Udaan in Hindi Moral Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | उडा़न

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उडा़न

उडा़न

मैं उसे पहचान नहीं पाया. तब, नितम्बों तक लहराते घने काले बाल थे उसके. बालों को वह खुला रखती, जो उसकी पीठ पर छाये रहते. नपे-तुले, लेकिन तेज कदमों से जब वह चलती तब साड़ी पर अठखेलियां करते उसके बाल उसके व्यक्तित्व को और अधिक आकर्षक बनाते थे. पांच फुट तीन इंच की लंबाई, सुता हुआ गोरा-सुघड़ चेहरा, नोकीली नाक, चमकदार तेज हिरणी-सी आंखे, ऊंचा ललाट और उस पर बालों का वितान--- कॊई भी उसे एक बार देखने के बाद दोबारा देखना चाहता. पहली बार जब मैं मिला, उसे बार-बार देखने की उत्सुकता रोक नहीं पाया. वह भी इस ओर सचेत थी और शायद आनंदित भी कि उस पर कितने लोगों की नजरें टिकी हुई थीं.

वह क्लर्क थी और विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसे हमारे कार्यालय में नियुक्त किया था. छोटा-सा दफ्तर--- केवल आठ लोग, जिनमें एक डिप्टी लाइब्रेरियन, एक सेक्शन आफीसर, एक कैशियर, एक क्लर्क और शेष हम चार सहायक जो लाइब्रेरी की प्रशासनिक व्यवस्था देखते थे. डिप्टी लाइब्रेरियन आनंद मोहन का कमरा हमारे हॉल के साथ था. यह एक छोटा हॉल था, जिसमें सेक्शन आफीसर सहित हम सात लोग बैठते थे. दीवारों के साथ पांच आल्मारियां रखी हुई थीं, जिनके कारण हॉल का बडा़ भाग घिरा हुआ था. सेक्शन आफीसर पी० स्वामीनाथन की कुर्सी - मेज का रुख डिप्टी लाइब्रेरियन के कमरे की ओर था. अर्थात दक्षिण दिशा की ओर, जबकि हम शेष छः का रुख हॉल के मुख्य द्वार की ओर था, जो पश्चिम में था. हॉल के बाद एक बड़ी-सी लॉबी थी. लॉबी के दूसरी ओर लाइब्रेरियन प्रो० महेन्द्र प्रकाश का चैम्बर था, जिसका दरवाजा ठीक हॉल के दरवाजे के सामने था. हॉल का दरवाजा सदैव खुला रहता था. दरवाजा प्रो० प्रकाश के चैम्बर का भी पूरे समय खुला रहता, लेकिन उस पर एक ऎसा पर्दा डाला गया था जिससे प्रो० प्रकाश तो हॉल की समस्त गतिविधियों का जायजा लेते रहते,लेकिन हॉल के लोग पर्दे के उस पार प्रो० प्रकाश की झलक तक नहीं देख पाते थे.

प्रो० प्रकाश ठीक दरवाजे के सामने बड़ी-सी मेज पर बैठते थे और जब भी कोई कर्मचारी या चपरासी पर्दा हटाकर अंदर प्रवेश करता तभी हॉल के लोगों को प्रो० प्रकाश की आधी-अधूरी छवि या मेज का एक कोना या मेज के सामने रखे रैक पर सजी पुस्तकों की झलक मिल पाती थी.

स्वामीनाथन ने उसे प्रवेश द्वार के ठीक सामने की उस मेज पर हम सबसे आगे बैठा दिया था, जिस पर केवल मखीजा बैठता था. मखीजा हेडक्लर्क होकर फिजिक्स विभाग में स्थानान्तरित हो गया था.

यह उसका पहला दिन था. मेज पर रखे खटारा रेमिग्टंन टाइपराइटर पर बैठते ही उसने अपनी उंलियां उस पर आजमाई थीं. जब उसने सधे हाथों धीरे-धीरे किट-किट की आवाज की तो हम सभी की आंखे उस ओर उठ गयीं थीं. पतली, लंबी-सीधी-सुन्दर और कोमल उसकी उंगलियों को मैं देर तक निहारता रहा था, जो एक-एक शब्द पर यों पड़ रही थीं मानो कोई अनाड़ी शौकियन चला रहा हो. तभी लंबे डग भरता स्वामिनाथन लाइब्रेरियन के कमरे से प्रकट हुआ था. उसे देखते ही उसने कहा था, "सर, इस टाइपराइटर पर काम करना बहुत मुश्किल होगा."

"वॉट?" हाथ में पकड़ी फाइल को मेज पर रखते हुए स्वामीनाथन बोला था.

"जी सर"

"ओ० के०." क्षणभर तक स्वामीनाथन झुककर फाइल पर कुछ लिखता रहा, फिर बोला, "हां, आपका मुलाकात डिप्टी सर से हो गया?"

"नहीं सर." वह अपना छोटा-सा पर्स झुलाती उठ खड़ी हुई.

"ओ० के०." स्वामीनाथन ने फाइल से कोई पेपर निकाला और "चलिए" कहता हुआ डिफ्टी लाइब्रेरियन आनंद मोहन के कमरे की ओर बढ़ा. वह स्वामीनाथन के पीछे डिप्टी के कमरे में चली गई. वहां से कुछ देर बाद निकलकर स्वामीनाथन उसे प्रो० महेन्द्र प्रकाश से मिलवाने ले गया.

****

आराधना, जी हां, उसका नाम आराधना सक्सेना था, के ज्वाइन करने के दूसरे दिन हॉल में हम लोगों के बैठने की व्यवस्था बदल दी गई थी. पहले हमारी मेजों की दो कतारें थीं और हम एक - दूसरे के पीछे बैठते थे. हमारे रुख हॉल के दरवाजे की ओर होते थे. लेकिन अब हम पांच की मेजों को आमने-सामने रख दिया गया था. हमारे चेहरे एक-दूसरे के आमने-सामने थे. स्वामीनाथन और आअराधना की सीटों की व्यवस्था पहले जैसी ही थी --- अर्थात स्वामीनाथन का रुख डिप्टी के दरवाजे की ओर था, जबकि आराधना का रुख हॉल के दरवाजे की ओर. सप्ताह बीतते न बीतते दो परिवर्तन देखने को मिले. आराधना की मेज पर नया टाइपराइटर आ गया था. दूसरा परिवर्तन चौंकानेवाला था. महेन्द्र प्रकाश के चैम्बर के दरवाजे का पर्दा खुला रहने लगा था. अब हम पर वह सीधे नजरें रख रहा था. स्वामीनाथन की सीट दरवाजे की ओट में थी और वह उसकी जनरों से बचा रहता था. महेन्द्र प्रकाश के चैम्बर के दरवाजे से पर्दा हटवा देने के विषय में हम चर्चा करने लगे थे कि उसने हम पर नजरें रखने के लिए ऎसा किया होगा.

महेन्द्र प्रकाश यहां लाइब्रेरियन बनकर आने से पूर्व सागर विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी विभाग में प्रोफेशर था. यहां आने के बाद प्रारंभिक दुछ समय तक हम उसकी शक्ल देखने को भी तरसते रहे थे, बावजूद इसके कि हम सीधे उसके अधीन थे. तब हमारे हॉल का दरवाजा भी बंद रहता था और प्रो० प्रकाश के चैम्बर का भी. लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां बदलती गई. नये लाइब्रेरियन का भय जाता रहा और हमारे हॉल का दरवाजा खुला रहने लगा था, लेकिन महेन्द्र प्रकाश का तब भी बंद रहता था. दरवाजे पर एक चपरासी तैनात रहता था, जो किसी के अंदर जाते ही लाल बत्ती जला दिया करता और बाहर निकलते ही हरी कर देता. लेकिन कभी-कभी कोई अंदर न भी होता तब भी बत्ती लाल होती. तब हम लोग अनुमान लगाते कि प्रो० प्रकाश आराम कर रहे होंगे. चैम्बर की बत्ती लाल हो या हरी पी. ए. को दरवाजा नॉक करके ही जाना होता. हम प्रायः पी.ए. को चैम्बर के दरवाजे पर नोटबुक थामे खड़ी देखते. वह लगभ चालीस वर्षीया दुबली-पतली चपटे गालों वाली एक सूखी-सी महिला थी, जिसके चेहरे पर हर समय परेशानी झलकती रहती थी.

कुछ समय पश्चात विश्वविद्यालय प्रशान ने प्रोफेशर के पास से चपरासी हटा लिया था. उसके कुछ दिनों बाद चैम्बर का दरवाजा खुला रहने लगा था, लेकिन उस पर पर्दे अवश्य लटके रहते, जिन्हें सुबह आते ही स्वामीनाथन चुस्त-दुरस्त किया करता था.

अब वे पर्दे दरवाजे पर सिकुड़े हुए टंगे रहने लगे थे.

****

आराधना को मैं पहचान नहीं पाया. उसका सौंदर्य व्यतीत की बात हो चुकी थी. पत्र-विहीन पुराने दरख्त की भांति वह मेरे सामने थी. आंखों के नीचे गहरे नीले धब्बे, सूखा - सिकुड़ा चेहरा, पिचका शरीर, धूसर-सीमित छोटे बाल--- मैं कैसे पहचान सकता था ! कभी विश्वविद्यालय कर्मचारियों में अपने सौंदर्य के लिए चर्चित रही कोई युवती बावन वसंत में इतना ढल-गल जाएगी, असोचनीय था. तब वह कैसी-भी बदरंग साड़ी पहनती (वह सदैव साड़ी में ही दफ्तर आती थी----- और नई और मंहगी साड़ियां ही पहनती थी) उसके बदन पर निखर उठती. लेकिन उस दिन मंहगी और सुन्दर साड़ी यों लग रही थी मानो किसी सूखे पेड़ पर उसे लटका दिया गया था.

जब उसने लाइब्रेरी में ज्वाइन किया था, कर्मचारी किसी न किसी बहाने हमारे यहां आने लगे थे, युवाओं से लेकर प्रौढ़ तक. कुछ युवा, जो प्रायः विलंब से दफ्तर आते थे, तब आराधना से पहले आने लगे थे और केवल उसकी एक झलक पाने ----दो शब्द बतिया लेने --- कुछ नहीं तो अपने गुडमॉर्निगं का जवाब सुनने के लिए लाइब्रेरी के गेट पर बेकली से उसके आने का इंतजार करने लगे थे. गुलशन कुमार भी उस समय गेट के बाहर होता. उम्र लगभग बत्तीस --- सामान्य कद-काठी का गुलशन प्रोफेशनल असिस्टैंट था. वह लाइब्रेरी साइंस में मास्टर था. पी-एच. डी. करना चाहता था और उसने यह निर्णय किया हुआ था कि असिस्टैंट लाइब्रेरियन बनने के बाद ही शादी करेगा. लेकिन प्रशासन पदोन्नति टालता जा रहा था. और अब आराधना को देख उसे अपना संकल्प टूटता दिखाई दे रहा था. वह उसके विषय में गंभीरता से सोचने लगा था. लेकिन वह दूसरे युवाओं से अलग हटकर खड़ा होता और आराधना को आता देख उसकी ओर धीरे-धीरे चल पड़ता और निकट पहुंचकर मुस्कराते हुए गुड मॉर्निंग कर बस-स्टैंड की ओर चला जाता और पेड़ के नीचे हरेराम की दुकान से चाय पीकर लौटता. तब तक आराधना की प्रतीक्षा में खड़े दूसरे युवा कर्मचारी जा चुके होते थे.

गुलशन दिन में एक-दोबार हमारे यहां किसी न किसी बहाने आने लगा था. आते ही वह आराधना से मुस्कराकर हलो करता, फिर हममें से किसी के पास बैठ जाता और पांच-दस मिनट इधर-उधर की बातें करता रहता. दूसरे लोग आते, लेकिन वे केवल ताक-झांककर चले जाया करते थे.

एक दिन स्वामीनाथन ने हम लोगों से पूछा, "ये गुलशन साहब डेली यहां क्या करने आता है ?"

"पता नहीं साहब." हममें से एक बोला.

"पता करना मांगता---- आखिर ये एडमिन सेक्शन है. बड़ा साहब को पता चलेगा तो----." स्वामीनाथन आगे कुछ कहता उससे पहले ही हमारा सहयोगी महेश कुमार बोला, "सर, बुरा न मानें तो मैं कुछ कहूं."

"बुरा क्या --- क्या कहना मांगता ?" स्वामीनाथन बोला.

"सर, आप नहीं---- मैडम बुरा न मानें."

"मैडम----- मैडम ----- ओह ----." स्वामीनाथन को समझ आया, वह आराधना की ओर देखने लगा.

"मुझे क्यों बुरा लगेगा ?" आराधना बोली.

"सुनिये सर !" महेश बोला, "गुलशन साहब मैडम की ही बिरादरी के हैं और अभी तक बैचलर हैं सर."

"सो व्वॉट ?" आराधना चौंकी, "आपका मतलब -----?"

"मैंने कहा था न कि मैडम बुरा मान जायेगीं----मेरा मतलब ----." महेश ने बात सभांलने की कोशिश की.

"महेश जी----- मैं बुरा नहीं मानी क्योंकि मैं आपकी बात समझी ही नहीं."

"इसमें समझना क्या आराधना जी ? जहां तक मैनें समझा है वह आपसे शादी का प्रस्ताव करना चाहते हैं, लेकिन ----."

"मुझसे शादी ---- वह हैं क्या ? क्लर्क-----."

"क्लर्क नहीं मैडम----- पी. ए. हैं. पी.जे. बन जायेगें----- असिस्टैंट लाइब्रेरियन ---- कभी लाइब्रेरियन भी बन सकते हैं."

"आज क्या हैं ?" आराधना के स्वरमें व्यंग्य था, "मैं किसी आबू-बाबू से शादी करने के लिए नहीं जन्मी----." क्षणभर चुप रहकर वह बोली, "तो यह बात है !"

हॉल में सन्नाटा छा गया था. आराधना बाहर चली गई थी. हमें लगा वह शायद गुलशन से लड़ने गयी होगी. लेकिन वह महेन्द्र प्रकाश के पी० ए० के कमरे में जा बैठी थी. उसके जाने के बाद स्वामीनाथन बोला था, "महेश,गुलशन को बोल दो ---- इधर आना नहीं मांगता. जो बोलना है बाहर ही बोले----- बेटर है आराधना के मां-बाप को बोले."

गुलशन से महेश ने कहा या किसी अन्य ने या उसने स्वयं सोचा लेकिन उसने न केवल हमारेयहां आना छिड़ दिया,बल्कि आराधना के सामने पड़ना भी छोड़ दिया. उसीने नहीं, बल्कि दूसरों ने भी अपने को समेट लिया था और पूरे विश्वविद्यालय में यह बात चर्चा का विषय बन गई थी कि आराधना सक्सेना ने गुलशन कुमार को रिजेक्ट कर दिया है. और यह कि उसका ख्वाब किसी ऊंचे पद वाले के साथ ही शादी करने का है.

*****

शादी के लिए ऊंचे पद वाला कोई आराधना को नहीं मिला. लेकिन ऊंचे पद का विचार वह कभी त्याग नहीं पायी. उन दिनों वह हवा में उड़ रही थी. और उड़ते हुए वह प्रो० प्रकाश के निकट पहुंच गयी थी. प्रो० प्रकाश जब तब उसे बुलाने लगे थे. हमने तब अनुमान लगाया था कि शायद उसके कारण ही प्रो० प्रकाश के चैम्बर के दरवाजे का परदा हटा था, न कि हम पर नजरें रखने के लिए. आराधना कि मेज प्रो० प्रकाश की मेज के ठीक सामने थी और दोनों के चहेरे एक -दूसरे के आमने-सामने. लगभगच चार महीने बीतने के बाद आराधना की सीट प्रो० प्रकाश के आदेश पर स्वामीनाथन ने पी०ए० के कमरे में वहां पड़े सोफे हटवाकर लगवा दी थी. अतिथियों के लिए केवल दो कुर्सियां वहां डाल दी गई थीं. अब प्रो० प्रकाश के चैम्बर का दरवाजा पुनः बंद रहने लगा था और बत्ती लाल-हरी होने का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था. लेकिन अब इस व्यवस्था की जिम्मेदारी स्वयं प्रो० प्रकाश ने संभाल ली थी. दोनों बत्तियों के स्विच उनकी मेज पर स्वामीनाथन ने फिट करवा दिये थे. अब प्रो० प्रकाश अपनी पी०ए० के स्थान पर आराधना को ही चैम्बर में बुलाते थे. पी०ए० केवल टेलीफोन सुनती थी या टाइपिगं करती थी. जब भी आराधना प्रो० प्रकाश के चैम्बरे में होती, बत्ती लाल रहती थी.

विभाग के कर्मचारियों के कान खड़े हो चुके थे और उनकी नाकें लंबी होने लगी थीं. एक दिन मैनें एक को गुलशन कुमार से कहते सुना, "बॉस लगता है आप अभी भी उसकी माला जपे जा रहे हो ?"

"मैं समझा नहीं.’ गुलशन ने भोलेपन से अनभिज्ञता प्रकट की थी.

"छोड़ो भी -- उसके बारे में अब क्या सोचना ?"

"किसकी बात कर रहे हो ?" गुलशन वास्तव में ही नहीं समझा था.

"अरे उसकी जो ऊंची उड़ान भरना चाहती थी--- आजकल भर भी रही है. भई बुड्ढा ले उड़ा उसे----."

"कौन बुड्ढा ? किसकी बात कर रहे हो ?"

एक ठहाका गूंजा था. दो कर्मचारी और आ गए थे. एक अन्य ने जोड़ा था, ”यार नीरज, तुम उसे बुड्ढा कैसे कहते हो ---- अभी वह पचास का नहीं हुआ."

"लेकिन हमारे गुलशन भाई का ताऊ तो है ही और ताउ के ड्राइवर ने मुझे आज बताया कि मैडम सक्सेना कल देर रात तक उसके बंगले में थीं. प्रोफेसर के घर वाले भोपाल गये हुए हैं. ड्राइवर मैडम को उसके घर छोड़ने गया था."

गुलशन का चेहरा सफेद पड़ गया था.

****

इस प्रकण के कुछ दिनों बाद मैं स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में पी०ओ० सेलेक्ट होकर बंबई चला गया था. लंबा समय गुजर गया. प्रारंभिक चार-पांच वर्षों तक मित्रों से फोन पर कभी-कभी चर्चा हो जाया करती थी. आराधना के समाचार भी मिल जाते थे. प्रो० प्रकाश की सलाह पर ही शायद उसने एक असिस्टैंट से विवाह किया था, जो किसी मिनिस्ट्री में था. लेकिन उसका वैवाहिक जीवन चार महीने भी सफलतापूर्वक नहीं चल पाया था. तलाक हुआ. इस दौरान उसके मां-पिता की मृत्यु हो चुकी थी. एक भाई था, जो अमेरिका जा बसा था. प्रो० प्रकाश ने करोलबाग में उसे विश्वविद्यालय का मकान दिलवा दिया था, लेकिन उस मकान में वह कभी नहीं जाते थे.

गुलशन अभी अविवाहित था, क्योंकि वह असिस्टैंट लाइब्रेरियन नहीं बन पाया था.

समय तेजी से बीतता गया और पचीस वर्ष बीत गये. एक दिन प्रो० प्रकाश कोई ऊंचा पद लेकर लंदन चले गये थे. और आराधना ---- उड़ती हुई वह उसी धरातल पर आ पड़ी थी जहां से उड़ी थी. लेकिन, विलंब हो चुका था.

उसके पश्चात ----- जीवन से उदासीन और हताश वह चिड़चिड़ी हो गयी ---- सूखने लगी. इठलाने-खिलखिलाने वाली आराधना के चेहरे पर हंसी देखे मित्रों को वर्षों बीत चुके थे.

*****

"हलो, आपने मुझे पहचाना नहीं ?’

चौंककर मैनें उस पर दृष्टि टिका दी, पहचान फिर भी नहीं पाया.

"आप नितिन अरोड़ा हैं न!"

"जि--जी--- और आप ?"

"मैं आराधना सक्सेना ---- कभी साथ----." उसका स्वर बेहद शिथिल था.

"ओह---- आप----?" और आगे के शब्द मेरे गले में ही अटक गये थे. उसकी आंखों की दैन्यता मेरे अंदर उतरती चली गई थी. मैं कुछ कहता उससे पहले ही वह जाने के लिए मुड़ गयी थी और यूं चल रही थी मानो कोई जीवित कंकाल घिसटता जा रहा था.

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