Apne hone ka ek din in Hindi Moral Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | अपने होने का एक दिन

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अपने होने का एक दिन

अपने होने का एक दिन

आँख खुलने के बाद भी देर तक बिस्तर पर पड़ी रही थी। आज उठने की कोई जल्दी नहीं। रविवार है। घर में भी कोई नहीं। मनोज कल ऑफिस के काम से बाहर गए हैं। शाम तक लौटने की बात है। बच्चे स्कूल पिकनिक में। सुबह मुंह अंधेरे निकल कर गए हैं। महरी भी छुट्टी पर।

दीवार से दीवार तक खिंचे खादी सिल्क के भारी पर्दे के पीछे से धूप की कई पतली, उजली लकीरें दिख रही हैं, हल्के अंधकार से भरे बिस्तर पर यहा-वहाँ चमकीली तितलियाँ-सी टंकी हैं। पूरे कमरे में एक तांबई उजाला है। गरम, हरारत भरा। कहीं कोई आवाज नहीं, सिवाय दीवार घड़ी की टिक-टिक के। मैं ध्यान से सुनती हूँ इस चुप्पी को। शिराओं में रक्त का प्रवाह जैसे धीरे-धीरे शांत हो आता है। किसी गहरी झील की सतह की तरह खुद को महसूस करती हूँ- ठहरी हुई, अगाध मौन! यह मेरे होने का क्षण है- सिर्फ मेरे होने का- ओने-कोने तक!

व्यस्तता से घिरी सालों हुये, भूल गई थी, मौन की भी एक अपनी आवाज होती है। ठीक जैसे जंगलों में अक्सर गूँजती है- मंद बहती हवा की सर-सर में, पत्तों की धीमी फुसफुसाहट में... अनायास बहुत पहले बिताई जीम कॉर्बेट नेशनल पार्क की एक झीम मारी दुपहरी की याद हो आई थी- किसी कठ फोड़वा की निरंतर गूँजती ठक-ठक, स्तब्ध अरण्य में तेज बोलता झिंगूर- सब नीरव को और-और गहराता, जीवंत करता हुआ!

सीने पर भींचे तकिये पर अपनी धड़कन महसूस करती हूँ। अजीब लगता है। कोलाहल के जंगल में जैसे खो गई थी। याद नहीं, आखिरी बार कब सुनी थी यह बेतरतीव धक-धक। पहले तो हर बात पर दिल मुंह को आता था- गले में ही अटका रहता था जैसे। परीक्षा का पेपर हो, पत्थर में लिपटा प्रेम पत्र पढ़ना हो... उम्र के पहले चुंबन में तो यह पसलियाँ तोड़ कर जैसे बाहर आ गया था। उस दिन घबराहट में रोई थी, अबोला किया था और फिर महीनों सोच-सोच कर सुर्ख हुई थी। ये मसृण त्वचा वाली किशोर यादें, पर तोलती चिड़िया की भयातुर आँखों जैसी...

सोचते हुये पल में धीमे कदम सालों पीछे टहल आई थी। एक-एक पड़ाव पर ठहरती-ठिठकती हुई। वो अपने में होने के बेफिक्र दिन थे, कटी पतंग-से आवारा, उशृंखल... चेहरा धोते हुये बाथरूम के आईने में अपना ही चेहरा किसी मुग्ध किशोरी का-सा लगा था। दो-चार पिंपल के गुस्सैल दानों से रंगा मासूम और ताजा। लोग ठीक ही कहते हैं, जॉली मेरी तरह दिखती है। उसकी उम्र में मैं बिलकुल वैसी ही दिखती थी। जंगली बिल्ली जैसे तेवर और घुँघराले वालों वाली बकौल सुनीता मैडम के ‘वाइल्ड गर्ल’! ओह! पिंपल्स के हौओ के वे दिन! हर सुबह भगवान से प्रार्थना करते हुये उठती थी कि आज किसी नए पिंपल के दर्शन ना हो। किशोर बच्चों के इस घर में वही दृश्य आज भी हर सुबह देखने को मिलता है। जॉली की चीख सुनते ही समझ जाती हूँ, एक नए पिंपल का आविर्भाव हुआ।

बाल्कनी धूप से भरी है। स्ट्राबेरी की लतरों में स्ट्राबेरी आनी शुरू हो गई है। कच्ची हरी गांठें। देख कर मन पुलक उठा था। बीज खरीदते हुये उम्मीद नहीं थी ये फलेंगे। जॉली के कहने पर खरीद लिया था। वह देखेगी तो पूरे घर में नाचती फिरेगी... फिर यह जासवंती की बोन्साई! टक-टक लाल फूलों से भरा। नहीं, आज थोड़ी स्वार्थी हो जाऊँगी। बच्चों के बारे में नहीं सोचूँगी। जिम्मेदारियों, व्यस्तताओं के बीच झाड-बुहार कर अपने लिए थोड़ी जगह बनानी पड़ेगी। उनके होने में मैं कहीं नहीं होती। प्राथमिकताओं की कतार में अब तक सबसे आखिरी में खड़ी होती आई हूँ जिस तक पहुँचते-पहुँचते अक्सर सब कुछ खत्म हो जाता है। इसका कभी कोई मलाल भी नहीं था। मगर आज जाने क्यों अपना आप याद आ रहा। एक अरसे बाद खुद के साथ अकेली हूँ। शायद इसलिए!

मेरे साथ-साथ सबने सीख लिया है, मेरी कोई जरूरत नहीं, मुझे कुछ भी चलता है। मगर आज मेरे होने का दिन है! यह अवसर मुझे अनायास मिला है। लॉटरी की तरह! भीतर रह-रह कर चिलक उठती ग्लानि को परे धकेलते हुई खुश होना चाहती हूँ।

खूब मीठी और खूशबूदार गरम चाय की एक प्याली चुस्की ले-ले कर पीना रईसी लगी थी। प्योर ब्लीस! अपना आप भला लग रहा- सिल्क का सफेद गाउन, सीने पर बिखरे हुये धूप में शहदिया दिख रहे बाल! यह हमेशा पोनी में खींच कर बंधे रहते हैं। सुबह के नाश्ते, स्कूल, ऑफिस के टीफिन के बीच और किसी बात के लिए समय ही कहाँ बचता है। किसी तरह मुंह ही धो लिए तो गनीमत। नीचे शुक्ल जी का माली लान में पानी दे रहा। तेज फुहार में इंद्रधनुष खिला है। एक गौरैया उसमें पंख झटक-झटक कर नहा रही। तुलसी चौरा झड़े पारिजात से सफेद हो गया है। सुबहें ऐसी भी होती है- अलस, मंथर, शांत... सालों से यह कुरुक्षेत्र का मैदान बनी रहती है, आवाज की चलती तलवार से अनवरत गूँजती हुई।

मैंने खुद से पूछा था, रूप, आज नाश्ते में क्या खाना पसंद करोगी? फिर खूब सोच-सोच कर तय किया था और मन लगा कर अपने लिए नाश्ता बनाया था- स्टफ्ड मशरूम ऑमलेट, चीज़ सेंडविच, जूस। बाल्कनी की मीठी धूप में बैठ आराम से खाया था। जाने कब से नाश्ता नहीं किया इस तरह। सुबह की दवाई के लिए किसी तरह एक केला या टोस्ट जल्दी-जल्दी निगल लेती हूँ।

रविवार मेरे लिए कोई छुट्टी का दिन नहीं बल्कि एक अतिरिक्त व्यस्तता का दिन होता है। सब घर में होते हैं। आराम के मूड में। उस दिन सबको अपने अधूरे अरमान पूरे करने होते हैं- कब से चिकन करी नहीं खायी, मलाई कोफ्ता नहीं बना। सुबह से फरमाइशों की झड़ी लगनी शुरू हो जाती है- रूप, आज आलू पराठा! मम्मा आज धोसा, नहीं उतप्पम! ऊँह मुझे आलू-पूरी... नाश्ते के बाद दोपहर का खाना, बकौल जॉली के सनडे ब्रंच! फिर रात का खाना, मशीन में हफ्ते भर के कपड़े धुलना- आदि, इत्यादि...

दिन कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता। ये सनडे आया और पलक झपकते फुर्र से गया। रात होते-होते फिर सोमवार का टेंशन शुरु! पाँच बजे का अलार्म लगा कर बिस्तर पर गिरते ही नींद के अंधे कुएं में धंस जाती हूँ। बगल में मुंह बनाए लेटे मनोज का ध्यान ही नहीं रहता।

नाश्ता कर लता के पुराने गीत लगा पूरे घर में निरुद्देश्य-सी कई चक्कर लगाती हूँ। सब कुछ सजा, साफ-सुथरा, अपनी जगह में व्यवस्थित। किसी डाल हाउस की तरह! मनोज को हमेशा ऐसा ही घर चाहिए। यह आदत उसे कॉलेज की प्रिंसिपल अपनी माँ से मिली है। इस मामले में वे आर्मी वालों की तरह अनुशासन प्रिय थी। उनके रहते मैं बरसों आतंक में जीती रही हूँ। उंगली से छू कर हर सतह पर धूल खोजती थी। टेबल पर सजे गुलदान से ले कर बाथरूम में रखे टावल तक- सब अपनी जगह करीने से सजे होने चाहिए। मेरा दम घुटता था। कहीं घर जैसी निश्चिंतता नहीं, बेफिक्री नहीं। एक ठंडा, औपचारिक माहौल!

सोचते हुये मैं टेबल पर पैर चढ़ा कर सुबह की अखबार पढ़ती हूँ। आसपास जूस का गिलास, ऐशट्रे, पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी हैं। डायनिग टेबल पर नाश्ते के जूठे प्लेट... जाने क्या अच्छा लग रहा है। ठीक जैसे कॉलेज के दिनों में क्लास बँक करके लगता था। कैंपस के पिछले गेट से चुपके-चुपके निकल कर हम बांध टूटी नदी-सी दौड़ते थे! तब वही विद्रोह था हमारा, आज वाली ‘आजादी-आजादी’!

आँख के कोने से दीवार पर टंगी सास के सुनहरे फ्रेम में जड़ी तस्वीर की तरफ देखते हुये मैं किसी शरारती बच्चे की तरह अपनी मुस्कराहट दबाती हूँ। आज मुझे कहने का मन कर रहा- आई एम माय फेवरिट! इतने दिन कहाँ रही तू? खुद से पूछती हूँ। सास तस्वीर की काँच से मुझे गरम आँखों से घूर रहीं! मगर मैं देख कर भी अनदेखा कर देती हूँ।

जॉली के कमरे में सब अस्त-व्यस्त! बिस्तर पर बिखरी किताबें, अधखुला लैपटाप, सीडी, गिटार... दीवार पर चीखते-गुर्राते रॉक स्टार के पोस्टर्स! छिदे हुये होंठ-जीभ, बल्लम-भाले से नुकीले बाल, हरे, नीले-पीले रंग में रंगे हुये! हैंगर की तरह कमर की हड्डियों पर लटके फटी-गंदी जींस... सास देखती तो चीख कर बेहोश हो जाती। मनोज अक्सर भुनभुनाते हैं- घर को हिप्पियों का आस्ताना बना कर रख दिया है। जॉली की सारी दादागिरी अपनी माँ के साथ। अपने पचरंगा नाखून चमका कर चेतावनी देती है- ममा, डू नॉट डिस्टर्ब! इट्स माय लाइफ! सबके बीच पंचिंग बैग बनी हुई हूँ, बफर की तरह चौतरफा आघात झेलने को विवश।

अपनी सहेलियों के साथ जब उसे पीलो फाइट करते हुये देखती हूँ, जी चाहता है एक तकिया उठा कर मैं भी पिल पड़ूँ मगर मुझे देखते ही कमरे में सन्नाटा छा जाता है। सहेलियाँ सिमट-सिकुड़ कर बैठ जाती हैं, जॉली का मुंह बन जाता है- ममा तुम बार-बार झाँकने क्यों चली आती हो। बैड मैनर्स... कहना चाह कर भी कह नहीं पाती, मुझे भी तुम लोगों के बीच होना है! हवा बनना है! पतंग बनना है! लहराते समुद्र के बीच निर्जन टापू-सी हूँ, जल-आकाश की संधि पर ठहरी अपने एकांत में युगों से कैद...

अपने कमरे में आ कर मोबाइल चेक करती हूँ। व्हात्सप्प, मेसेंजर, ईमेल... कहीं कुछ नहीं। ईमेल में ऑन लाइन शॉप्स, क्रेडिट कार्डस, लोन देने वालों की भरमार। लगता है पूरी दुनिया के पास मेरी आईडी है। बस किसी मित्र, आत्मीय के पास नहीं। मैं भी भला किसको याद करती हूँ। व्हात्सप्प के गिने-चुने मेसेज कई-कई बार पढ़ती हूँ। अधिकतर तीज-त्योहार के फोर्वर्डेड मैसेज। आजकल नित-नये फीचर्स जुड़ रहे- विडियो कॉल, जीफ़्स, ईमोजी... दिल की हर बात जताने के लिए कोट, तस्वीरें, संगीत, ध्वनि... खुद सर खपाने की जरूरत ही नहीं। सब रेडीमेट!

काश यह सब पहले भी होता! जीवन का पहला प्रेम पत्र लिखने के लिए किस तरह दिनों सर फोड़ा था, किस-किस की चिरौरी, मिन्नतें की थी... अंत में माँ के बक्से से उनके गौने से पहले पिताजी को लिखे कुछ पत्र चुराये थे और पकड़ी जाने पर कस के पिटी थी! फोन की तरफ देखते हुये आकाश की याद आई थी। साथ ही पहले प्यार की नीम, शहद अनुभूतियाँ। उन दिनों सच में उसे देख भीतर जलतरंग बजा करता था। लगता था, जीवन फूलों की क्यारी है। एक बुखार-सा चढ़ा रहता था देह-मन में। किसी दाना चुगती चिड़िया की तरह हर पल डर में जीना... कोई देख लेगा, कोई सुन लेगा! अपना चेहरा उसके नाम का इश्तिहार-सा लगता था। काश उसका कोई फोन नंबर होता मेरे पास! आज की तरह विडियो चैट की सुविधा...

डायरी देख कर सुजाता का फोन नंबर खोज लाती हूँ। पाँच साल पहले भांजी की शादी में मिली थी। देख कर पहचान नहीं पाई थी। फुल कर ढोल! बनारसी, गहनों में लदी। स्कूल के दिनों में एकदम सींकिया हुआ करती थी। कई बार कोशिश करने के बाद फोन पर उसकी ऊबी-खीजी-सी आवाज आई थी, एकदम निरुत्साह। पहचान कर भी नहीं पहचाना हो जैसे। दो-चार बातें कर मैंने ही फोन रख दिया था। इसके बाद देर तक एक प्रच्छन्न अवसाद छाया रहा था मेरे चारों ओर। आज जब मुझे वक्त मिला है, किसी के पास फुर्सत नहीं... कितना टेकेन फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं हम जीवन को। जब चाहेंगे हाथ बढ़ाएँगे और यह हँसता-मुस्कराता मिल जाएगा! वैसा का वैसा। मगर यह तो मेले की भीड़ में हाथ छुड़ा कर खो गया शरारती Iबच्चा निकला...

मनोज का फोन आ रहा। बैठ-बैठ कर चमकते स्क्रीन पर ‘हबी कॉलिंग’ देखती हूँ मगर उठाती नहीं। जब बाद में पूछा जाएगा फोन क्यों नहीं उठाया, नहीं जानती क्या जवाब दूँगी। मगर फिलहाल ऐसा कुछ नहीं करना चाहती जो नहीं करना चाहती। बिस्तर के सामने दूसरी दीवार से लगा ड्रेसिंग टेबल है। उसमें खुद को देखती हूँ। दिन के उजाले में। एकदम साफ। धीरे से उठ कर सामने जा खड़ी होती हूँ। जाने कितने दिनों बाद खुद को देख रही इस तरह फुर्सत में। रोज भागते-दौड़ते बालों में कंघी फिराते या बिंदी लगाते एक उड़ती-सी नजर डाल लिया करती हूँ, बस।

उँगलियों के पूरे, अधटूटे नाखून, हल्दी से पीली पड़ी नेल पोलिश... मैं दोनों हाथ सामने कर अपनी उँगलियाँ देखती हूँ- पोरों पर सब्जी काटते हुये पड़े चाकू के निशान, भौंहों पर उगे बाल... एक मध्यम वर्गीय हाउस वाइफ का चेहरा! खुद को देखने की उत्सुकता बढ़ती जाती है। खिड़की के पर्दे खींच अपना गाउन उतारती हूँ, पहले संकोच से फिर एक झटके से। जमीन पर ढेर हुये पड़े गाउन के बीच खड़ी खुद को सीधी नजर से देखने की कोशिश करती हूँ- उतरती नदी-सी देह, शिथिल और फैलती हुई- भारी तल पेट और जांघों की संधि पर कई सफेद लकीरें, मातृत्व की निशानी! कमर पर चर्बी के घेरे, स्थूल बांह की गोलाइयाँ...

पहले संकोच से जींस नहीं पहनती थी। कमर पर ढीली होती थी। सबके सामने शर्म आती थी। एकदम हाड़-मांस एक हुआ शरीर था। लोग ताने कसते थे, क्यों भई! तुम्हारे घर बेटियों को खिलाया-पिलाया नहीं जाता क्या? जाने कब यह चर्बियों का पहाड़ देह पर आ जमा! मनोज की नजर से खुद को देखने की कोशिश करती हूँ, ग्लानि आ घेरती है। कल से मॉर्निंग वॉक पर निकलूँगी, तेल-घी भी कम करना पड़ेगा। योगा शुरू करती हूँ। मनोज की शिकायत पर हमेशा उसी पर झल्ला उठती थी कि फिगर करीना कपूर की नहीं होगी तो क्या उनकी तरह रात-दिन रसोई में सीझने-पकने वाली मीडिल क्लास औरतों की होगी!

जॉली के कमरे में जा कर उसकी जगह-जगह से फटी फेडेड जींस उठा लाती हूँ मगर वे घूटनों से ऊपर नहीं चढ़ती। थोड़ी देर खींचा-तानी कर ही थक जाती हूँ और उसे फेंक जॉली की फ्लोरीसन लाल लिपस्टिक उठा कर अपने होंठ गाढ़े रंगती हूँ फिर होंठों का पाउट बना तरह-तरह की मुख मुद्रा बनाते हुये खुद को आईने में हर कोने से देखती हूँ। देखते हुये अचानक ज़ोर से रुलाई फुटती है और बिस्तर पर औंधे मुंह गिर कर मैं देर तक रोती हूँ। जाने क्यों! मुझे तो कोई दुख नहीं था! सब कुछ तो था मेरे पास... फिर इस भरे-पुरे घर में खाली बर्तन-सा क्या बज उठा है आज!

ड्राअर से अल्बम निकाल लाई थी- यह मैं हूँ, लंबी-छरहरी! लोग मुझे साधना कहते थे। वैसे ही माथे पर करीने से सजे लॉक्स और तराशे हुये होंठ। देखते हुये कुछ बेहतर महसूस हुआ था- यह मैं हूँ! सबको याद होगा...

कहीं पढ़ा था, अच्छा फील करने के लिए विंडो शॉपिंग करनी चाहिए, अपने गहने निकाल कर देखना चाहिए, किसी को कुछ प्रेसेंट करना चाहिए और आईने के सामने खड़ी हो कर बार-बार खुद से कहना चाहिए- मैं खूबसूरत हूँ... आईने के सामने खड़ी हो कर कुछ देर खुद को चुपचाप देखने के बाद मैं अलमारी से अपने गहनों का डब्बा निकाल लाई थी और उन्हें बिस्तर पर फैला कर एक-एक कर देखती रही थी- जड़ाऊ हार, हीरे की अंगूठियाँ, कंगन...

ड्रेससिंग टेबल पर मेरी शादी की तस्वीर रखी है- इन्हीं गहनों से सजी, अपने भारी जोड़े में लदी-फँदी दुबली-पतली, मरियल-सी। याद है, शादी के दिन बार-बार बाथरूम में छिप कर रोती रही थी। हमारा प्रेम प्रकरण ताऊजी के दो झन्नाटेदार थप्पड़ से ही खत्म हो गया था। आकाश को भी पीट-पाट कर सबने समझा दिया था, एक गोत्र के होने से हम दोनों एक-दूसरे के भाई-बहन लगते हैं। शादी के दिन वह वारातियों को भोज में कलाकंद परोस रहा था और मैं बाथरूम में फिनाइल की बोतल ले कर फिनाइल पीने की हिम्मत जुटा रही थी जो आखिर तक जुट नहीं पाई थी। किसी फिल्मी नायिका की तरह घर से भाग जाने की अभिलाषा मेरे मन में ही रह गई थी। बाद में जब मायके जाती थी, जॉली, बंटी आकाश को मामा कह कर संबोधित करते थे और मुझे कुछ अटपटा नहीं लगता था।

अल्बम, गहनों के बीच बैठे-बैठे जाने कब दिन ढल गया था। घड़ी पर नजर पड़ते ही मैं चौंकी थी। छ्ह बज गए! बच्चों को तो अब तक आ जाना था! और यह मनोज... एक बार फोन करके सारा दिन गायब! इन्हें तो बस घर से बाहर रहने का एक मौका चाहिए।

मैं उठ कर खिड़की पर आ खड़ी हुई थी। आज दिन को तो कुछ बनाया नहीं। रात का खाना बनाना पड़ेगा। बच्चे आते ही होंगे। आते ही खाना मांगेंगे। मैंने मनोज को फोन लगाया था। दूसरी तरफ देर तक घंटी बजती रही थी मगर मनोज ने फोन नहीं उठाया था। झल्लाहट के साथ मन में आशंका उठी थी- मनोज ऐसा तो कभी नहीं करता! फिर...? सोचते हुये फोन के स्क्रीन पर जॉली का मैसेज चमका था- मॉम! कमिंग होम। कीप द फूड रेडी। वी आर हंगरी लाइक उल्वस!

मैसेज देखते ही जैसे मेरी जान में जान आ गई थी। तेजी से उठ कर किचन आ गई थी। जल्दी से कुछ बनाना होगा। फिर रात का खाना। ड्राइंग रूम भी ठीक करना पड़ेगा। सब बिखरा पड़ा है। मनोज देखेंगे तो... सास की तस्वीर के आगे दीया भी लगाना है। उस पर कल की बासी माला पड़ी हुई है। फिर कल सुबह की तैयारी, मनोज की देर सारी शर्ट्स पड़ी है, इस्त्री करने के लिए कह गए थे... सोचते हुये जाने कब मैं प्राथमिकताओं की कतार के अंत में अपने ही अंजाने एक बार फिर आदतन आ खड़ी हुई थी। मेरे आगे सब थे। मेरे होने का दिन खत्म हो गया था।

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