कवि परम्परा: तुलसी से त्रिलोचन: श्रेप्ठ परम्परा का संचार
लेखक: प्रभाकर श्रोत्रिय
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
मूल्य: 195 रु.
पृप्ठ: 261 ।
परिप्ठ आलोचक, सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय की पुस्तक ‘कवि परम्परा: तुलसी से त्रिलोचन’ में 21 कवियों पर आलोचनात्मक निबंध संकलित हैं। इस कवि परम्परा में तुलसी, कबीर, सूर, मीरां, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुक्तिबोध, अज्ञेय, नागार्जुन, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, शमशेर, वीरेद्र कुमार जैन, भावानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, रामविलास शर्मा और त्रिलोचन शामिल हैं। इन सभी कवियों पर समय-समय पर निबंध शोध प्रबंध, आलेख, समीक्षाएं लिखी गई हैं और भविप्य में भी लिखी जाती रहेंगी। अतः यह पुस्तक उन सभी के लिए उपयोगी है। अधिकांश निबंध पूर्व प्रकाशित हैं। लेकिन इस कवि परम्परा में क्या रामधारीसिंह दिनकर नहीं होने चाहिए थे ? धर्मवीर भारती पर लिखे निबंध में भी ‘मुनादी’ जैसी कविता का जिक्र नहीं है, शायद कोई मजबूरी रही होगी। आलेखों की क्रमबद्धता तो है लेकिन यह शायद काल के आधार पर की गई है। पुस्तक का प्रारम्भ केदार नाथ सिंह की कविता से किया गया है, मगर अर्धविराम, विराम गायब है। आशय आलेख में वर्तनी की अशुद्धियां कचौटती है।
में ‘मैं’, गुंजायश, आदि।
तुलसीदास और कबीर पर लिखे गये आलेख अवश्य मन को प्रसन्नता देते हैं। कवि को उसकी समग्रता में देखा जाना चाहिए। तुलसी की कविता का आधार लोक में प्रचलित कथाएॅंह ैं और आज भी प्रासंगिक हैं। तुलसी तो लोक कवि हैं यही कारण है कि तुलसी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कवि हैं।
कबीर की चर्चा के दौरान प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं ‘कवि की प्रासंगिकता की जड़े ंतो अपने समय के बीचोबीच उसकी सजीव और सार्थक उपस्थिति में होती है।’ लेकिन जब वे त्रिलोचन, नागार्जुन या गिरिजा कुमार माथुर की चर्चा करते हैं तो यह वाक्य खरा नहीं उतरता है।
प्रसाद, गुप्त की कविताओं की चर्चा के दौरान भी श्रोत्रिय कोई नई महत्वपूर्ण स्थापना नहीं करते। निराला, अज्ञेय की रचनाओं की चर्चा में भी कविताओं का विश्लेपण कमजोर लगता है। मुक्तिबोध की प्रगतिशीलता का वर्णन भी वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ही जोड़ते प्रतीत होते हैं। शमशेर हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि कभी नहीं रहे। भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हमेशा से ही प्रभावित करती रही है। नरेश मेहता की कविता हमेशा एक तेज़ एक तर्क से चमकती रही है।
मीरा ‘या मीरां’ - एक पॉंच सौ बरस की युवती के रुप में चित्रित की गई है, क्या ही अच्छा होता प्रभाकर जी ऐसा नहीं करते।
मीरां बंधन करने के लिए नहीं समाज को एक आध्यात्मिक दर्शन देती है जो जीवन के लिए एक आवश्यक तत्व है।मीरा पर और ज्यादा लिखा जाना चाहिए था.कबीर पर ज्यादा कम आज भी किया जा सकता है.प्रभाकर जी की वैचारिक प्रतिबधता हावी है
हिन्दी दरबारी भापा नहीं है, हिन्दी का चरित्र भी दरबारी नहीं हैं अतः हिन्दी कवियों की परम्परा भी गरीबों के लिए ही होनी चाहिये। सभी कवि गरीबों के कवि हैं। राजाओं या बादशाहों के नहीं।
कवि परम्परा की इस विशाल यात्रा को जारी रखा जाना चाहिये। पुस्तक की अपनी सीमाएॅं हैं, लेकिन हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी के लिए पुस्तक पठनीय है।
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