Janm ua mrutyu in Hindi Motivational Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | जन्म या मृत्यु

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जन्म या मृत्यु

कहानी - जन्म या मृत्यु
उस रात कड़ाके की ठंड थी। दूर-दूर तक कोहरा पसरा हुआ था।वाचमैन भी कंम्बल में दुबका था। एक तो ठंड की हद उस पर अमावस की रात, सोने पर सुहागा। हाथ को हाथ सुझाई नही दे रहा था। एक अजीब सा सन्नाटा था।
दीपशिखा के भीतर एक दुखती सी बेचैनी मचल रही थी, जो लगातार बढ़ती जा रही थी। उसने खिड़की से बाहर झाँका।सोहलवे माले से नीचे का कुछ खास, साफ दिखाई नही देता।उसने खिड़की को बन्द कर दिया और वापस बिस्तर पर आकर लेट गई।
अभी लेटी ही थी, कि पेट में एक सिहरन सी हुई। वहाँ उथल-पुथल शुरु हो चुकी थी। ये क्या..?अभी तो आँठवा महीना है, पूरे पैतिस दिन वाकि है। नही..नही..जरुर खाने से बदहजमी हुई होगी। पर ये दर्द कुछ अलग ही है, अजीब सा। ऐसा पहले कभी नही हुआ। पहला गर्भ था तो अनुभव तो बिल्कुल भी नही।
इस बार दर्द फिर उठा, मगर पहले से तेज था। पेट पर हाथ रख कर स्तिथि का जायजा लेने का असफल प्रयास किया था उसने। क्या करूँ...? माँ को जगाऊँ..? या रहने दूँ...? कहीँ ये डिलीवरी पेन, नही हुआ तो..? खामखाहँ माँ परेशान होंगी। वैसे भी जाड़ो की राते इस उम्र पर भारी होती हैं।
उसने दीवार पर टँगी घड़ी की तरफ देखा, रात का ढ़ेड बजा था। क्या शेखर को फोन करुँ..? नही.. नही..शेखर को इतनी रात गये फोन करना ठीक नही होगा। वो शहर से बाहर हैं। सिवाय घबराहट के वह कुछ कर नही सकते। सो उसने ये इरादा भी छोड़ दिया।
उसने माँ के कमरें में झाँका। वह गहरी नींद में थीं। सो उन्हे जगाने की हिम्मत न हुई। दीपशिखा फिर वापस आकर लेट गई। कई करबटें बदली पर नींद का नामोनिशान नही था।
एक बार फिर असहनीय पीड़ा हुई। अब संशय की गुंजाइश नही बची थी। हो -न- हो ये डिलीवरी पेन ही हैं। वरना तो आज तक कभी ऐसा रह-रह कर दर्द नही उठा।
अचानक माँ के कदमों की आहट ने दीपशिखा को दिलासा दी।परन्तु इस बार की पीड़ा ने जैसे उसके सब्र को लील लिया और वह लगभग चीख ही पड़ी। उसकी चीख से माँ की अनुभवी आँखें स्तिथि को ताड़ गयीं और उन्होने आनन-फानन में सुरेश को शेखर का छोटा भाई, जो उसी बिल्डिंग के चौथे माले पर रहता हैं बुला लिया। उनके साथ देवरानी सुमन भी आई और आते ही बच्चे के मोजे, स्वेटर, शाल और जरुरत का सभी सामान एक बैग में पैक कर लिया। उसने सब कुछ इतनी फुर्ती से किया कि कोई भी उस पर फक्र करे।
बेशक, दीपशिखा दर्द से तड़प रही थी, मगर सुरेश को ठिठोली सूझ रही थी- "भाभी देखो मुझे तो भतीजी ही चाहिये।" सुनते ही दीपशिखा लाज से दोहरी हो गयी। तभी माँ ने फटकार लगाई- "जा तू जल्दी से गाड़ी निकाल...ये वक्त नही है ठिठोली करने का....और हाँ शेखर को भी फोन कर देना। ध्यान रहे वह घबराये न।"
सुरेश को माँ ने फटकार भले ही लगाई हो मगर कहीँ-न-कहीँ वो भी अपने नाती के लिये बेहद उत्साहित थी। 'बस सब राजी -खुशी निबट जाये और क्या चाहिए मुझे, नाती हो या नातिन जो भी हो स्वस्थ हो।' आखिर खानदान का पहला वारिस जो था।यही बजह थी कि अपने-अपने हिसाब से सब उत्सुक थे।
जाते-जाते सुरेश फिर छेड़ गया था- "भाभी देखो ड्राइवर हूँ तुम्हारा, नेक तो मोटा बनेगा।" इस बार एक नये रिश्ते के ओहदे से खिली सुमन भी सुरेश के सुर -मे -सुर मिलाने लगी। दीपशिखा ने अपनी कराहट को धुँधली सी मुस्कराहट में बदल दिया। "न..न..ऐसे नही दीदी वायदा करो पहले" सुमन ने मौके पर छक्का मारा।
"हाँ हाँ ठीक है मिल जायेगा, जिसको जो चाहिये, पर उसे अस्पताल तो जाने दो या यहीँ से सौदेबाजी करोगे तुम दोनो " माँ की हिदायत पर सब ठहाका लगा कर हँस पड़े। रिश्ते बिल्कुल रस्सी के रेशों की तरह होते हैं जिन्हे करीने से गूथा जाये तो मजबूत रस्सी बन जाती है।
सुरेश ने ड्राइविंग सीट संभाल ली, पीछे दीपशिखा और सुमन, माँ सुरेश के साथ आगे बैठी थी। गाड़ी सौ, एक सौ बीस की स्पीड से भाग रही थी। शेखर को फोन लग चुका था। वह शहर में न होने से चिन्तित तो था ही, साथ ही पिता बनने की खुशी से सरावोर भी। दीपशिखा से बात करते-करते सब्र न रख पाया- "देखो दीपा, मुझे तो बिटिया ही चाहिए बिल्कुल तुम्हारी तरहा, हा हा हा....मैं आ रहा हूँ सुबह तक पहुचँ जाऊँगा।"
कोई ऐसा उत्तर नही था जो वह दे पाती सो लजा गयी। माँ पर नजर डाली तो पाया, वह भी जीवन के इस दूसरे नवसृजन पड़ाव से बेहद खुश थी। उनका रोम-रोम नये महमान के स्वागत के लिये तत्पर था। अपने परिश्रमिक की कल्पना मात्र से वह प्रफुल्लित थी। आज शेखर के पिता की कमी उन्हे बहुत खल रही थी। उन्होंने गुहार लगाई- "शेखर के पिता जी अपनी बहू बच्चे को आशीष दो।"
अस्पताल का बड़ा सा गेट आ चुका था। दीपशिखा की प्रसव पीड़ा और तीव्र हो चुकी थी। सुरेश ने कुशलता से गाड़ी को करीब लगा दिया।
रात का तीन बज रहा था। हाड़ कँपाने वाली ठंड में अस्पताल का स्टाफ भी दरवाजे बंद करके हीटर की गर्माहट में ऊंघ रहा था। आहट पाकर सभी अपनी ड्यूटी पर लग गये और दीपशिखा को लेवर रुम में ले जाया गया। डाक्टर ने आकर चैक अप किया और कहा-"घबराने की बात नही है। सब नार्मल है। आप लोग बाहर बैठिये।"
चूँकि उनका ये रोजमर्रा का काम है, तो उनको कोई खास फर्क नही पड़ता। वरना माँ तो रास्ते भर घबराती ही रही। अब जाकर चैन के बादल उमड़े थे। जिनसे खुशी की बरसात की आस थी।
दीपशिखा को ड्रिप लगा दी गयी थी। उनके स्तर से सभी तैयारी पूरी हो चुकी थी इन्तजार था तो अब उस समय का, जब प्रसव की समय अबधि पूरी हो।
आज पूरा परिवार बेशक दीपशिखा के साथ था मगर उसे शेखर की कमी बहुत अखर रही थी। इस वक्त उसका साथ होना ही काफी था। कुछ ही पल में वह एक नये रिश्ते में बँधने जा रहे थे। माँ और पिता बनने की सुखद अनुभूति भीतर से गदगद करने लगी। शेखर भी टैक्सी लेकर रात में ही निकल गया। वह जल्दी से जल्दी दिल्ली पहुँचना चाहता था। इस बीच कई बार शेखर की सुरेश से बात भी हुई। स्तिथि का पूरा व्योरा सुरेश उसको दे रहा था। शेखर की खुशी पूरे निखार पर थी। 'उफफ कितना खूबसूरत अहसास है ये..? क्या पिता बनना इतना ही रोमान्चित करने वाला होता है उसे नही पता था।'
आज पिता जी का गोद में उठाना, ऊँगली थाम कर घूमते हुये खुद को सुरक्षित महसूस करना, जिद कर मचलना और फिर हार कर पिता जी का मान जाना.....उसे सब याद आ रहा था।
शेखर टैक्सी की पिछली सीट पर बैठा था मगर उसकी आँखें बिल्कुल ड्राइवर की तरह सड़क पर टिकी थीं, मानो गाड़ी ड्राइवर नही वह चला रहा हो। ये एक बेचैनी थी, घबराहट थी, अपनों तक पहुँचने की।
नर्सो की चहलकदमी बढ़ गयी थी। बाहर-अन्दर की आवाजाही से अन्दाजा लगाया जा सकता था कि समय करीब आ गया है।डाक्टर भी दुबारा आ चुकी थी, चूकि एक बार वह देख कर चली गई थीं जरुरी हिदायते देकर। नर्स से पता लगा कि उनका निवास अस्पताल के ऊपरी माले पर ही है सो वह अन्दर से ही लेवर रूम में पहुँच गई हैं। बच्चे के कपड़ो का बैग जैसे ही नर्स द्वारा माँगा गया आगामी काल्पनिक तस्वीरों ने अपना खूबसूरत जाल फैला दिया। माँ आँखें मूँद कर अपने नाती को गोद में खिलाने लगीं। सुरेश की चहल -कदमी बता रही थी कि चाचा बनना भी इतना आसान नही है। सुमन किसी भी आदेश के लिये तत्पर थी।
एक दो सफाई कर्मी, बुआ और खाली बैठी नर्स समय काटने या समय को सरल करने के लिये पूछ रहे थे। तमाम सवाल जैसे- "बच्चा पहला है क्या ? आप कौन हैं जच्चा की ? पिता नही है साथ ? बगैहरा-बगैहरा। उनकी तरफ से भी नेक की माँग अपनी-अपनी तरह से आने लगी। माँ ने भी सभी माँगें गर्व से स्वीकारी और यह वायदा भी किया कि अगर नातिन आई तो मुँह माँगा ईनाम देगी वह।
सुरेश मेडिकल से दवाओं का बड़ा सा पैकेट लाया था जिसको उसने अन्दर भिजवा दिया था।
सुबह का चार बज चुका था। अभी तक बच्चे की आवाज नही आई थी। जब कि माँ के चौकन्ने कान, न जाने कब से ताक में लगे थे। वह कई बार नर्स से पूछ चुकी थी, मगर हर बार यही जबाव मिलता -"अभी थोड़ा समय है आप चिन्ता न करें।" और माँ हर बार ठंडी साँस लेकर फिर उसी लकड़ी की कुर्सी पर पसर जाती। बैठे-बैठे उनकी टाँगे लकड़ी हो गयी थीं। सुरेश ने कई बार कहा- "माँ चलो ए.सी. रुम है वहाँ चल कर कमर सीधी कर लो।सुमन है न यहाँ ? मगर वह नही मानी- "न मुझे तू यही रहने दे।अब तो बच्चे का मुँह देख कर ही जाऊँगी। माँ की जिद के आगे वह बेबस हो गया। हलाँकि वहाँ बार-बार नवजात शिशुओं की रोने की आवाजे आ रही थी। पर उसमें से एक भी आवाज उनके नाती की नही थी।
इस बार सुमन ने आग्रह किया -"माँ ,कहो तो चाय ले आऊँ..? राहत देगी। अभी पता नही कितना समय लगे। अपना भी ख्याल रखो माँ, अगर गठिया ने जोर पकड़ लिया तो मुश्किल हो जायेगी।" पूरा जोर लगाने के बाद भी माँ टस -से- मस न हुईं।
लेवर रुम का दरवाजा खुल गया था। दरवाजा क्या खजाने की चाबी कहो। माँ के आँखों में चमक आ गयी।सुरेश के भी कदम रुक गये। सुमन तेजी से उधर लपकी। डाक्टर बाहर आई उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरे उभर रही थीं। जिसे देख कर माँ का कलेजा मुँह को आने लगा-"हे भगवान! सब ठीक तो है न? दीपशिखा और बच्चा........नही..नही...उन्हे कुछ नही होगा। ये मैं क्या सोच रही हूँ..?अक्सर मुश्किल घड़ी में बुरे विचार पहले आ धमकते हैं।"
"केस थोड़ा काम्पलीकेटिड है, शायद आपरेशन करना पड़े।" उसने बाहर आते ही कहा।
"ठीक है डाक्टर कर दो आपरेशन...मगर मुझे अपनी बहू और बच्चा दोनों स्वस्थ्य चाहिये।" माँ ने इस तरह घबरा कर कहा था जैसे कोई अनर्थ होने वाला हो।
"ठीक है आप पेपर्स साइन करवा दीजिये। फिर भी हमारी कोशिश है डिलिवरी नार्मल ही हो।"
सुरेश ने पेपर साइन कर दिये थे। शेखर से बात हुई तो उसने बताया आठ बजे तक वह पहुँच जायेगा। सुरेश ने भी सान्वना के तौर पर बता दिया था, कि यहाँ सब ठीक है।
देखते-देखते या यूँ कहें इन्तजार करते-करते सवा पाँच हो गया था। नर्स बाहर आकर फुसफुसा कर कह गयी-" चिन्ता न करें आपरेशन टल गया है।" और बिजली की फुर्ती से अन्दर पलट गयी।
पथराई हुई आँखों ने आस का दामन कस कर पकड़ लिया था।लेकिन उन आँखों में सन्नाटा पसरा हुआ था। जो अभी-अभी बाहर आईं थी। डाक्टर ने बाहर निकलते ही अपनी बोझिल पलकों को झुका लिया और केबिन की तरफ बढ़ गई। उनका चुप्पी साधना और चोर नजरों से बगले झाँकते हुये निकल जाना, जैसे किसी जर्जर इमारत की नीवं धर गया था। किसी आपदा की आशंका मात्र से वहाँ मौत जैसा सन्नाटा छा गया था।
माँ ने केबिन में शान्त भाव से, दर असल वह भाव शान्त नही अपितु तूफान से पहले की शान्ती थी, प्रवेश किया- "डाक्टर सच-सच बताओ, मेरे बहू और नाती ठीक तो है न..?" आगे के बचे हुये शब्द गले में ही रुंध गये। उनका सब्र का बाँध टूट चुका था। सुरेश और सुमन ने भी आकर डाक्टर को घेर लिया था।
"प्लीज आप लोग बाहर जायें। दस मिनट में जच्चा और बच्चा आपको मिल जायेंगे। सुरेश की संयम की अबधि अब समाप्त हो चुकी थी- "डाक्टर ये आपके अस्पताल का कौन सा नियम है ?कि घर वालों को ये भी न बताया जाये कि बच्चा कैसा है.?कौन है..? स्वस्थ है या नही...आखिर परेशानी क्या है..? साफ-साफ बताइये।"
"आप लोग सब्र रखें। लीजिये वह दोनों आ गये हैं जाकर मिल लीजिये। स्टेचर पर दीपशिखा सो रही थी और नर्स के हाथ में नन्हा-मुन्ना कपड़े में लिपटा हुआ था। जिसे देख कर माँ सब भूल बैठी और जाकर गोद में ले लिया। बच्चे के छोटे-छोटे हाथ,सिर पर काले घने बाल,और दूध जैसा रंग....देख कर वो बाबरी सी हो गयी। सब कुछ तो सही है फिर..? ये रहस्मयी बर्ताब की बजह क्या थी। माँ ने चुपके से उसकी धड़कन को जाँचा। सब ठीक था। उसने संतोष की साँस ली। जरुर बेटा होगा..? तभी ये लोग बताने में हिचकिचा रहे हैं। क्यों कि ये जान चुके हैं, कि हमे बेटी की लालसा है। अब उनकी जिज्ञासा बढ़ गयी थी, उन्होंने सुमन से कहा-"ले इसे पकड़, जरा देखूँ तो बेटा है या बेटी..?
"जो भी हो माँ, बच्चा हमारा है। क्या फर्क पड़ता है बेटा हो या बेटी..? हमारी इस पीढी का पहला बच्चा है ये।"
"तूने ठीक कहा, चाहत तो हम सबको एक बेटी की जरुर है मगर ईश्वर का दिया हमें मंजूर होगा। बच्चे को सुमन की गोद में दे दिया और गर्म शाल हटा कर बच्चे की लगोंट खोलने लगी। वो मन ही मन तय कर रही थी- 'बेटा है तो चिराग है हमारे खानदान का और अगर बेटी होगी तो....तो लक्ष्मी होगी घर की....चलो ईश्वर ने जो भी दिया उसकी मर्जी। अब तो बड़ा जश्न होगा।वैसे भी कोई उत्सव हुआ भी नही है कब से।'
और अब बच्चे की लंगोट खुल चुकी थी। ये क्या..? बच्चे की लगोट खुलते ही वो गश खाकर गिरने लगी। उसके पैरों तले की जमीन निकल गयी थी। अस्पताल की छत घूमने लगी और कलेजा था कि मुँह को आ रहा था। आँखें भीग चुकी थी और आँसुओं का नमक उसके जख्मों को जला रहा था। वहाँ कोहराम मच गया। सुमन, सुरेश, स्टाफ और खुद डाक्टर भी वहाँ इकट्ठा हो चुके थे। इन इकट्ठा हुये लोगों में वो लोग भी शामिल थे जो अभी हाल ही में पिता, चाचा, मामा, दादी या जो भी बने थे।अपने-अपने कमरों से बाहर निकल आये थे। चारो तरफ कानाफूसी हो रही थी। 'कितना बदनसीब है ये परिवार..? न जाने कौन से पापों की सजा मिली है इन्हे..? ईश्वर इन्हे हौसला दे, खैर जो भी है बहुत बुरा हुआ।
बच्चा न लड़का था न ही लड़की..'अब तो इसको वही लोग पालेंगें जो समाज, दिल और आत्मा से बहिष्कृत हैं ...बेचारा.क्या नसीब लेकर आया है..?' ऐसी तमाम बातें कानों मे पिघले हुये शीशे की तरहा चुभ रही थीं।
वो तीनो ही ऐसी जमीन तलाश रहे थे जहाँ वो समा सकें। सुमन गोद में बच्चे को उठाये थर-थर काँप रही थी। पहले उसे लगा कि बच्चे को यही रख दे, फिर अगले ही क्षण उसकी बदनसीबी पर तरस खाकर उसने उसे सीने से लगा लिया। माँ सिर पकड़ कर मातम मना रही थी और सुरेश हाथ जोड़ कर सबसे विनती कर रहा था - "आप लोग अपने-अपने कमरों में जाये और हमें अकेला छोड़ दें।"
सभी लोग छँट तो जरुर गये मगर दहशत की ऐसी छाया छोड़ गये थे जहाँ से कुछ भी दिखाई नही दे रहा था आशायें, खुशियाँ, उत्साह सब राख के ढेर में तबदील हो चुके थे। दूर खड़ी वो बुआ पास आई, उन सब के चेहरे को गौर से पढ़ा और खरी-खरी बात कह कर चली गयी - "सब किस्मत का खेल है..कोई नही जान सकता कि ऊपर वाला कब क्या कर बैठे..? यही था तुम्हारी किस्मत में..अब एक काम करो, ये बात बाहर जाये इससे पहले इस अभागे को उन्ही लोगों को सौंप दो..वही इसे पालेगे..ये समाज इसके लिये नही है ..ये बदनसीब यही लिखा कर आया है.....।" थके, टूटे और बर्फ की तरह ठंडे चेहरों को वो आइना दिखा कर चली गयी।
एक-एक कर सब कुछ टूट चुका था और दीपशिखा को भी होश आने लगा था। उसे नही मालुम था कि जिसे देखने,महसूस करने और पाने के लिये वो इस दर्द के दरिया से निकल कर आई है, उसे तो कोई तूफान पहले ही उड़ा ले गया है।
"जा सुमन इसे इसकी माँ से मिलवा दे। छाती से लग जाने दे।देख लेने दे जी भर के। महसूस कर लेने दे इसकी नन्ही धड़कन को, फिर तो नामुराद न जाने कहाँ जायेगा...।" इस बार माँ कठोर थी। न तो आँख की कोर भीगी ही थी और न ही चेहरे पर बिचलता के भाव थे। वो अपने ही फैसले की गाँठ को कडवाहट से कस रही थी। वो जानती थी कि ये फैसला कितना जरुरी है।
सुमन ने बच्चे को दीपशिखा की बगल में लिटा दिया था और सपाट, शान्त रुख किये खड़ी रही। हँलांकि कुनमुनाते सवालों का झुण्ड उसे बिचलित जरुर कर रहा था मगर यहाँ एक नाटकिये भूमिका उसके हिस्से में थी।
दीपशिखा के कलेजे से ममता की धार फूट पड़ी। बात्सल्य का सागर हिलोरे लेने लगा। वो लाड लडाने के लिये बेचैन हो उठी।माथे पर चूम कर सुमन से पूछा-" बेटा है न??? हाँ मैं जानती थी कि बेटा ही होगा, देख सुमन ...ये किस पर गया है..? बता..मुझे पर या फिर तेरे भइया पर..?" वो खुशी से सरावोर थी। इतनी की सब दर्द भूल बैठी। उसे तो अपनी मंजिल मिल गयी थी जहाँ सफर की सारी थकावट बेमानी हो जाती है। छातियों से दूध की धार फूट पड़ी थी। कसी हुई छातियाँ कलेजे के टुकड़े को स्तनपान कराने के लिये उद्धत हो उठी थी। उसने एक हाथ से उसे अपने करीब समेंट लिया और कहने लगी- "सुमन, मुझे दिखा तो दे ।अब मुझसे सब्र नही होता। मेरा लाडला कितना कमजोर है? कितना नाजुक है? अब तू जल्दी से दिखा दे सुमन..।" दीपशिखा अपने बच्चे को जाँचने के लिये तड़प रही थी।
बाहर उस मासूम की बदकिस्मती की हवा ने जोर पकड़ लिया था। इक्का-दुक्का बहाने से कमरे मे ताका-झाँकी कर रहे थे।विना आवाज के मुँह चलते हुये दिखाई देने लगे थे। गलती किसकी थी ? ये एक अजूबा ही था।आम तौर पर ऐसा देखा -सुना कहाँ जाता है। शादी-व्याह के अवसर पर अगर किन्नर आ भी जायें तो उपेक्षित और हेय दृष्टि से कौन नही देखता ? और फिर ऐसा अवसर...? कौन हाथ से जाने देगा..?
शेखर ने बताया कि वो एक घण्टें में पहुचँ जायेगा। जब तक वो नही आ जाता कोई फैसला लेना उचित भी नही होगा। माँ उधड़े चिथड़ों को छुपाने में लगी थी। कमरे का दरवाजा उढ़का दिया था। वो सोच के फन्दे बुन रही थी। दीपशिखा की ममता परवान चढ़े, उससे पहले ही बच्चे को उससे दूर करना होगा। कलेजे पर पत्थर का बोझ असहनीय था, मगर जरूरी भी।
बुआ के पास जाकर वो सभी पुख्ता जानकारी ले आई थी।अमूनन- किन्नरों का परिवार किधर रहता है? बच्चा वहाँ तक कैसे पहुचाँया जाये..? दिन के उजाले में किसी ने देख लिया तो.. ? या बच्चे की सुरक्षा की क्या गारंटी है..? बगैहरा-बगैहरा।
माँ गीली आँखों को धोती से पोछती हुई कमरें में दाखिल हुई।उन्हे देखते ही दीपशिखा ने शिकायती लहजे में कहा- "माँ मुझे छोड़ कर आप कहाँ थी..? अब मुझे मेरा बच्चा तो दिखा दीजिये। माँ अब मुझसे सहा नही जाता। जल्दी दिखाइये मेरे बेटे को। मैं जानती हूँ बेटा ही हुआ है।" माँ ने अन्तस की वेदना को, सपाट और रुखे स्वर का जामा पहनाते हुये कहा- " सुन दीपशिखा, कलेजा मजबूत कर ले और जितने आँसू बहाने हैं बहा ले। जी भर के देख ले इस बच्चे को। आज के बाद न तो ये मिलेगा तुझे और न ही तू। ममता को जला कर राख कर दे।छातियों का दूध अब सूख जाने दे। ये बच्चा अब तेरा, हमारा, या हमारे खानदान का नही है। इससे हमारा कोई वास्ता नही। ये नामुराद हमारे समाज के लिये बना ही नही है । ईश्वर हम सब को शक्ति दे।" कह कर माँ ने उसकी लंगोट को खोल दिया।दीपशिखा देखते ही बुत बन गयी। आँखों के पानी ने लंगोट के अन्दर की तस्वीर को धुँधला कर दिया था। किस्मत और कोख का ताना-बाना मुखर हो उठा था। धड़कनों की धौकनी को, हतौड़े के एक ही वार ने चटका दिया था। होठों पर शब्द विहीन याचना की गुहार थी। दीपशिखा माँ से लिपट कर फफक पड़ी।
माँ पत्थर की चट्टान सी तन गयी और बच्चे को उठा लिया। " नही माँ, इसे लेकर कहाँ जा रही हो..? लालो देदो मुझे..ये मेरा बच्चा है..मैं पालूँगी ..जैसा भी है ..मेरे कलेजे का टुकड़ा है...मेरे सीने से लगा लेने दो...नही ..मैं अपने बच्चे को कहीँ नही जाने दूँगी..।" सिसकियों मे बँधी दीपशिखा की आवाज अस्पताल के उस कमरे को दरका रही थी।
"पागल मत बन, किन्नर को किसी ने पाला है कभी..?इसको इसकी सही जगह जाना ही होगा। हमारा समाज हमे जीने नही देगा..जानती है तू..? भावनाओं के भाव न बढ़ा। रो ले जी भर के इसकी मौत पर। ममता को मर जाने दे।
प्रलय थी ये। मगर इस अंधड़ में यमदूत आकर उन सभी की जान बचा गये जो निर्बल थे।
दरवाजे पर खड़ा शेखर, पत्थर की दूसरी और बिशाल चट्टान था जो पहली चट्टान से बड़ी थी। दीपशिखा का हाथ कस कर थामते हुये फैसले की परिधी से बोला- "माँ ये कहीँ नही जायेगा। ये हमारे घर में नही, बल्कि अपने घर में रहेगा। इसका अपना घर, जहाँ ये ईश्वर की मर्जी से आया है। हमारी मर्जी से नही।
छाया अग्रवाल
मो. 8899793319