Kabhi Alvida Naa Kehna - 4 in Hindi Love Stories by Dr. Vandana Gupta books and stories PDF | कभी अलविदा न कहना - 4

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कभी अलविदा न कहना - 4

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

4

"अरे वैशाली! तुम यहाँ कैसे...?" उस स्मार्ट बंदे के पीछे से राजेश नमूदार हुआ और मैं सपनों की दुनिया से बाहर आ गयी। राजेश, मेरा बैचमेट था, पर कभी ज्यादा बात नहीं हुई, दोस्ती भी नहीं थी, बस एक बैचमेट से कम से कम होने वाला परिचय मात्र। मुझे उसकी अक्ल और शक्ल दोनों ही नापसंद थे। उसे देख मेरे दिल को गुस्सा आया किन्तु दिमाग ने समझाया कि अनजान जगह अपरिचितों के बीच एक न्यूनतम परिचय भी काफी राहत देता है। पहली बार घर से बाहर और शहर से दूर, अनजाने सफर पर उत्साह से निकल तो पड़ी थी, पर आत्मविश्वास की कमी भी थी, जिसे जाहिर नहीं होने देती थी। आज राजेश को बस में देखकर मुझे खुद की हिम्मत बढ़ती सी लगी।

"हाँ... मैंने यहाँ कॉलेज में जॉइन किया है, आप यहाँ पर....?" मैंने प्रश्न जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया। मैं स्टूडेंट लाइफ में इतनी फ्रैंक नहीं थी कि सहपाठी लड़कों से तू तड़ाक में बात कर सकूँ। उसका मिलना मुझे हिम्मत दे गया था, तो वहीं 'तुम' करके बोलना कहीं असहज भी कर गया था।

"हाँ, मैं यहीं बिजली विभाग में जॉब करता हूँ, वीकली घर जाता हूँ, शनिवार को जाकर सोमवार सुबह वापस, तुमने कब जॉइन किया और अप डाउन कर रही हो या कमरा लिया है?"

"मैंने शुक्रवार को ही जॉइन किया है, अभी दो ही दिन हुए हैं, सोचा नहीं कि क्या करना है..." कहते कहते मैंने एक नज़र उस स्मार्ट बंदे पर डाली जो उत्सुकतापूर्वक हमारी बातें सुन रहा था और उसकी नज़रें मुझ पर ही गड़ी थीं। उसकी आँखों में पता नहीं क्या था कि मेरी पलकें झुक गयीं।

"सुनील! हम साथ पढ़े हैं। मैंने एम एस सी के बाद ही नौकरी जॉइन कर ली और वैशाली ठहरी टॉपर, इसने एम फिल में एडमिशन ले लिया था। वैशाली ये सुनील है, यहाँ बैंकर है और डेली अप डाउन करता है।"

अच्छा तो महाशय का नाम सुनील है... सरनेम क्या होगा? मैं सोचने लगी... हुह मुझे क्या करना कुछ भी हो... क्या सही में मुझे कुछ मतलब नहीं सरनेम से... शायद हाँ... शायद नहीं... बातों में पता ही नहीं चला कि कब बस का टायर बदला गया और बस चल दी।

"अच्छा वैशाली फिर मिलते हैं..." बिजली विभाग कॉलेज के पहले ही था और राजेश बस से उतर गया।

"आप कौन सी बैंक में हैं?" अब मैंने सुनील से बात शुरू की। ये चंद शब्द बोलने के लिए मैंने किस मुश्किल से हिम्मत जुटायी, मैं ही जानती हूँ। दिल उसके बारे में सब कुछ जानना चाहता था और दिमाग अपने तर्क दे रहा था.. कि पहली बार में इतनी बात कोई शरीफ लड़की नहीं करती... आगे रहकर तो कभी कुछ नहीं पूछती। मुझे याद आया कि किस तरह से एम एस सी में एडमिशन के बाद पहली बार सहशिक्षा में पढ़ने का भय मुझमें समाया था। मैं और मेरी सहेली मनाली, बीस की क्लास में अकेली दो लड़कियाँ... दोनों ही संकोची... क्लास के पहले ही दिन एक लड़का हमारे पास आया और पूछा कि "आप साइंस कॉलेज से आयी हो?"

"जी.. जी...जी...जी...." मनाली की सुई अटकते देख मैं तुरन्त बोली.."जी डी सी से..., क्या आप बाहर से आये हैं?"

"जी नहीं मैं यहीं पास के गाँव का हूँ और पढ़ाई यहीं की है।"

"ओह! फिर तो आप जरूर साइंस कॉलेज में ही पढ़े होंगे।"

"वहाँ तीन सेक्शन हैं, बी एस सी के, इसलिए....." वह झेंपकर चला गया और मैंने मनाली की ओर विजयी भाव से देखा। मुझे जंग जीतने जैसा अनुभव हुआ था। उसके बाद दो साल तक सहशिक्षा में पढ़ते हुए मैं हमेशा मनाली के सामने बोल्ड बनी रहती, किन्तु हमारी जूनियर बैच में कुछ कान्वेंट एजुकेटेड लड़कियों के आने से मेरा भ्रम टूट गया था। लड़कों के साथ बात करते हुए उनकी सहजता देख मैं भी वैसी ही कोशिश करती, किन्तु पेड़ पौधों की जड़ें ही तो तने को मजबूती प्रदान कर शाखों पर फूल खिलाती हैं... जड़ों को बदले बिना फूलों का रंग रूप बदलना आसान नहीं होता, ये मुझे समझ आने लगा था।

"मैं यहाँ स्टेट बैंक में हूँ, मैंने भी बी एस सी, मैथ्स से किया है, फिर इकोनॉमिक्स में एम ए... चलिए फिर मुलाकात होती रहेगी, आपकी मंजिल आ गई है..." वह मुस्कुराया।

"मेरी मंज़िल... हुह क्या कह रहा है ये, मैं प्रभावित जरूर हुई हूँ, लेकिन सूरत से, सीरत जाने बिना मंज़िल कैसी.....?" मुझे सोच में पड़ा देख वह फिर बोला.. "वैशाली आपके कॉलेज पर बस रुकी है, उतरना नहीं है?"

"ओ हो... " मैं झेंपती सी बस से उतर गयी।

कॉलेज के गेट से स्टाफ रूम तक मेरे कानों में 'वैशाली' और 'आप' ये दो शब्द गूंजते रहे। आज मेरा नाम मुझे बहुत अच्छा लग रहा था क्योंकि 'उसने' पुकारा था।

यह उम्र ही शायद ऐसी होती है। कब कौन मन को भा जाए, कुछ नहीं पता होता। प्यार और सम्मोहन का फर्क भी नहीं समझ में आता... बस दिल उसी के बारे में सोचना चाहता है।

"आइए मैडम..." आज स्टाफ रूम में अनेक अपरिचित चेहरे थे।

अनिता और रेखा भी वहीं थीं, मैंने देखकर भी अनदेखा कर दिया। निखिल सर से मिल चुकी थी पहले ही, वर्मा मैडम और मुकेश सर से परिचय हुआ।

"वैशाली! तुम कितनी छोटी लगती हो, तुम्हारी क्लास के बच्चे ही तुमसे बड़े होंगे, क्या उम्र होगी तुम्हारी?" ये शर्मा मैडम थीं।

"जी इक्कीस..." कह तो दिया मैंने पर मन में गुस्सा भी आया कि पहली मुलाकात में यूँ सबके बीच किसी की उम्र पूछना अशिष्टता ही कहलाएगी। उनकी उम्र का लिहाज किया मैंने किन्तु अनिता तुरन्त बोली..

"क्या मैडम! इस तरह से किसी लेडी से उम्र नहीं पूछी जाती, आप भी गजब करती हो.." आज उसका यूँ स्पष्ट बोलना मुझे अच्छा लगा। मानव मन कितना विचित्र होता है... एक ही सिक्के को हमेशा अपने पहलू से देखना... मतलब जो बात मुझे स्पष्ट कही, मुझे बुरी लगी, किन्तु जो बात मेरे पक्ष में स्पष्ट कही गयी, वह मुझे अच्छी लगी।

"मैडम जरा इधर आइए..." ये मेरे विभागाध्यक्ष थे। मुझे रजिस्टर, टीचिंग डायरी वगैरह देते हुए बोले कि सिलेबस लगभग कम्पलीट हो चुका है, हर क्लास में एक पेपर की एक यूनिट बची है, वह तुम पढा देना। चलो क्लास में स्टूडेंट्स से मिलवा देता हूँ। अभी तक मैं कक्षा में ब्लैकबोर्ड को देखते हुए उपस्थित रही थी, आज ब्लैकबोर्ड की ओर पीठ किए हुए एक अलग ही फीलिंग हो रही थी। मैंने क्लास में सबसे जनरल इंट्रोडक्शन लिया और बचे हुए सिलेबस की जानकारी ली। जो यूनिट मुझे पढ़ानी थी, वह मेरा फेवरिट टॉपिक था। पहले दिन ही मैं स्टूडेंट्स की फेवरिट मेम बन चुकी थी।

टी क्लब में मेरा वेलकम हुआ... प्रिंसिपल और एच ओ डी ने मेरी तारीफ की, मुझे अच्छा लगा। मैडम आप स्टेट बैंक में अकॉउंट खुलवा लेना, सैलरी उसी में जमा होगी।अकॉउंट नंबर बड़े बाबू को नोट करवा देना। व्यस्तता में सुनील की ओर ध्यान ही नहीं गया था, अब बैंक अकाउंट की बात से उसका चेहरा आंखों के सामने आया और मन में गुदगुदी सी हुई।

"जी ठीक है, कल बैंक चली जाऊँगी.."

"मैडम! आप अनिता और रेखा के साथ ही शिफ्ट हो जाइए, अप डाउन में तो परेशानी होगी।" निखिल सर की बात सुनकर मैंने अनिता के चेहरे के भाव पढ़ लिए, उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था और उसने जिस तरह से निखिल सर को घूर कर देखा, मेरी आँखों ने कुछ और भी देखा।

वापसी में मैंने बस की सीट पर बैठकर पास में अपना बैग रखा और दरवाजे की ओर देखती रही।

"इधर कोई बैठा है" एक महिला खड़ी थी। "हाँ" बोलकर मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। बस चल दी, किन्तु सुनील नहीं आया। मजबूरन मुझे सीट से बैग उठाना पड़ा। काश मुझे पहले याद आ जाता कि कॉलेज और बैंक के वर्किंग टाइम में अंतर होता है, तो उस महिला को सीट दे देती, अब इन बूढ़े बाबा को झेलना पड़ेगा।

कुछ दूर चलकर बस रुक गयी और मैंने सुनील को बस में चढ़ते हुए देखा.......

क्रमशः....5