Sakshatkaar - 1 in Hindi Women Focused by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | साक्षात्कार - 1

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साक्षात्कार - 1

साक्षात्कार

नीलम कुलश्रेष्ठ

(1)

मन में वही तड़प उठ खड़ी हुई है, उसकी कलम की रगें फड़कने लगीं है -उस अनूठे कलात्मक सौंदर्य को समेटने के लिए. शायद इसे ही किसी लेखक के मन का` क्लिक` करना कहतें है. यदि कोई विषय उसके मन को क्लिक कर गया तो जब तक वह उसे कागज़ पर नहीं उतार लेगा तब तक चैन से नहीं बैठ पायेगी. उठते बैठते या किसी से बात करते समय भी दिमाग उस क्लिक की चंगुल में छटपताता रहता है. जब वह इस प्रदेश में आई थी तो उसके लिए यहाँ का सब कुछ अनूठा था -रात के अन्तिम शो में फ़िल्म देखती या रात के ग्यारह बजे दोपहिये दौड़ाती अकेली स्त्रियां, नख से शिख तक सजी हर उम्र की स्त्रियों का लड़कों के साथ गरबा करना. उस पर समाज की सामूहिक रुप से काम करने की भावना. ये प्रदेश उसके लिए जिज्ञासा बनता चला गया, तब से ही उस तड़प का अचानक जन्म हो जाता है, बार, बार.

यहाँ की पीढ़ी डर पीढ़ी चलने वाली समृद्धि के सुख ने लोगों के मन में एक इत्मीनान रोप रक्खा है. वे समाज के उन दबे छिपे कोनों को तलाशकर उन्हें सहायता पहुँचाना जानते हैं जो नज़रों से ओझल होते हैं. वह इन्ही कोनों को तलाशकर लकीरें खींचती शब्द पिरोती रही है लेकिन स्त्री की कुछ कर गुज़रने की तड़प व उसकी अक्ल की प्रतिष्ठा वैसे ही `बैक बेंचर्स` सी रही है. इसे स्थापित करने में उसने बरसों संघर्ष किया है. इस संघर्ष में कितना हांफी, टूटी है ये सिर्फ़ वही जानती है, तब कही लोग विश्वास कर पाये हैं बरसों पहले उस जैसी महिला का होना इस तेज़ तर्रार प्रदेश में एक अनहोनी घटना थी. सामने वाला आश्चर्यचकित होकर पूछता. "आर यु अ जर्नलिस्ट ?"

“यस. "

"आर यु मैरिड ?"

"ओ यस, आई एम वैरी वैरी मैरिड. "वह हमेशा ही `वैरी वैरी `बोलकर अपने चारों ओर एक मज़बूत सुरक्षा की दीवार खींच लेती थी, फिर जोड़ती, "आइ गॉट टु सनस" यानि वह जता ही देती मैं `अम्मा` टायप चीज़ भी हूँ.

"बट हाउ कैन यु मैनेज द थिंग्स ?"

मन हो जाता था कहे क्या शादी के बाद स्त्री की ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है ?अकल डिब्बे में बंद हो जाती है. ? मोथरी हो जाती है. पड़ौसिन घुमा फिराकर पूछते, "आप ऐसा कैसा काम करती हो कभी जाती हो कभी हफ़्ते भर नहीं जाती. सुना है अलग अलग लोगों से मिलती हो. "

वह समझ नहीं पाती स्वतंत्र पत्रकारिता की व लेखन की परिभाषा कैसे लोगों को समझाये ?कैसे कहे कि तुम्हारी बेटी ऑफ़िस में बीच बीच में कभी गप्पें मारती है, कभी दोस्तों के साथ मौज करती है, कभी फ़ैशन पत्रिकायें पड़ती है उससे तो कुछ् सार्थक कर र ही हूँ. परोक्ष रुप में वह कहती है, "आप मेरा काम समझने के लिए मेरा पीछा करिये या फिर उन पत्रिकाओं को पढ़िए जिनमें मेरे लेख प्रकाशित होते हैं. "

एक महिला को ये काम समझ में नहीं आया तो उसने सपाट भाषा में समझाया, "मैं बाम्बे, दिल्ली की चोपड़ी [पत्रिकाओं]के लिए मेटर इकठ्ठा करके भेजती हूँ. "

सामने वाली किसी प्रबुद्ध व्यक्ति की तरह सिर हिलाया, "अच्छा तो` सेल्स` में हो. "

इतने बरसों पहले इस औद्योगिक नगर की नब्ज़ पहचान कर उस लड़की की बात की गूढ़ता समझ ली होती, हिन्दी की कलम ना पकड़ी होती तो मैं इस समय इस धनी प्रदेश में अपनी कार में घूम रही होती.

हाँ, तो उसके शहर के उस अनूठे संग्रहालय के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं व दूरदर्शन पर चर्चा होने लगी तो उसकी कलम बेसब्र हो उठी. वह तो इसी शहर की है तो वह् अब तक क्यों नहीं अपनी स्याही उसे समेट पाई ?

इसके मालिक ने दूर दूर से आदिवासियो को यहाँ बुलवाकर उनसे ही उनकी जनजाति के बर्तन, खिलौने, सजावटी सामान, उनकी झोपड़ियाँ बनवाई थी. वे जंगल में उनके चालीस एकड़ के फ़ार्म हाउस में अपनी झोंपड़ी बनाकर रहे थे. वहाँ महीनों मिट्‍टी को आकार देते, उसे आग पर पकाते, उसे सही जगह सजाते थे. उन्होंने मिट्‍टी के पुतलों पर बिना शहरी लाग लपेट के उन्हें पारंपरिक आदिवासी कपड़ों से सजाया है. उन पुतलों के बैठने, खड़े होने व काम करने का अंदाज़ उन्होंने अपने ही जीवन से लिया है. या कहे अपना जीवन ही साकार कर दिया है.

इस निजी संग्रहालय के मालिक से मिलने का समय तय होता है. उस तीन मंज़िल की इमारत में जाते हुए उसके कदम सधे हुए हैं. अभी तक इस प्रदेश में इतना कुछ कर चुकी है. कोई करोड़पति हो, कलाकार हो या समाजसेवी उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसकी सधी दृष्टि सिर्फ़ सृजन पर रह्ती है.

उनके दूसरी मंज़िल के बड़े दरवाज़े के दोनों ओर लाल रंग के बड़े मिट्‍टी के घोड़े रक्खे हैं. कॉफ़ी कलर के सनमाइका के ऊपर एक लाल मिट्‍टी का बना गोल म्यूरल जड़ा हुआ है. वह् अन्दर जाकर रिसेप्शन पर बैठी ख़ूबसूरत रिसेप्शनिस्ट को अपना विज़टिंग कार्ड दे देती है व अपना मंतव्य बताती है. वह उसे सोफ़े पर बैठने का इशारा कर एक ऑफ़िस का दरवाज़ा खोल अन्दर चली जाती है. सोफ़े पर बैठते ही वह् उसकी मुलामियत में धँस जाती हैं, पैर गलीचे में. रिसेप्शन रूम की दीवारों पर लोककला की पेंटिंग्स लगी हुई है.

वह सोफ़े पर बैठकर `इनसाइड `नुमा पत्रिकायें पलटने लगती है. पहले ऐसी जगहों पर जाकर उसका दिमाग बेकाबू होकर महल और झोपड़ी के फ़र्क के विषय में बेसाख्ता सोचे चला जाता था. . वह् मन ही मन हिसाब लगाया करती थी कि कि सामने टँगी पेंटिंग्स के मूल्य से एक अधपेट सोने वाले परिवार का एक महीने तक पेट आराम से भर सकता है. वेल्वेट के सोफ़े के कवर के मूल्य से एक बड़ा गरीब परिवार तन ढक सकता है. मेज़ पर रक्खी चमकते मुखपॄष्ठ वाली विदेशी पत्रिका से एक सूखे बच्चे का पेट भर सकता है. अब वह इन जटिलताओं में नहीं पड़ना चाहती. वह् अच्छी तरह समझ गई है पॉश कॉलोनी में बनी ये इमारतें---------इनके कालीन, सोफ़े, इनके म्यूरल्स, फ़ोम ऎसे ही रहने वाले हैं ----जैसे दूर् बसी बस्ती में खेलते अधनंगे दुबले पतले बच्चे. इन बातों पर गहराई से बस सोचकर अपना ही दिमाग बेकाबू किया जा सकता है.

वह पत्रिका पलटती कनखियों से देखती है रिसेप्शनिस्ट को इंटरकॉम पर कुछ आदेश मिलता है. वह अपनी जगह से उठकर उसके पास आती है, "मैडम !साब को मिलने से पहले उनके पी. ए. से मम्यूज़ियम के डिटेल्स ले लीजिये. प्लीज़ ! कम ऑन दिस वे. "

दाँयी तरफ़ का छोटा सा कॉरीडोर पाम लगे गमलो से सजा है. वह् खुश है, सूचना चपरासी ने नहीं रिसेप्शनिस्ट ने स्वयम्‌ दी है. वह आगे बड़कर दरवाज़ा खोल देती है. कॉरीडोर में बिछे जूट के गलीचे पर वह् मन ही मन गर्वित हो रही है. स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए ऎसे समय में उसे लगता है घर पर पड़ी कोई ग्रहणीनुमा फ़ालतू चीज़ अचानक महत्वपूर्ण हो चुकी हो.

सामने वाले कमरे में पी. आर. ओ. श्री मजमूनदार का ऑफ़िस है. साइड वाले हॉल में काँच के दरवाजों के पार कुछ इंजीनियर्स, कुछ् आर्किटेक्ट्स, सामने रक्खे तिरछे ड्रॉइंग टेबल पर नक्शे बनाने में व्यस्त हैं.

"गुड़ मॉर्निंग मैडम !"पी. आर. ओ. उसका अभिवादन करके उसका ही इंटर्व्यू ले डालते हैं. धारा प्रवाह अँग्रेज़ी में पूछते हैं, "यह माना कि आप इंटर्व्यू अँग्रेज़ी में ले लेंगी लेकिन हिन्दी मैगज़ीन के लिए कौन हिन्दी में आर्टिकल लिखेगा ?.

"और कौन, मैं ही लिखूंगी. "

"आप हिन्दी में लिख लेंगी ?"वह् उसे ध्यान से देखते हुए आश्चर्य प्रकट करते हैं.

वह दुगुना आश्चर्य करती है हिंदुस्तान के किसी प्रदेश में हिन्दी को लेकर ऐसा बेतुका प्रश्न पूछा जा रहा है.

उसके काम के बारे में जानकार और तसल्ली करना चाहते हैं, बाद में संतुष्ट होकर कहते हैं, "रिटायरमेंट से पहले मैं लखनऊ में रह चुका हूँ इसलिए जानता हूँ कि ये पत्रिका बहुत प्रतिष्ठित है. "

वह् राहत की साँस लेती है वर्ना कभी कभी लोगों को समझाने में समय लगता है जिन्होंने प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिकाओं के नाम नहीं सुने होते धर्मवीर. भारती जी का नाम सुनकर किसी ने उससे कहा था, "भारती इज़ अ ग्रेट लेडी एंड एक्स्केलेंट एडिटर. "

वे कहते हैं, "ये ब्रौशर्स आपको दे रहा हूँ. साथ में इमारत के अनूठे आर्किटेक्चर का नक्शा भी है. इसमें एक एक बात की जानकारी है, "

"मुझे जोशीजी से मिलना है. "

`एज़ यु नो ही इज़ द टॉप मोस्ट बिल्डर ऑफ़ सिटी. आपको सिर्फ़ पन्द्रह मिनट दे पाएँगे. "

"मैं म्यूज़ियम भी देखना चाहती हूँ. "

"आप सर से बात कर लीजिये बट डो `न्ट टेक मोर देन फ़िफ़्टीन मिनट्स. ही हेज़ सम अदर अपॉइंटमेंट्स. `

श्री जोशी जी का विशाल ऑफ़िस काँच के दरवाजों से घिरा है. बाहर रक्खे गमले, झूलती हुई` लताओं के बीच झांकते आसमान में उड़ते इक्का दुक्का सफेद बादल लैंडस्केप का काम कर रहे हैं. कक्ष की दीवारों पर उनकी कंपनी की बनाई इमारतों की तस्वीर लगी हुई है.

"प्लीज़ सिट डाउन. हेव यु टेकन द डिटेल्स ऑफ़ माई म्युज़ियम ?

"या. " ज़ाहिर है हिन्दी पत्रिका के लिए लिखे जाने वाला इंटर्व्यू अंग्रे़जी में ही लेना है. "

"आप क्या पूछना चाहती हैं ?

"आपके म्युज़ियम के बारे में व आप पर इस कलात्मक शहर के प्रभाव के बारे में जिसमें आप पले बड़े हैं. "

वह झुँझला उठते हैं. , "किसने कह दिया यह शहर कलात्मक है?म्यूज़िक कंसर्ट में बैठे लोग सही जगह पर दाद देना भी नहीं जानते. "

वह कहना चाहती है इस शहर को तो लोग कलाकारों का मक्का कहते हैं लेकिन चुप रह्ती है. कहीं करोड़पति दिमाग खिसक गाया तो हो सकता है सहयोग के सारे रास्ते बंद हो जाए और वह इस नायाब चीज पर कुछ ना लिख पाये. ".

"इस इंडिया में कला की कोई कदर नहीं है. "

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