन्हें देखकर मेरी सोच सुनील की ओर मुड़ने लगती थी, जो मैं फिलहाल नहीं चाह रही थी।
"विशु दी! गुलाब जामुन खाओ... अलका दी ने बनाए हैं.." अंशु की टोन में व्यंग्य और खुशी का मिश्रण मुझे कंफ्यूज़ कर रहा था। मैं अभी रिलेक्स रहना चाहती थी। कल रात को चार घण्टे तक अंशु और मैं ढेर सारी बातें करते रहे थे... मन कुछ हल्के हुए थे और कुछ भर भी गए थे। उसे मैंने राजपुर में कंचन के घर रुकने की सारी बातें, सारे किस्से सुनाए थे। उसने मेरी अनुपस्थिति में घर की हालतबयानी की थी।
"दीदी! आपको पता है....." अंशु हर राज़ की बात इन्हीं शब्दों से शुरू करती थी और मेरी श्रवण इन्द्रिय एकदम जाग्रत होकर उसकी बात सुनती थी। आज छटी इन्द्रिय भी जाग्रत हो गयी थी... "हाँ बोल क्या हुआ??"
"कल शाम को अशोक भैया और सुनील भैया घर आये थे, ताऊजी और पापा से देर तक बात करते रहे.."
"वो तेरे भैया कबसे हो गए?"
"जब तक कन्फर्म नहीं हो जाए कि जीजा बन रहे हैं या नहीं, तब तक तो भैया ही बोलना पड़ेगा न?"
"हम्म, ये भी सही है, तो मेरी नन्ही जासूस बता क्या बातें हुईं?"
"ये मुझे नहीं पता... चाय नाश्ता लेकर गयी थी, पर भगा दिया गया और धीरे धीरे बात कर रहे थे।" उसके चेहरे पर नैराश्य और दुविधा वाले भाव थे।
"चल जाने दे... अभी मेरे पास भी बातों का पिटारा है, उनकी बात कल देखते हैं... जरूर ताऊजी ने अलका दी और सुनील के रिश्ते की बात करने बुलाया होगा... कुछ भी हो कोई न कोई तेरा जीजा तो बन ही जाएगा दोनों में से..."
"अच्छा आपको फर्क नहीं पड़ेगा... सच्ची में....?"
"मुझे फर्क पड़ेगा या नहीं...? इस बात से तेरे अलावा किसी और को फर्क नहीं पड़ता है अंशु... शायद सुनील को भी नहीं... तभी वह आज उसके भाई की सिफारिश कर रहा था।"
अंशु ने मेरी आवाज का दर्द महसूस कर लिया था... "दीदी ऐसी बात नहीं है... मैंने उनकी आँखों में आपके लिए जो भाव देखे हैं, उससे मुझे लगता है कि उन्हें भी फर्क पड़ेगा... बल्कि पड़ ही रहा होगा... एक तो वे आपके मन की बात नहीं जानते, दूसरे अपने भाई के प्रति सम्मान और अहसान दोनों लेकर चल रहे हैं... आप एक बार उनसे बात तो करिए खुलकर...."
"क्या बोलूँगी..? अशोक से शादी का इंकार तो कर ही दिया है... खुलकर..." इसके साथ ही हम दोनों खुलकर हँस पड़े.... मन एकदम हल्का हो गया था।
"अच्छा दी आप अपनी बातों का पिटारा खोलिए..."
फिर जो मैंने बोलना शुरू किया तो सुबह बस यात्रा से लेकर, कॉलेज, मार्किट, कंचन के घर की महफ़िल और वहाँ के संगी साथियों के अफेयर और अनिता का ईर्ष्या का कारण सब कुछ बताया... सिर्फ एक बात छोड़कर... क्योंकि मुझे डर था कि सुनील और मेरे रिश्ते को लेकर उन सबकी गलतफहमी की बात बताने पर मेरे मनोभावों की चुगली मेरा चेहरा जरूर कर देगा और मैं कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहती थी। बस मुझे कुछ वक्त चाहिए था... खुद का मन टटोलने के लिए...!
"आज का कोई विशेष प्रोग्राम तो नहीं है?" अंशु को पिछले रविवार की शॉपिंग याद थी।
"आज कोई प्रोग्राम मत बनाना प्लीज... आज मैं सिर्फ आराम करना चाहती हूँ।"
"लेकिन आज तो.........." पापा कुछ बोल रहे थे, किन्तु मम्मी के इशारे ने उन्हें चुप और मुझे शंकित कर दिया।
"क्या है आज..?"
"वो कुछ नहीं बेटा... तू आराम कर, शाम को बात करते हैं.. कहीं घूमने चलेंगे।" मम्मी की बात सुनकर में शायद पहली बार चुपचाप अपने रूम में आ गयी थी।
"दीदी जरूर कुछ खिचड़ी पक रही है... लेकिन आप हो कि दाल गलने ही नहीं दे रही।" अंशु मेरे पीछे पीछे आ गयी।
"खिचड़ी खाने दे मरीजों को... और शाम की शाम को देखेंगे... अभी तो मैं जा रही हूँ साड़ियाँ धोने... अगले सप्ताह की तैयारी भी तो करनी है।"
"दीदी आपकी साड़ियाँ मैंने कल ही धो दीं और प्रेस के लिए भी दे दी हैं।"
"अरे वाह... बहन हो तो ऐसी...." मैं उससे लिपट ही गयी थी। अंकु भी आ गया और उसने टी वी ऑन कर दिया।
"तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है...? एग्जाम एकदम सिर पर ही है..."
"बढ़िया चल रही है दीदी... आपके भाई पर आपको गर्व होगा... ये वादा रहा...."
"और बहन पर भी...." हम तीनों बहुत दिनों बाद साथ में बैठकर आनन्दित थे। नौकरी जॉइन करने के बाद से मेरी दिनचर्या इतनी व्यस्त और थका देने वाली हो गयी थी कि हमारी धमाचौकड़ी ही बंद हो गयी थी। आज घर फिर से घर लग रहा था... चहकता और महकता हुआ सा....!
अम्मा तेल की शीशी लेकर आ गयीं, मेरे सिर की मालिश करने... उनके हाथों की जादुई मालिश ने मुझे एकदम हल्का कर दिया... तन से भी और मन से भी...! "लाडो आज तू "उससे' मिलने जाएगी न तो एक बात ध्यान रखना...."
"क्या कह रही हो अम्मा..? किससे मिलने जाना है और क्यों..? क्या ध्यान रखने को कह रही हो..?" मैं एकदम चौंक गयी और अम्मा सकपका गयीं।
"बेटा! अशोक का जन्मदिन है आज और उसने हम सबको डिनर पर बुलाया है... तू लोड मत ले.. तेरी इच्छा के बिना कुछ नहीं होगा.." मम्मी भी आ गयीं थीं मुझे आश्वस्त करने...! लेकिन मैं क्रोधित हो गयी... "आप लोगों ने शादी ब्याह को गुड्डे गुड़िया का खेल समझ रखा है... ले जाओ अलका दी को और करा दो सुनील से उनकी शादी... मुझे कोई मतलब नहीं है... न सुनील से.. न अशोक से..... नहीं जाना किसी के जन्मदिन की डिनर पार्टी में......." तेज़ आवाज़ सुन ताईजी और अलका दी भी आ गईं थीं... स्थिति तनावपूर्ण हो गयी थी किन्तु अम्मा ने नियंत्रण में ले ली... "देख लाडो! गुस्सा करने से कुछ नहीं होगा... यदि तुझे पसन्द होगा, तभी बात आगे बढ़ेगी... तूने पढ़ाई और नौकरी सब मर्ज़ी से की है और मैंने तेरा साथ भी दिया है... आगे भी दूँगी.. लेकिन बिना सोचे समझे फैसला करना सही नहीं है... अशोक हर तरह से तेरे काबिल है और अब उम्र भी है शादी की... तो कुछ तो निर्णय लेना होगा... मेरे जीते जी तुम तीनों की शादी हो जाए, मैं यही चाहती हूँ... अशोक को नापसन्द करने की सिर्फ यही वजह हो सकती है कि तुझे कोई और पसन्द हो... यदि ऐसा हो तो अभी बता दे... और मैं यही कह रही थी कि उससे मिलते समय यह मत सोचना कि उसने अलका को नहीं, तुझे पसन्द किया है... यही सोचना कि रिश्ता तेरे लिए आया है, तभी सही फैसला ले पाएगी... गुस्सा थूक और ठण्डे दिमाग से काम ले... समझी...?"
"हाँ, मेरे दिमाग को ठंडा होने दो और इसके लिए मुझे वक़्त चाहिए... तभी मैं कुछ सोच पाऊँगी.." मैंने बात को टालना चाहा।
"और कितना वक्त चाहिए... मेरी अलका की शादी रुकी है इस वजह से..." ताईजी भी आगबबूला होने लगीं।
"ये तो उल्टी बात हो गयी, वे बड़ी हैं तो जाहिर है उनकी पहले होनी है... उनकी वजह से मेरी रुक सकती है, मेरी वजह से उनकी नहीं... जबरदस्ती सब मेरे पीछे पड़े हो..." मेरी उँची आवाज़ सुनकर पापाजी और ताऊजी भी आ गए थे। थोड़ी देर पहले जो घर चहकता और महकता लग रहा था अब फिर से मनहूस लगने लगा था।
"और सब सुन लो... मैं अप डाउन में वैसे ही थक जाती हूँ, इतनी झिकझिक झेलने से तो अच्छा है कि राजपुर में शिफ्ट हो जाती हूँ।" इस बहस का यह फायदा जरूर हुआ कि मैंने अपनी मंशा जाहिर कर दी।
"मैं शाम की डिनर पार्टी के लिए तैयार हूँ, आप लोग चाहते हैं तो ठीक है... जल्दबाजी में जो भी फैसला हो.." मैंने सोचा कि ऐसे ही मना करने से बेहतर है कि मिलकर मना कर दूँ, सबकी तसल्ली के लिए यही ठीक रहेगा....... और फिर इस प्रसंग का पटाक्षेप हो जाएगा।
शाम को सबसे ज्यादा उत्साहित अंशु थी। डिनर पार्टी सिर्फ हमारे लिए नहीं थी। वहाँ और भी काफी लोग मौजूद थे। हमारे पहुँचते ही केक कटिंग की प्रोसेस शुरू हुई, इतनी देर तक हमारा इंतज़ार करना हमें विशेष अतिथि का दर्जा दिला गया। लोगों की उत्सुक निगाहें झेलना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था।
"बार बार दिन ये आये.. बार बार दिल ये गाये..
तुम जियो हज़ारों साल.. ये मेरी है आरज़ू...
हैप्पी बर्थडे टू यू..…..." सुनील को गिटार के साथ गाते देखकर मैं अभिभूत थी... मैं इतनी खो गयी कि अशोक को विश भी नहीं किया... वही केक लेकर मेरे पास आ गया... "विश मत करो, मुझसे दोस्ती तो कर सकती हो..?"... उसने हाथ बढ़ाया।
"हैप्पी बर्थडे..." कहते हुए मैंने केक ले लिया।
वह जगह बहुत सुंदर थी। उनके घर के पीछे एक तालाब था.. उसके पास की खाली जगह में शामियाना लगाया था। तालाब के पानी को छूकर आती ठंडी हवा और वहीं किसी बंगले में महक रही रातरानी माहौल को खुशनुमा बना रही थी और साथ में सुनील की मदहोश करती सी गायकी.... कुल मिलाकर पार्टी में आने के निर्णय से मैं खुश थी।
बदलना आता नही हमें मौसम की तरह...
हर एक रुत में तेरा इंतज़ार करते है...
ना तुम समझ सकोगे जिसे कयामत तक...
कसम तुम्हारी तुम्हें हम इतना प्यार करते है...
सुनील जैसे मेरे लिए ही गा रहा था... मैं खो गयी थी उसकी आवाज़ में कि तभी अशोक की आवाज़ ने चौंका दिया... "सुनो! मुझे कोई जल्दी नहीं है, तुम आराम से सोचकर बताना... दरअसल तुम्हें देखते ही मुझे ऐसा लगा था कि जिसकी मेरे दिल को तलाश है... तुम वही हो... तुम्हें देखते ही तुमसे प्यार हो गया था... किन्तु तुम भी मुझसे प्यार करो, ये कोई जरूरी तो नहीं है..." मुझे गाने में खोया देखकर वह आगे बोला... "शब्द मेरे हैं और लय और आवाज़ सुनील ने दी है.."
"अच्छा लिखा है आपने और उससे भी बेहतर सुनने में लग रहा है.... ये कयामत तक प्यार... इंतज़ार... सब फिल्मी बातें हैं... हकीकत में ऐसा नहीं होता..."
"चाहो तो आजमा के देख लो..."
"आजमाना क्या है... मैंने बदलते हुए देख लिया है... वैसे अलका दी में कोई कमी नहीं है और फिर....."
"मैंने अलका को नापसन्द नहीं किया है... उसने मुझे एक पुर्जा दिया था उस दिन... जिसमें गुजारिश थी कि मैं उसे नापसन्द कर दूँ, बिना किसी को पता चले कि वह यह रिश्ता नहीं करना चाहती... खैर! मैं तुम्हें यह सब क्यों बता रहा हूँ, तुम्हें मुझ पर क्यों विश्वास होगा... लेकिन प्लीज मैंने तुम पर जो विश्वास किया है, उसे मत तोड़ना इस मैटर में.... और यह कुदरत का ही करिश्मा लगा था मुझे कि तुम्हें देखकर मुझे कुछ अनोखा अहसास हुआ था... मुझे लगा था कि इस बहाने ही तुमसे मिलना किस्मत की लकीरों में लिखा है... किन्तु......." अचानक ही अलका दी और अंशु भी वहीं आ गयी और हमारी बात अधूरी रह गयी। अशोक का एक नया ही रूप मेरे सामने था... अलका दी को सुनील में दिलचस्पी क्यों हुई? क्या अशोक सच बोल रहा है? अलका दी ने यदि ऐसा किया है तो क्यों...? मैं मेरे मन को टटोलना चाह रही थी और यहाँ अनेक प्रश्न मुँह बाए खड़े थे......!
क्रमशः....11