Amar Prem -- 2 in Hindi Love Stories by Vandana Gupta books and stories PDF | अमर प्रेम -- 2

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अमर प्रेम -- 2

अमर प्रेम

प्रेम और विरह का स्वरुप

(2)

एक बार अजय को चित्रकारी के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ उसे प्राप्त करने के लिए उसे अर्चना के शहर जाना था। जाने से पहले अजय ने ये खुशखबरी अर्चना को ख़त लिखकर पहुंचाई और साथ ही अर्चना से मिलने की इजाजत मांगी और अपना फ़ोन नम्बर दिया । उससे पूछा कि क्या वो उससे मिल सकती है सिर्फ़ एक बार या एक बार फ़ोन पर ही मुबारकबाद दे सकती है । मगर अपने संस्कारों और मर्यादाओं से बंधी अर्चना ने उससे मिलने से मना कर दिया।

जिस दिन अजय को सम्मान प्राप्त हुआ हर ओर उसकी चित्रकारी की ही प्रशंसा थी। हर टी वी के चैनल पर उसी का नाम था। चारों तरफ़ से अजय को बधाइयाँ मिल रही थीं मगर जिस आवाज़ को वो सुनना चाहता था या जिस चेहरे को वो देखना चाहता था उस भीड़ में बस वो ही एक चेहरा, वो ही एक आवाज़ न थी । इतनी बड़ी सफलता पाकर भी अजय को वो खुशी न मिल सकी जिसकी उसे दरकार थी। जिस कल्पना को उसने अपने रंगों में ढाला था,जो उसकी प्रेरणा थी वो इतने पास होकर भी इतनी दूर थी। एक कसक के साथ अजय अपने शहर वापस आ गया ।

उधर अर्चना को अजय की शोहरत पर गर्व हुआ। उसने अपने परिवार में सबको अजय की उपलब्धि के बारे में बताया। उसने बताया कि अजय उसका कितना बड़ा प्रशंसक है और वो भी उसकी चित्रकारी कितनी पसंद करती है । उसकी हर कविता के साथ अजय के ही चित्र छपते हैं। वो दिन अर्चना के लिए भी काफी खुशगवार था। मगर साथ ही उसे इस बात का भी अहसास था कि उसने अजय का दिल दुखाया है और शायद अजय को भी पता था कि कैसे दिल पर पत्थर रखकर अर्चना ने न कहा होगा। अपने इन्ही अहसासों को और अजय के दिल पर क्या गुजरी होगी, कितना तडपा होगा उसे अर्चना ने अपनी कविताओं में ढालना शुरू कर दिया। शायद ये भी उस तड़प के इजहार का एक रूप था ।

एक बार अर्चना को पत्रिका वालों की तरफ़ से एक सूचना मिली कि पत्रिका में अपनी कविता छपवाने के लिए फोटो का होना जरूरी है -------- अर्चना की कविताओं के दीवानों के आग्रह के कारण पत्रिका वालों को अर्चना से ये गुजारिश करनी पड़ी। अब इस आग्रह को अर्चना को स्वीकार तो करना ही था । और फिर जब अर्चना की फोटो उसकी नई कविता के साथ छपी तो जैसे तहलका सा मच गया । जितने पाठक थे उनकी इच्छा तो पूरी हो ही चुकी थी मगर जिसके ह्र्दयान्गन पर, जिसकी कुंवारी कल्पनाओं पर जिस हुस्न की मलिका का राज था जब उसने अपनी कल्पना को साकार देखा तो जैसे होश खो बैठा। उसकी कल्पनाओं से भी सुंदर थी उसकी हकीकत । अपने ख्वाब को हकीकत में देखना --------आह ! एक चिराभिलाषा पूरी होना। अजय अब तो जैसे दीवाना हो गया और उसके चित्रों की नायिका का भी जीवन बदलने लगा, वहाँ अब प्रेम का सागर हिलोरें मारने लगा। अब अजय की अभिव्यक्ति और भी मुखर हो गई। उसकी नायिका और चित्रों के रंग और रूप दोनों ही बदलने लगे।

अजय की चित्रकारी देखकर अर्चना को भी एक नया अहसास होने लगा । उसे भी लगने लगा कि उसका भी एक आयाम है किसी के जीवन में । वो भी किसी की प्रेरणा बन सकती है ------उसे कभी इसका विश्वास ही नही होता था। अर्चना के जीवन का ये एक नया मोड़ था । जहाँ उसके अस्तित्व को एक पहचान मिल रही थी जिसका उसे सपने में भी गुमान न था । उसके लिए ये एक सुखद अहसास था.......अपने अस्तित्व की पहचान का ।

वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था । ऐसे सुखद अहसासों के साथ दोनों जी रहे थे । कई साल गुजर गए । फिर एक दिन अजय ने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अजय जब भी ख़त लिखता उसमें अपने आत्मिक प्रेम का भव्य वर्णन करता और चाहता अर्चना भी उसके प्रेम को स्वीकारे।उसका प्रेम तो सिर्फ़ आत्मिक था हर बार अर्चना को समझाता । कहीं कोई वासना नही थी उस प्रेम में । सिर्फ़ एक बार देखने की चाह,एक बार मिलन की चाह........सिर्फ़ एक छोटी सी चाह अपने जज्बातों को बयां करने की । मगर अर्चना --- वो तो सिर्फ़ अहसासों के साथ जीना चाहती थी क्यूंकि उसकी मान्यताएं, उसकी मर्यादाएं उसे कभी ऐसा सोचने पर मजबूर ही नही करती थी। उसे कभी वो कमी महसूस ही नही होती थी जो अजय को हो रही थी । अर्चना अपनी सम्पूर्णता में जी रही थी इसलिए कभी भी अजय के प्रेम को स्वीकार ही नही कर पाई क्यूंकि उसके लिए अजय का प्रेम न आत्मिक प्रेम था न ही कुछ और, वो सिर्फ़ एक सुखद अहसास था जिसे वो अपनी रूह से महसूस करती थी ।

अब इसी बात पर अजय अर्चना से नाराज़ हो गया। आए दिन दोनों की इसी बात पर बहस होने लगी और नाराज़गी बढ़ने लगी । अब अजय ने धीरे धीरे अर्चना को ख़त लिखना,उसकी कविताओं की सराहना करना बंद कर दिया । शायद वो सोचता था कि उसके इस कदम से अर्चना आहत होगी तो उसके प्रेम को स्वीकार कर लेगी । इक तरफा प्रेम का अद्भुत मंज़र था । मगर अर्चना के इरादे पर्वत के समान अटल थे । उसका विश्वास,उसकी मर्यादाएं सब अटल। लेकिन अर्चना ने कभी भी अजय के चित्रों की प्रशंसा करना नही छोडा। वो उसके लिए आज भी वैसा ही था जैसा कल। अर्चना बेशक अजय की ऐसी आदतों से आहत होती थी और तब फिर एक नई कविता का जन्म होता था । अपने उदगारों को अर्चना कविता के माध्यम से व्यक्त करती रहती मगर अजय पर तो जैसे अपनी जिद मनवाने की धुन सवार रहती । इसलिए उसने भी अपने चित्रों की नायिका के रंग और रूप बदलने शुरू कर दिए । उसकी इस दीवानगी से अर्चना परेशान हो जाती । शायद इसीलिए वो उससे कभी मिलना नही चाहती थी।

जहाँ अपूर्णता होती है वहाँ मिलन की चाह होती है मगर जहाँ पूर्णता होती है वहाँ कोई चाह बचती ही नही। अर्चना शायद उसी प्रकार की नारी थी।

धीरे धीरे अजय के जीवन में परिवर्तन आता चला गया । उसने चित्रकारी करना छोड़ दिया । ज़िन्दगी जैसे बेरंग सी हो गई । बिना प्रेरणा के कैसी कला और कैसे रंग और कैसा जीवन। उसने अपने आप को अपने दायरों में समेट लिया । किसी मौसम का कोई असर अब उस पर नही होता फिर बसंत दस्तक दे या सावन अपनी फ़ुहारों से सारी धरा को प्रफ़ुल्लित कर दे मगर अजय के मन की धरा तो अब भी प्यासी ही थी, उसे तो अर्चना की झलक रूपी सावन के बरसने का ही एक इंतज़ार था, यही उसका ख्वाब था । उधर अर्चना की कवितायेँ अब बिना अजय के चित्रों के छप रही थी इसलिए अर्चना परेशान होने लगी । उसने अजय को न जाने कितने ख़त लिखे मगर किसी का कोई जवाब नही मिला । अब तो अर्चना के लिए जैसे वक्त वहीँ थम गया । उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे । अब उसका भी दिल नई कवितायेँ गढ़ने का नही होता था। न जाने कौन सी कमी थी जो उसे झंझोड़ रही थी । उसका अंतः मन बेचैन रहने लगा। उसके कारण एक अनमोल जीवन बर्बादी के कगार पर पहुँच रहा था और वो कुछ कर नही पा रही थी ।ये ख्याल उसे खाए जा रहा था । उसे समझ नही आ रहा था कि ये उसे क्या हो रहा है -------क्यूँ वो अजय के बारे में इतना सोचने लगी है । अर्चना के जीवन का ये एक ऐसा मोड़ था जहाँ उसे हर ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था । न वो अजय को समझ पा रही थी न ही अपने आप को । जब अजय पुकारता था तो वो मिलना नही चाहती थी और अब जब अजय ने पुकारना छोड़ दिया तो तब भी उसे अच्छा नही लग रहा था ।अब उसका दिल करता एक बार ही सही अजय उसे आवाज़ दे। उसे समझ नही आ रहा था कि उसे क्या हो रहा है । वो अजय के रूप में मिला दोस्त खोना भी नही चाहती थी साथ ही उसकी जिद पर वो भी कहना नही चाहती थी जो अजय कहलवाना चाहता था। वो एक उगते हुए सूरज को इतनी जल्दी डूबते हुए नही देखना चाहती थी इसके लिए स्वयं को दोषी समझती थी मगर समझ नही पा रही थी कि कैसे इस उलझन को सुलझाए । कैसे अजय के जीवन में फिर से बहार लाये। कैसे अजय को ज़िन्दगी से मिलवाए । अजीब कशमकश में फंस गई थी अर्चना । उसने ख़ुद को और अजय को नियति के हाथों सौंप दिया । शायद वक्त या नियति कुछ कर पाएं जो वो नही कर पा रही है । अब उसे अजय के लौटने का इंतज़ार था..........

अर्चना और अजय की ज़िन्दगी न जाने किस मुकाम पर आ गई थी । दोनों एक दूसरे को समझते भी थे,एक दूसरे को जानते भी थे मगर मानना नही चाहते थे। दोनों ही अपनी- अपनी जिद पर अडे थे । समय का पहिया यूँ ही खिसकता रहा और दोनों के दिल यूँ ही सिसकते रहे।

प्रेम का अंकुर किसी जमीं पर पलमें ही फूट जाता है और किसी जमीं पर बरसों लग जाते हैं । प्रेम हो तो ऐसा जहाँ शरीर गौण हों सिर्फ़ आत्मा का मिलन हो । शुद्ध सात्विक प्रेम हो जहाँ कोई चाह ही न हो सिर्फ़ अपने प्यारे के इशारे पर मिटने को हर पल तैयार हो। लगता है प्रेम की उस पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए अभी वक्त को भी वक्त की जरूरत थी। वक्त भी साँस रोके उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था ------कब इन दोनों का प्रेम (जिसे एक मानता है मगर दूजा नही ) चरम स्थिति में पहुंचे और कब वो भी उस दिव्यता के दर्शन करे ।

वक्त इंतज़ार के साथ अपनी गति से चल रहा था। एक दिन अर्चना समीर और बच्चों के साथ घूमने गई । इत्तेफाक से उसी शहर में पहुँच गई जहाँ अजय रहता था। या नियति उसे वहाँ ले गई थी । एक दिन रेस्तरां में जब अर्चना अपने परिवार के साथ खाना खाने गई हुई थी वहीँ पर अजय भी अपने परिवार के साथ आया हुआ था। दोनों में से किसी को भी एक -दूसरे की मौजूदगी का पता न था। आज का दिन अर्चना की ज़िन्दगी का एक खास दिन था। उस दिन अर्चना की शादी की सालगिरह थी और उसके पति और बच्चे उस दिन को खास बनाना चाहते थे इसलिए समीर ने अर्चना से उसकी समीर के लिए लिखी एक खास कविता सुनाने को कहा -------जिस कविता पर अर्चना को अपने पाठकों से भी बेहद सराहना मिल चुकी थी। आज अर्चना मना भी नही कर सकती थी क्यूंकि समीर ने जिस अंदाज़ में उसे सुनाने को कहा था वो अर्चना के अंतस को छू गया। अर्चना कविता सुनाने लगी। कविता के बोल क्या थे मानो अमृत बरस रहा हो । आँखें मूंदें समीर कविता सुन रहा था और उसके भावों में डूब रहा था। जब अर्चना कविता सुना रही थी उसे मालूम न था कि ठीक उसके पीछे कोई शख्स बड़े ध्यान से उस कविता को सुन रहा है । जैसे ही कविता पूरी हुई समीर और बच्चों के साथ एक अजनबी की आवाज़ ने अर्चना को चौंका दिया। अर्चना ने सिर उठाकर ऊपर देखा तो एक अजनबी को तारीफ करते पाया। एक पल को देखकर अर्चना को ऐसा लगा कि जैसे इस चेहरे को कहीं देखा है मगर दूसरे ही पल वो सोच हकीकत बन गई जब उस शख्स ने कहा, "कहीं आप अर्चना तो नही"। अब चौंकने की बारी अर्चना की थी। इस अनजान शहर में ऐसा कौन है जो उसे नाम से जानता है। जब अर्चना ने हाँ में सिर हिलाया तो उस शख्स ने अपना परिचय दिया ---- “ मैं अजय हूँ,चित्रकार अजय, जिसके चित्र आपकी हर कविता के साथ छपते हैं।“ ये सुनकर पल भर के लिए अर्चना स्तब्ध रह गई। एक दम जड़ हो गई------आँखें फाड़े वो अजय को देख रही थी जैसे वो कोई अजूबा हो।वो तो ख्वाब में भी नही सोच सकती थी कि अजय से ऐसे मुलाक़ात हो जायेगी। अब समीर ने अर्चना को एक बार फिर मुबारकबाद दी,” अर्चना, आज का दिन तो खासमखास हो गया क्यूंकि आज तुम्हारे सामने तुम्हारा एक प्रशंसक और एक कलाकार दोनों एक ही रूप में खड़े हैं ।“

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