Amar Prem -- 4 in Hindi Love Stories by Vandana Gupta books and stories PDF | अमर प्रेम -- 4

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अमर प्रेम -- 4

अमर प्रेम

प्रेम और विरह का स्वरुप

(4)

उधर अजय अपने वादे पर अटल था ----- दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।अर्चना की यादों के साये हर पल उसके मानस- पटल पर छाये रहते । अब तो उसने खामोशी को अपना हमसफ़र बना लिया था और गुमनाम अंधेरों में जीवन गुजारने लगा था सिर्फ़ अर्चना की कवितायेँ पढता और उन्हें अपनी चित्रकारी से सजाता। अब वो जो भी चित्र बनाता सिर्फ़ अपने लिए बनाता । कहीं किसी को छापने के लिए नही भेजता । एक अलग ही ख्यालों की दुनिया में गुम हो गया था अजय।

इधर अर्चना गहन अंधकार और निराशा में डूबती चली गई और दिन पर दिन खामोश होती चली गई । उसके जीने की इच्छा ही जैसे खत्म होती चली गई । धीरे- धीरे उसकी सेहत गिरने लगी । समीर डॉक्टर को दिखाता, एक से बढ़कर एक इलाज कराता मगर हर इलाज बेअसर होने लगा। अब तो अर्चना ने कवितायेँ लिखना भी छोड़ दिया ---- पहले तो कभी कभी एक-दो कवितायेँ प्रकाशक को भेजती रहती थी मगर अब कुछ महीनो से वो भी बंद हो चुका था । किसके लिए लिखे और कैसे लिखे जब जीवन की हर चाह ही ख़त्म हो चुकी हो । धीरे -धीरे उसके प्रशंसकों ने पूछना आरम्भ कर दिया कि क्या हो गया है जो अर्चना की कवितायेँ अब नही छपती, इस पर प्रकाशक को पता करना पड़ा और पता चलने पर उसने पत्रिका में छाप दिया कि बीमारी की वजह से अर्चना कवितायेँ नही लिख पा रही है। जैसे ही अर्चना के प्रशंसकों को पता चला रोज न जाने कितने ख़त और फूलों के गुलदस्ते उसकी अच्छी सेहत की कामना करते हुए आने लगे।

अर्चना की हालत और ख़राब हो चली । वो उठने बैठने में भी असमर्थ हो गई और खाना - पीना तो कब का छूट चुका था। समीर और बच्चों का बुरा हाल था अर्चना का ये हाल देखकर। समीर पूछ -पूछ कर हार गया, “ क्या बात है अर्चना जो तुम्हें खाए जा रही है, क्या मुझसे कोई गलती हो गई है या तुम्हारी कोई खास इच्छा है जो पूरी न हो पाई हो तो बस एक बार बता दो तो जान देकर भी वो इच्छा पूरी करूंगा मगर तुम्हारे बिना जीना मुमकिन न होगा। “

मगर अर्चना ने तो खामोशी को ऐसे ओढ़ लिया था कि समीर की आवाज़ उसके कानों पर पड़ी भी या नही कोई कह ही नही सकता था। एक दम जड़ हो गई थी अर्चना। इतनी हालत बिगड़ने पर अर्चना को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। वहाँ रोज उसके प्रशंसक उससे मिलने आते मगर अर्चना की निगाह कभी किसी की तरफ़ न उठती सिर्फ़ दरवाज़े पर टकटकी लगाये रहती। डॉक्टर भी निराश हो चुके थे। समीर जानना चाहता था कि आख़िर अर्चना को हुआ क्या है मगर डॉक्टर कोई जवाब न दे पाते सिवाय इसके कि उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी है। जब तक उसमें ख़ुद वो इच्छा जागृत नही होती वो कुछ नही कर सकते।

समीर और बच्चों की दुनिया तो सिर्फ़ अर्चना के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। उनका तो पूरा जहान ही अर्चना थी और वो उसे तिल-तिलकर मरते देख रहे थे और कुछ कर नही पा रहे थे। बच्चे बहुत कोशिश करते, उसे कभी हंसाने की तो कभी रुलाने की कोशिश करते मगर अर्चना तो जैसे कब की इस दुनिया की हर चीज़ हर इंसान से नाता तोड़ चुकी थी,उस पर कोई असर न होता सिर्फ़ जिंदा लाश की तरह दरवाज़े को देखती रहती। समीर और बच्चे निराश और हताश सिर्फ़ अर्चना की ओर निहारते रहते।

अर्चना के जीवन की डोर न जाने कहाँ अटकी हुयी थी। न जाने किसका इंतज़ार था उसे । न खाना, न सोना, न हँसना, न रोना, न किसी से कुछ कहना । हर दवा बेअसर होने लगी ।

उधर अर्चना के हाल की जानकारी जब अजय को मिली तो वो बेहाल हो गया और उसी क्षण अर्चना के शहर की ओर दौड़ा। उसका एक -एक पल अनेकों युगों के समान बीत रहा था। उसकी हर साँस जैसे सिर्फ़ अर्चना की सांसों के साथ ही चल रही थी, वो उड़कर अर्चना के पास पहुँच जाना चाहता था। ऐसे में वक्त न जाने क्यूँ निष्ठुर बन जाता है, चाहने वालों का तो जैसे दुश्मन ही बन जाता है या कहो वक्त दुश्मन दिखाई देने लगता है ऐसे क्षणों में ।

इधर अर्चना का तन निष्क्रिय होने लगा। शरीर की नसों ने भी कोई भी दवा स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। शरीर निश्चेतन होने लगा, कहीं कोई चेतना बाकी न रही सिर्फ़ नयन दरवाज़े पर अटके थे। लगता था जैसे शरीर का सारा लहू सुख चुका हो सिर्फ़ साँसे ही थी जो न जाने कैसे अटक -अटक कर आ रही थी, पता नही कहाँ रुकी थी। धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ---- शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे ।

समीर और बच्चे फ़ूट-फूटकर रो रहे थे। अ्चानक अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ ठहर गयी आस की उम्मीद ने बुझते दिए की लौ बढ़ा दी। अचानक से डॉक्टर हरकत में आ गए जैसे ही अर्चना की आँखों में जीने की ललक की एक क्षीण सी लकीर जो आकर गुजर गयी थी वो देखी और फ़ौरन हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए से अजय को जल्दी से अर्चना के पास लाये क्योंकि एक डॉक्टर ही होता है जो जान लेता है अपने मरीज का हाल, उसकी सांस - सांस को गिन लेता है किस पल किस सांस पर आस का दीप जगमगाया और ऐसा ही अहसास डॉक्टर को हुआ जब उसने अजय को दरवाज़े पर देखा और अर्चना की आँख में जीवन की निशानी इसलिए अजय को अर्चना के पास बैठा कर बाकी सबको बाहर कर अपने काम में लग गए क्योंकि अब अर्चना की सांसें स्थिर होने लगी थीं, नब्ज़ जो थमने लगी थी स्पंदित होने लगी थी, ज़िन्दगी का राग वहाँ गुंजायमान होने लगा था और आँखों से जैसे एक समंदर अपनी सारी मर्यादाओं को तोड़ बहने लगा था।

बाहर आकर डॉक्टर ने अर्चना की हालत अब खतरे से बाहर है जैसे ही बताया तभी बच्चों और समीर की जान में जान आयी, जाने कितने ही भगवानों का शुक्रिया अदा करने लगे और डॉक्टर के भी शुक्रगुजार होने लगे तो डॉक्टर बोला, “ मिस्टर समीर हम तो हर उम्मीद खो ही चुके थे हमारा शुक्रगुजार मत हो बल्कि उस शख्स का होना जो अंदर बैठा है, जिसके आने के बाद पेशेंट की आँखों में मैंने जीने क्षणिक ललक देखी और देखिये चमत्कार कि वो अब नॉर्मल होती जा रही हैं” कहकर डॉक्टर तो चला गया मगर समीर तो अजब पशोपेश में फंस गया आखिर वो अजनबी कैसे अर्चना में जीवन जीने की ललक भर गया जहाँ उम्मीद किनारा कर चुकी थी वहाँ कैसे ये चमत्कार हुआ, सोचते हुए अंदर गया और बच्चों के साथ अजय का शुक्रगुजार होने लगा,” आपके आने से आज अर्चना को नया जीवन मिल गया लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं ? क्या आप अर्चना के कोई रिश्तेदार हैं जो इतने वक्त बाद मिले हैं कि अर्चना को मौत के मुँह से वापस ले आये ? “

तब अजय ने बताया, “ मैं अर्चना का कोई नहीं हूँ, बस एक चित्रकार हूँ जो अर्चना की कविताओं का फैन है और अर्चना उसकी चित्रकारी की... बस इतना सा रिश्ता है हमारा,वैसे काफी टाइम पहले हम मिल चुके हैं शायद आप भूल गए हैं एक रेस्टोरेंट में” तब समीर को याद आया उस पहली मुलाकात का वैसे भी इन हालात में कौन सोच सकता है कि कौन कब कहाँ मिला,मगर इतना सा रिश्ता ही आज जीवन की वजह बन गया था ये समीर समझ गया था कि कोई और वजह भी जरूर छुपी है जो मुझे दिख नहीं रही या मुझसे छुपाई जा रही है वर्ना यूं ज़िन्दगी हारी हुयी बाजी यूं ना जीती होती मगर अभी वक्त नहीं इन सब बातों का सोच समीर अर्चना की तीमारदारी में लग गया क्योंकि अर्चना उसके जीवन की वो अनमोल पूँजी थी जिसे वो किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था ।

और धीरे धीरे अर्चना ठीक होने लगी बेशक बहुत दुबली हो चुकी थी मगर एक उमंग जैसे उसके चेहरे पर उछाल लेने लगी थी, खोयी रौनक वापस आने लगी थी जिसे देख सब सुकून की सांस लेने लगे थे और फिर जब अर्चना इस लायक हो गयी कि खुद अपने काम करने लगे तो डॉक्टर ने उसे अस्प्ताल से छुट्टी दे दी और वो घर आ गयी और उसके साथ अजय भी उन्ही के घर आ गया क्योंकि समीर ने आग्रह कर अजय को वहीँ रोक लिया था. उसे डर था मानो अजय यदि चला गया तो कहीं अर्चना भी ना साथ छोड़ दे और ज़िन्दगी की आस छोड़ दे इसलिए आज अजय उनके साथ था और उसी तरह सब काम कर रहा था जैसे घर के सदस्य करते हैं मगर एक बदली थी जो अर्चना के दिल पर छायी हुयी थी जो अब भी उसे अंदर ही अंदर घोट रही थी जिसे समीर और अजय दोनों देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे मगर दोनों इस इंतज़ार में थे कि अर्चना खुद से कुछ कहे वो कुछ भी पूछकर उसे और परेशां नहीं करना चाहते थे इसलिए चुप थे।

एक दिन जब ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी थी तब अजय ने अपने जाने की बात कही जिसे सुन अर्चना के चेहरे पर एक मुर्दनी सी छा गयी जो समीर की निगाहों से छुपी नहीं रही और उसने उसी वक्त अर्चना का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा,

“अर्चना क्या बात है ? कौन सी ऐसी बात है जिसकी काली छाया मैं आज भी तुम्हारे मुख पर देखता हूँ ? एक बार कह दो शायद मन हल्का हो जाए, देखो मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हूँ, एक बार जैसे तैसे तुम मौत के मुँह से वापस आयी हो अब दुबारा तुम्हें उस हाल में मैं नहीं देख सकता, तुम्हें अपने बच्चों का वास्ता, देख लेना इस बार यदि ऐसा कुछ हुआ तो तुम मेरा ज़िंदा मुख नहीं देख सकोगी.”

जैसे ही समीर ने कहा अर्चना ने उसके मुँह पर ऊँगली रख दी और कहा, “ख़बरदार समीर जो ऐसा कहा, तुम्हारे बिन तो मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती तुम और बच्चे ही तो मेरा जीवन हो, मेरे जीवन की पूँजी हो “।

“फिर क्या बात है जो तुम फिर किसी अनचाही खलिश में खोयी दिखती हो, कुछ तो बात है, आज कह दो अर्चना मैं सब सुन लूँगा और सह भी लूँगा मगर तुम्हें किसी कीमत पर खो नहीं सकता”

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