Kabhi Alvida Naa Kehna - 5 in Hindi Love Stories by Dr. Vandana Gupta books and stories PDF | कभी अलविदा न कहना - 5

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कभी अलविदा न कहना - 5

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

5

उस एक पल मेरे मन में पता नहीं कितने भाव आए और गए... इंतज़ार खत्म होने की खुशी, बूढ़े अंकल को सीट देने पर खुद पर ही गुस्सा और सुनील के जल्दी आने की वजह जानने की उत्सुकता…. हाँ जल्दी आने की क्योंकि बैंक का वर्किंग टाइम अभी चल रहा था।

"सॉरी विशु! लेट हो गया, माफ कर दो.." उसने मेरे सामने होंठों को तिरछा कर एक आँख झपकायी और कान पकड़ लिए। एक पल को मैं भी भूल गयी कि हम बस में हैं, मैंने गुस्सा होने की एक्टिंग करते हुए खिड़की की ओर मुँह घुमा लिया। बाहर सड़क पर एक जोड़ा स्कूटर पर बिल्कुल सटकर बैठा हुआ बस के समांतर चल रहा था। उसे देखकर पता नहीं कितनी देर तक मैं भी कल्पना के सागर में गोते लगाती रही कि अचानक कँधे पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ। "जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती..." कहते हुए मैं जैसे ही पलटी उन बूढ़े अंकल ने कंडक्टर की ओर इशारा किया जो मुझसे पता नहीं कबसे टिकट के पैसे माँग रहा था।

"क्या हुआ बेटा! मुझे लगा तुम सो गई हो, इसलिए....." वे अंकल एकदम सकपका गए।

"जी हाँ, झपकी आ गयी थी....." मैंने झेंपते हुए पैसे दिए और बस में नज़र दौड़ाई.... 'ये सुनील कहाँ चला गया... मैंने देखा तो उसे ही था.... फिर... ये मुझे क्या हो रहा है.... दिनदहाड़े जागती आँखों में भी सुनील का सपना दिख रहा है??'

मैंने खुद को चिकोटी काटी... मैं जाग रही थी। एक बार और बस में पीछे तक नज़र घुमाई... सबसे पीछे से पहले वाली सीट पर सुनील की शर्ट झाँकती हुई मुझे ताक रही थी। इस शर्ट का कलर मैं कैसे भूल सकती थी? नीला मेरा भी फेवरेट कलर है। स्काई ब्लू से पर्शियन ब्लू तक हर शेड मेरा पसंदीदा है। मुझे उस शर्ट से भी शर्म आ गयी, इस तरह मैं उसे घूरती अच्छी थोड़ी न लगूँगी, क्या सोचेगी भला...?? हुह... ये मैं क्या सोचने लगी... शर्ट भी कभी सोचती है... शर्ट जिसने पहनी है, वह तो सोच सकता है...?? ये सोचकर ही मुझे रोमांच हो आया.. क्या सुनील भी मेरे बारे में सोच रहा होगा..? शायद हाँ... शायद नहीं... या फिर पता नहीं...!

"आउच...." मेरी चीख निकल गयी.. आगे की सीट से जोर से माथा टकराया था। मैंने दोनों हाथों से सिर दबा लिया.. अचानक इतनी जोर से ब्रेक लगाता है क्या कोई? बस के आगे कोई बाइक सवार था। बस रुकते ही लोग दौड़कर उतरे.. यदि ब्रेक नहीं लगते तो वह बस के नीचे आ जाता।

'दिन दहाड़े भी लोग पी लेते हैं.."

"और नहीं तो क्या जान की कोई परवाह ही नहीं है.."

"यदि कुछ हो जाता तो लेने के देने पड़ जाते.."

"अरे हम सब यहीं अटक जाते, क्योंकि गाँव वाले तो बस चालक को ही पीटते.."

"और क्या गलती तो हमेशा बड़ी गाड़ी वाले की मानी जाती है.."

बातें हवा में तैरती मुझ तक पहुँच रही थीं। मैं सीट पर ही लुढ़क चुकी थी।

"अरे रे वैशाली! क्या हुआ?" सुनील की आवाज़ मैंने पहचान ली थी। बूढ़े अंकल ने सीट सुनील के लिए छोड़ दी कि वह मेरा परिचित है और इस समय मुझे उसकी जरूरत होगी। सहयात्री समझ चुके थे कि अचानक ब्रेक लगने से मुझे गहरी चोट पहुँची है। मेरे ऊपर ठण्डे पानी के छींटे पड़े और मेरी चेतना वापस आ गयी। सबने राहत की सांस ली।

अगले स्टॉप पर सुनील कॉफी लेकर आया और नाश्ते के लिए पूछा। मैंने टिफिन नहीं खाया था, वही निकाल लिया। उसे जानकर आश्चर्य हुआ कि पूरे दिन मैंने टिफिन नहीं खोला था।

"मुझे तो हर दो घण्टे में कुछ खाने को चाहिए और तुमने पूरे दिन खाना साथ में होते हुए भी नहीं खाया... बड़ी अजीब बात है..." बात थी भी अजीब कि भूख लगते हुए भी स्टाफ रूम में अकेले टिफिन खाने में संकोच हुआ। सभी लोकल थे और घर से खाना खाकर आते थे या जाकर खाते थे। अभी मैं नये माहौल में खुद को समंजित नहीं कर पा रही थी। थोड़ा वक्त चाहिए था। मैं लंचबॉक्स बैग से निकाल नहीं पायी थी। अक्सर जब एकदम अलग परिवेश में हम खुद को सहज नहीं रख पाते तब ऐसा लगता है कि सब हम पर ही फोकस हैं और हमारी हर सूक्ष्म गतिविधि पर नज़र रखे हुए हैं। ऐसे में कोई सहज स्वाभाविक सी बात करने में भी हम संकोच कर जाते हैं।

"मुझे भूख ही नहीं लगी थी.." प्रत्यक्ष में ऐसा कहकर मैं सुनील की ओर देखने लगी।

"तभी तो जरा सी चोट में चक्कर आ गए.." वह मुस्कुराया और परांठे का कौर मुँह में डाला... "वाओ... अच्छा ही हुआ वरना इतना टेस्टी खाना मुझे कैसे मिल पाता... आंटी से बोलना कि अचार बहुत टेस्टी है और गोभी मटर मेरी पसन्द की सब्जी है।"

सुनील का इतना फ्रैंक और दोस्ताना व्यवहार मुझे अच्छा लगा। मेरी मम्मी से मिला भी नहीं, किसी को जानता भी नहीं, एक ही मुलाकात में उसने रिश्ता भी जोड़ लिया, भले ही स्वाद का... माँ की तारीफ हर बच्चे का दिल जीत लेती है, मुझे भी खुशी हुई कि सुनील ने मेरी माँ के हाथ के खाने की तारीफ की।

"ठीक है बोल दूँगी, किन्तु उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्हें यह सुनने की आदत है।"

"ओह.... " वह शायद कुछ कहते हुए रुक गया। मुझे इस एक शब्द में दर्द सा महसूस हुआ किन्तु मैंने न कुछ सोचा न पूछा... मैं तो बस आज बस में मिले एक अच्छे दोस्त में जिंदगी के हमसफ़र का अक्स ढूँढने लगी थी। काश मेरा हमसफ़र भी इतना खुशदिल हो कि जिंदगी का हर लम्हा जिंदा और खुशगवार सा लगे। उसका बात करने का अंदाज़, मुस्कुराने की अदा, कपड़े पहनने का सलीका, केयरिंग एटीट्यूड सब कुछ तो मुझे भा गया था... पर मैं खुद को कुछ और वक़्त देना चाहती थी। उसने अभी तक कुछ कहा भी तो नहीं था। क्या पता यह उसकी आदत हो और वह सबके साथ ऐसा ही व्यवहार करता हो। फिर पहली मुलाकात में आप किसी के बारे में कितना जान सकते हैं और फिर पारिवारिक परम्पराएं, संस्कार ये सब भी तो जिंदगी में अहम भूमिका निभाते हैं। मेरे दिल और दिमाग में जंग छिड़ चुकी थी।

क्रमशः....6