कभी अलविदा न कहना
डॉ वन्दना गुप्ता
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आज की भोर बहुत सुहानी लग रही थी। आज मुझे न तो साड़ी पहनने का डर, न यात्रा की मुश्किल और न ही वह पसीने की बदबू का ख्याल था... आज तो मैं सोच रही थी कि कौन सी साड़ी मुझ पर ज्यादा जँचेगी... और... और सुनील से मिलने पर मैं कैसे रियेक्ट करूँगी या कि वह मुझे कैसे देखेगा और क्या बोलेगा।
"वाह दीदी आज तो बड़ी जल्दी तैयार हो गयी... हूं.. हूं... सब समझ रही हूँ... आज मैं भी चलती हूँ आप के साथ..." अंशु मुझे छेड़ने का कोई मौका कभी नहीं छोड़ती थी, फिर आज तो.....
"तू.... क्यों? परेशान हो जाएगी गर्मी में...."
"हाँ.. हाँ... वैसे भी मुझे कबाब में हड्डी बनने का शौक नहीं है.... मैं तो पनीर में मटर ही बनी रहूँगी.... ये लीजिए आपका टिफिन... मटर पनीर ढेर सारा रख दिया है... खिला देना जनाब को और बोल देना कि मुझे जीजू के रूप में वे स्वीकार हैं... "
"कौन जीजू?" अलका दी भी आ गयीं थीं।
"अशोक जीजू... हमारी अलका दी और उनकी जोड़ी कितनी अच्छी लगेगी।" मैंने दीदी के गले में बाँहे डालते हुए कहा।
"चल हट!..." उन्होंने शर्माते हुए कहा... "और सुन बस में सुनील से पूछना कि अशोकजी ने और क्या क्या कहा।
"ठीक है अब चलूँ.... चलिए पापाजी मैं तैयार हूँ।" हम तीनों एक साथ ड्राइंग हॉल में आ गए।
वहाँ ताऊजी फोन का चोगा पकड़े बैठे थे।
"क्या हुआ ताऊजी, सगाई की तारीख बता दी क्या उन लोगों ने?" अंशु एकदम उतावली हो जाती है।
"अं..अं... हाँ.. किन्तु.." वे कुछ बोलते बोलते रुक गए.. उनके चेहरे के बदलते रंग किसी अनहोनी की ओर इंगित कर रहे थे। मुझे देखते ही वे पापाजी से बोले कि "छोटे पहले इसे छोड़ आ, बस का टाइम हो गया है, हम बाद में बात करते हैं।"
मम्मी और ताईजी के उतरे चेहरे देखकर लगा कि शायद इस बार भी....... किन्तु कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
बस में आज सुनील ने मेरे लिए सीट रोकी थी, अच्छा लगा। कभी कभी ऐसा होता है कि हम अजनबी के साथ ज्यादा सहज रहते हैं... किन्तु जब उसी अजनबी के लिए मन में प्रेम के अंकुर फूटने लगें तब एक मीठा सा और गुदगुदा सा अहसास हमारे मुँह पर ताला लगा देता है। मैं महसूस कर रही थी कि कल सुनील के साथ एक सीट पर मैं सहज होकर बैठी थी, किन्तु आज... आज एक संकोच की परत हम दोनों के बीच थी। हम दोनों की अनुभूतियां शायद एक जैसी ही थीं। क्या वह भी मेरे लिए उसी तरह से सोच रहा था, जिस तरह से मैं उसके बारे में सोच रही थी?
"सुनो, वैशाली! अशोक भैया बहुत अच्छे हैं.. हिन्दी में पी एच डी हैं और वे भी कॉलेज में पढ़ाते हैं... कल आप सभी से मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा।"
"ह्म्म्म... हमें भी आप लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा... अलका दीदी तो आपके भैया पर फिदा हो गयीं हैं... बहुत अच्छी हैं मेरी दीदी भी... देखना उन दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी लगेगी... और........"
"और क्या.....?" मेरी बात सुनकर वो थोड़ा परेशान सा दिखा।
"और.... और... बस और कुछ नहीं..........." मैं चाह रही थी कि पहल वह करे, इसलिए चुप रह गयी। सुबह के मुरझाए हुए मम्मी, पापा, ताईजी और ताऊजी के चेहरे भी आंखों के आगे घूम गए और एक संशय भी उत्पन्न हुआ।
"ह्म्म्म.. वैशाली मेरे भैया वाकई बहुत अच्छे हैं, और फिर मेरी मम्मी के जाने के बाद यदि चाचाजी और चाचीजी का सहारा नहीं होता तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता... अशोक भैया और मुझमें कभी फर्क नहीं समझा उन्होंने... मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं की बदौलत.......... " पता नहीं सुनील और क्या क्या कहता रहा.. मेरा दिमाग तो इन लोगों के इंकार से अलका दीदी की मनोस्थिति की कल्पना करने लगा था। मुझे लग रहा था कि जरूर इस बार भी बात बनी नहीं है, परन्तु क्यों? जाते समय तो सब आशान्वित थे और सगाई की तारीख की बात कही थी।
"वैशाली! क्या तुम हमारे परिवार की बहू बनना पसन्द करोगी?" बिना किसी भूमिका के सुनील ने एकदम से पूछा तो सारी स्थिति क्लियर हो गयी... शायद अशोक जी ने अलका को नापसंद किया था और सुनील को डर था कि इस वजह से शायद हमारे सपने... जो कि अभी हमारे मन में उगना शुरू ही हुए थे, उन पर बसंत के पहले पतझड़ न आ जाए... उसकी परेशानी की यही वजह थी शायद। "अम्म्म सोचना पड़ेगा... वैसे प्रपोज करने का ये स्टाइल एकदम अनोखा है?" मेरी आवाज में अपने आप ही शोखी आ गयी और अचानक किसी ने सुनील को पुकारा। लड़की की आवाज़ सुन मैं पलटी.. वह एक अल्ट्रा मॉडर्न टाइप की लड़की थी जो सुनील को हाई फाइव कर रही थी। मुझे अच्छा नहीं लगा।
"हेलो शिफा... ये वैशाली है, यहीं कॉलेज में... और वैशाली ये शैफाली है, मेरे साथ बैंक में..." मैंने अनमनेपन से गर्दन हिला दी... फिर पूरे समय मैं चुप बैठी रही। शैफाली से शिफा... और विशु से वैशाली तक का सफर मुझे अच्छा नहीं लगा। वे दोनों भी बैंक के किसी डिस्कशन में लगे थे। कॉलेज गेट पर उतरते हुए मैंने टिफ़िन सुनील को दिया... "मम्मी ने सब्जी भेजी थी.."
"तुम क्या खाओगी फिर?"
"दो टिफिन लायी थी.." झूठ बोलते हुए मैं बस से उतर गयी।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि दो दिन में ही मेरी जिंदगी ने कितने रंग दिखा दिए। दिल सुनील के बारे में सोचना चाहता था और दिमाग में अशोक जी और अलका दी छाए हुए थे। यदि उन लोगों ने दी को मना किया तो मैं सुनील के सामने शर्त रख दूँगी कि दीदी और मैं साथ में ही आएंगे... दीदी के दुःख पर मेरी खुशियों का महल हरगिज़ नहीं बनेगा। उस दिन कॉलेज में मन नहीं लग रहा था, जल्द से जल्द घर पहुँचकर सबकुछ जानने को बेताब थी मैं।
जैसे तैसे क्लास खत्म की और रेखा के साथ बैंक पहुँच गयी। रेखा को पैसे निकलवाने थे। सुनील की वजह से सब काम जल्दी हो गया। वहाँ एक शख्स से और मुलाकात हुई... विजय.. रेखा का दोस्त... "वैशाली आप मैथ्स में हैं न? राजेश ने बताया था, आपका मित्र है न?"
'ओफ्फो अब ये एक नया पुराण...' मैंने सोचा, किन्तु शिष्टाचार की अपनी डिमांड होती है..."हाँ...जी, वह मित्र नहीं, क्लासमेट था, आप उसे कैसे जानते हैं?"
"मैं भी बिजली विभाग में हूँ।"
अब तक मुझे समझ में आ गया था कि इंसानों जैसे हर शहर का भी अपना मिजाज होता है। कस्बाई मानसिकता किसी के बारे में सबकुछ जानने को उत्सुक और महानगर में किसी को किसी से कोई मतलब ही नहीं... हमारा शहर भी हमारी तरह मध्यमवर्गीय था तो कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। आज मेरे दिल और दिमाग इस एक बात पर सहमत थे कि 'बेटा विशु इस शहर में हर कदम फूंक फूंक कर रखना होगा, एक चूक भी कई प्रश्नचिन्ह खड़े कर सकती है... और मेरे माता पिता की इज्जत और मुझ पर उनका भरोसा दोनों को ही बनाए रखना है।' बैंक से निकलकर सीधे ही बसस्टैंड पहुँच गयी थी।
घर का माहौल अब तक तनावपूर्ण दिख रहा था। मेरे कुछ बोलने से पहले ही अंशु ने रूम में जाने का इशारा किया। मैं सीधे बाथरूम में गयी और पंद्रह मिनट तक शॉवर के नीचे खड़ी रही। तन मन की थकान और सारी चिंताएं पानी के साथ बह गयीं। अंशु और अलका दी जब तक चाय लेकर आए, मैं एकदम फ्रेश मूड में आ गयी थी।
"विशु! तुझे अशोक कैसा लगा, सुनील ने कुछ कहा?" दीदी के सीधे प्रश्न से मैं चौंक गयी और चाय छलक गयी। भरसक सहज रहने का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा कि "ह्म्म्म अच्छे हैं, जो मेरी दीदी को पसन्द, वो मुझे बुरे क्यों लगेंगे?"
अंशु की चुप्पी किसी तूफान का संकेत दे रही थी। मेरा अंदेशा सही थी, क्योंकि इसके बाद दीदी ने जो कुछ कहा उसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी।
"देख विशु! समझदारी से काम लेना... तुम और अशोक दोनों कॉलेज में व्याख्याता हो, दोनों की रुचियाँ भी एक जैसी हैं और इसलिए उसकी जोड़ी मेरे बजाय तेरे साथ ज्यादा अच्छी रहेगी, मैं तुम दोनों के लिए बहुत खुश हूँ।"
"दीदी! ये आप क्या कह रही हैं... नहीं.. ये हरगिज़ नहीं हो सकता और फिर मुझे तो......."
"तुझे तो..? क्या तुझे कोई और पसन्द है?"
"हाँ... विशु दी को....." अंशु को बीच में ही रोककर मैं दी के गले लग गयी... "नहीं दी... कोई और पसन्द हो, ऐसा नहीं... बस अशोक मुझे जीजू के रूप में ही पसन्द है... आपको भी तो वह पसन्द है? है न?"
"विशु वो और मैं एकदम अलग हैं, हम दोनों की रुचियाँ अलग हैं, तू उसके साथ खुश रहेगी।"
"बिल्कुल झूठ, चौबीस घण्टे भी नहीं हुए, आपके विचार कैसे बदल गए... आप सीधे से क्यों नहीं कहती कि उसने आपको नहीं, मुझे पसन्द किया है, और ऐसे इंसान की मेरी नज़र में कोई इज्जत नहीं जो मेरी दीदी का दिल दुखाए... उसे आपसे ही शादी करनी होगी... मैं हरगिज़ तैयार नहीं हूँ... दीदी! यह बॉलीवुड मूवी नहीं है, हमारी जिंदगी है... इससे खेलने की इजाजत मैं किसी को नहीं दे सकती..." मेरी ऊँची आवाज़ से सभी हमारे कमरे में आ गए थे, और मैं रोने लगी थी। हम उम्र के कितने ही पड़ाव पार कर लें, या कि परिपक्व हो जाएं, परन्तु माता की गोद में जाकर एक अबोध शिशु की तरह ही महसूस होता है। मैं मम्मी की गोद में सिर रखकर रोये जा रही थी और सुबह बस में सुनील की परेशानी और उसकी कही बात का अर्थ अब समझ में आ रहा था।
क्यों होता है ऐसा? ये सही है कि अशोक और मुझमें काफी समानताएं थीं, क्या इसी आधार पर मैं उसे जीवनसाथी चुन लूँ? कदापि नहीं.... उसका रिश्ता दीदी के लिए आया था और मेरे मन में सुनील की चाहत पनप रही थी... प्यार कोई व्यापार नहीं है, जिसमें नफ़े नुकसान का ध्यान रखकर रिश्ते जोड़ें जाएं। हो सकता है, सुनील के लिए मेरा प्यार एकतरफा हो, वह ऐसा नहीं सोचता हो, किन्तु मैं अशोक को उसकी जगह देने को तैयार नहीं थी।
"ठीक है बेटा! कोई जबरदस्ती नहीं करेंगे हम... पर अशोक एक बार तुमसे मिलना चाहता है... हम चाहते हैं कि तुम एक बार उससे मिल लो, फिर तुम्हारा जो भी निर्णय होगा, हमें मंजूर होगा।" ताऊजी की बात आज तक घर में किसी ने नहीं टाली थी।
"क्यों मिलूँ मैं..? मुझे नहीं मिलना किसी से...." मैं फिर गुस्सा होने लगी थी।
"भाईसाहब! मैं विशु से बात करूँगी... अभी प्लीज इस बात को यहीं खत्म कर दीजिए... उसे थोड़ा वक्त दीजिए, फिर देखते हैं।" मम्मी ने स्थिति सम्भाल ली थी।
उस रात नींद फिर आंखों से कोसों दूर थी।
क्रमशः....8