कुबेर
डॉ. हंसा दीप
6
गुप्ता जी के ढाबे पर एक बेरंग चिट्ठी की तरह लौट आया वह। सेठजी को बताया माँ-बाबू के बारे में तो वे भी उदास हुए। धन्नू का उतरा चेहरा उन्हें सब कुछ बता रहा था। क्या कहते वे, एक बच्चे ने अपने माता-पिता को खो दिया। ऐसा बच्चा जो इतनी मेहनत करता है, सबका ख़्याल रखता है। उसके सिर पर प्यार से हाथ रख कर बोले - “बेटा धन्नू, तुम यहीं रहो अब।”
“कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है तुम्हें।”
“तुम होते हो तो मुझे यहाँ की कोई चिन्ता नहीं होती।”
“माँ की याद आए तो घर चले जाया करो।”
अब वे उसे किसी न किसी काम के बहाने रोज़ ही घर भेज देते। उनकी पत्नी उसे घर की चीज़ें खिलाने लगीं, एक और माँ की तरह। अपनी माँ नहीं हो तो कई दूसरी माँओं में माँ ढूँढ लेता है इंसान। धन्नू को अच्छा लगता मालिक की पत्नी को देखकर। उनकी बगैर सिलवटों वाली साड़ी देखकर। माँ होतीं तो एक दिन वे भी अच्छी साड़ी पहनतीं, वैसी ही बड़ी सितारे वाली बिन्दी लगातीं। उनका चेहरा धन्नू को माँ का ही चेहरा नज़र आता, वे माँ ही लगतीं। ममता से भरा स्नेहिल आँचल जिसमें छुप जाने को जी करता।
अब चाहे गुप्ता जी के घर पर कोई काम हो या ढाबे पर कोई भी काम हो, कैसा भी काम हो, सारा काम धन्नू के ही ज़िम्मे होता। उसका एक पैर घर पर होता और दूसरा ढाबे पर होता। हर जगह उसकी ज़रूरत थी। अपनी छोटी-सी उम्र में इतना बड़ा हो गया था वह कि घर के काम और ढाबे के काम बहुत ही फुर्ती से ख़त्म करता। इतना बड़ा कि जो कुछ उसे नहीं मिला वह औरों को मिले इसकी कोशिश में लगा रहता। छोटू और बीरू उसे भाई कहते थे, खाना बनाने वाले महाराज जी उसे अपना चेला कहते थे और वहाँ के सारे ग्राहक उसे राजधानी एक्सप्रेस कहते थे जो तेज़ गति से आकर ऑर्डर ले जाए और उतनी ही तेज़ गति से आकर परोस दे।
वह उम्र में बड़ा नहीं था, अपने व्यवहार से बड़ा था। अपनी सोच से बड़ा था। हर किसी का काम अपने सिर पर लेकर उसे आराम करने के लिए कहता। यहाँ तक कि खाना बनाने वाले महाराज जी भी उसकी बात को टाल नहीं पाते – “महाराज जी, पसीना टपक रहा है, थोड़ी देर हवा में चले जाओ आप, चूल्हे की गर्मी से सिर चढ़ जाएगा।” और वे वहाँ से थोड़ी देर के लिए हट जाते। पीछे पेड़ की ठंडी छाँव में घूम फिर कर वापस आ जाते।
बीरू थोड़ा कमज़ोर था। बहुत जल्दी थक जाता था। धन्नू उसका ख़ास ध्यान रखता – “बीरू, तू सो जा थोड़ी देर। रात में तुझे मच्छर काटते हैं न, सो नहीं पाता है।”
“ये बर्तन रहने दे मैं साफ़ कर दूँगा।”
“छोटू तू बैठकर सुस्ता ले तनिक।”
वे दोनों बीरू और छोटू भाई धन्नू की बातों का पूरा सम्मान करते थे। उसका कहना मानते थे। किसी को पता नहीं था कि कौन किससे बड़ा है मगर जो परिपक्वता और समझदारी धन्नू के स्वभाव में थी उससे वह सब बच्चों से बड़ा ही माना जाता था। उसके क़द और गठीले शरीर को ढाबे के खाने से थोड़ी चरबी भी मिली थी। मरियल तो वह पहले भी नहीं था लेकिन यहाँ आने के बाद डील-डौल में और उम्र में जो इज़ाफा हुआ था उसने उसे एक आकर्षक और प्यारे-से किशोर में तबदील कर दिया था।
दिन कटते रहे। क़द में, उम्र में हर दिन का हर पल उसके शरीर को, उसके इरादों को बदल रहा था। काफी समय हो चुका था गुप्ता जी के यहाँ का काम सम्हालते हुए। मालिक के बाद अब वह बॉस जैसा था। सामान का ऑर्डर देना हो या कोई मरम्मत कराना हो, घर पर कुछ सामान भेजना हो या दूध वाले का हिसाब करना हो, ये सारे काम पूरे करना उसी की ज़िम्मेदारी थी। ढाबे का नाक-नक्शा पूरी तरह बदल चुका था। ग्राहक सेवा में ख़ूब सुधार हुआ था। सफाई, फर्नीचर, बर्तन, प्लेटें-चम्मच सब में ढाबे का बदलाव नज़र आता था। ख़ूब चलने लगा था मालिक का धंधा। आसपास के इलाकों से लोग आते वहाँ का खाना खाने के लिए, हर तरह के लोग आते। कुछ नौकरीपेशा जो आसपास के इलाकों में रहते थे वे भी पत्नी-बच्चों के साथ बाहर के खाने का आनंद उठाने आते।
छोटे-बच्चे जो उसी की उम्र के होते उनके माता-पिता उनसे पूछकर खाना ऑर्डर करते।
धन्नू सोचता अगर माँ-बाबू के पास पैसे होते तो वह भी ऐसे ही खाना खाने आता ढाबे पर। वे तीनों आमने-सामने बैठते। वेटर आए उसके पहले धन्नू से माँ पूछतीं – “हाँ, बेटा क्या खाओगे?”
बाबू उसके सामने मैन्यू करते तो वह ध्यान से पढ़ता और सारी पनीर से बनी चीज़ें ऑर्डर करता – “शाही पनीर, पनीर कोफ्ता, मटर पनीर, पनीर टिक्का।”
और माँ कहतीं – “बस पनीर! पनीर के अलावा भी तो कुछ लो, एक दाल भी लो। दाल तो खाना चाहिए।”
बाबू कहते – “और कुछ मीठा नहीं खाना?”
फिर वह सोच कर कहता – “गुलाबजामुन खाना है।”
ऐसे ही ख्यालों की दुनिया में खोने लगता वह। गुलाबजामुन का स्वाद मुँह में आए उसके पहले ही बीरू-छोटू की आवाज़ से तन्द्रा टूट जाती और ख़्वाबों-ख़्यालों की दुनिया भरभरा कर गिर जाती।
कभी-कभी ग्राहक बहुत कम होते तो धन्नू उन ग्राहकों पर ध्यान देने लगता जो परिवार के साथ खाना खाने आते। कई बार माता-पिता अपने बच्चों को आइपैड और फ़ोन पकड़ा कर बातों में मशगूल हो जाते तब धन्नू का बहुत मन होता उन महँगे खिलौनों पर हाथ चलाने का। इन पर चलते फोटो दिखाई देते तो रुक जाता वह उन्हें देखने के लिए। बच्चों के साथ खेलने का मन करता। उनके हाथों में पकड़े हुए ऐसे खिलौने देखकर मन खेलने को तरसता, रश्क़ भी होता कि इन्हें कितने प्यार से बड़ा कर रहे हैं इनके माता-पिता। कितनी सारी सुविधाएँ हैं इनके पास। इन्हें कभी किसी चीज़ के लिए तरसना नहीं पड़ता होगा। माँगने से पहले ही सब कुछ मिल जाता होगा।
इसी तरह ग्राहकों के चेहरों में भी अपने क़रीबी चेहरों को ढूँढने की कोशिश जारी रहती। हाथ काम करते रहते और दिमाग़ उड़ानें भरता रहता, स्वच्छंद और आज़ाद उड़ान।
कई ग्राहक ऐसे भी थे जो वहाँ बैठकर शराब पीते थे और इन काम करने वाले छोकरों पर गालियाँ बरसाते थे। मालिक गुप्ता जी तुरंत वहाँ आते, उन तीनों बच्चों को मना कर देते थे कि – “इनके पास मत जाओ।” अगर वे कोई ऑर्डर देते तो उस ऑर्डर को पूरा करने महाराज जी जाते। तब तक उन पर निगाह रखी जाती जब तक महाराज जी उनका सब काम निपटा नहीं देते थे। तब तीनों बच्चे बहुत कृतज्ञता से देखते थे मालिक को, महाराज को, जो उनका इतना ध्यान रखते हैं। “भगवान ख़ूब भला करे इनका” दिल से दुआ निकलती थी।
एक दिन एक बड़ी-सी जीप आयी। सफ़ेद-झक कपड़ों में, छोटी-सी दाढ़ी और बड़ी गोल-सी टोपी पहने एक सज्जन उतरे। मालिक से दुआ सलाम की और ढाबे के बदले हुए नये रूप के लिए उन्हें बधाई भी दी।
मालिक ने धन्नू को बुलाकर कहा कि – “देखो बेटा, ये दादा हैं। इनका अच्छी तरह ध्यान रखना, ठीक है।”
धन्नू को पहली बार मालिक ने किसी व्यक्ति का ख़ास ध्यान रखने के लिए कहा था। वह समझ गया कि ये कोई ख़ास मेहमान हैं। वह उनकी ख़ातिरदारी करने के लिए जुट गया। हालांकि वह तो हर किसी का इसी तरह ध्यान रखता था। उसके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। उसने हमेशा की तरह अच्छी सेवा की। एक साथ कई ग्राहकों के कई ऑर्डर याद रखना और हिसाब लगाकर तेजी से काउंटर पर जाकर सेठजी को बताना। इतनी चुस्ती-फुर्ती को दादा की पारखी नज़रें परख रही थीं।
उसका नाम पूछा – “सुनो बेटा, इधर आओ, क्या नाम है तुम्हारा?”
“धनंजय प्रसाद। सब मुझे धन्नू कहते हैं।” यह उसका रटा-रटाया जवाब होता था।
“धन्नू” उन्होंने दोहराया।
“कुछ चाहिए सर?” विनम्रता तो जैसे उसे घुट्टी में पिलायी गयी थी, उसके हर शब्द में होती।
“नहीं, कुछ नहीं चाहिए। किस गाँव से हो तुम धन्नू?” दादा बात से बात आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे।
“अग्राल” तटस्थ भाव से जवाब दिया धन्नू ने। अब उसे गाँव का नाम बताने में बिल्कुल भी डर नहीं लगता था क्योंकि माँ-बाबू तो थे नहीं, अब कौन उसे वहाँ से ले जाना चाहता, कोई नहीं।
“अभी कहाँ रहते हो?” दादा भी काफी विनम्र होकर पूछ रहे थे।
“यहीं, पिछवाड़े रहता हूँ सर।”
“जीवन-ज्योत चलोगे?”
“वो क्या है?”
“वह हमारी संस्था है जहाँ कई बच्चे रहते हैं। हम सब साथ-साथ रहते हैं, काम भी करते हैं और पूजा-प्रार्थना भी करते हैं। हमारे घर का नाम जीवन-ज्योत है। जो घर भी है, मंदिर भी है, मस्जिद भी है, चर्च भी है और जो नाम देना चाहे दे सकते हैं।”
धन्नू ने अनुमान लगाया कि शायद इन्हें किसी सफाई करने वाले लड़के की ज़रूरत है। कई लोग सफाई के लिए ऐसे छोटे लड़कों को नौकरी देते हैं जिन्हें पैसों की ज़रूरत होती है। इसी बात के दिमाग़ में रहते उसने कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया और बोला - “सफाई के लिए चाहिए सर तो बीरू को ले जाओ, रगड़-रगड़ के चकाचक कर देगा वो आपके घर को।” अपने काम की तरफ़ पूरा ध्यान था उसका। किसी और जगह के बारे में सोचना भी नहीं चाहता था। ‘मन न भए दस-बीस’ एक ही था जो गुप्ता जी के यहाँ काम में व्यस्त था।
“नहीं, सफाई के लिए नहीं, मैं तो तुम्हें पढ़ाने के लिए ले जाना चाहता हूँ।” दादा ने उत्सुक आँखों से धन्नू को देखा।
“क्यों मजाक करते हो सर। मैं तो मालिक के ढाबे में ख़ुश हूँ।” किसी भुलावे में नहीं आकर सपाट शब्दों में बोला धन्नू। अपने मालिक के दिये प्यार और स्नेह का आभारी था। उसी प्यार का गहरा रंग चढ़ा हुआ था उस पर। यह ढाबा अब मालिक का ही नहीं उसका भी अपना था।
“हाँ, तभी तो मैं तुम्हें और पढ़ा कर ख़ुश करना चाहता हूँ।” दादा के शब्दों में कहीं झूठ की गुंजाइश नहीं लग रही थी मगर धन्नू अपने जीवन में आयी हुई ख़ुशियों को यूँ छोड़ना नहीं चाहता था।
“नहीं सर, मैं ठीक हूँ यहाँ।” कहकर धन्नू जाने लगा तो दादा ने कहा – “क्यों तुमको पढ़ना अच्छा नहीं लगता?”
“मैं पढ़ता था सर, गाँव में स्कूल जाता था। मेरी बहनजी नहीं पढ़ा पायीं, मैं लिखता ही नहीं था, बहुत डंडे खाए मैंने।”
अपनी पढ़ाई की कहानी अच्छी तरह याद थी धन्नू को। बहन जी भी याद थीं जो परेशान हो जाती थीं धन्नू के कारण, अपनी माँ भी जो इसी वजह से बोलना बंद कर देती थीं और वह दिन भी जब वह घर से बहुत दूर हो गया था। अपने दिमाग़ की कहानी भी याद थी जो कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से चलता था और लिखने में लगने वाले कागज़ और समय से कतराने लगता था।
“पढ़ने के लिए लिखना तो पड़ता ही है पर तुम्हें नहीं लिखना हो तो मत लिखना।”
“नहीं सर, अब तो मैं सब भूल भी गया। मैं यहाँ ठीक हूँ।” उसकी आवाज़ में एक मजबूती थी।
“तुम्हारी इच्छा हो तो ही चलना मैं तुम्हें ज़बरदस्ती तो ले नहीं जाऊँगा।” दादा जानते थे। इस तरह एक बार में कोई भी कैसे किसी के साथ जा सकता है। संबंध बनाने के लिए समय चाहिए और समय के लिए प्रतीक्षा, जिसके लिए उन्हें बार-बार यहाँ आना पड़ेगा।
धन्नू विस्मित था। कुछ जवाब नहीं सूझा तो बस इतना ही कह पाया - “सर, आपको कुछ और चाहिए तो बता दीजिए।”
“कुछ नहीं चाहिए बेटा। अच्छा सुनो, जल्दी नहीं है मुझे। मेरी इस बात पर गौर करना और जब तुम्हारा मन हो तभी चलना।”
दादा ने अनुमान लगाया कि इस समय ज़्यादा बात करने से कोई फ़ायदा नहीं है। यहाँ से जाना ही उचित है। अगर पढ़ने का जरा भी इच्छुक हुआ यह बच्चा तो कम से कम सोचेगा ज़रूर।
“अच्छा धन्नू, फिर कभी इधर से निकलूँगा तो तुम्हें पूछ लूँगा।”
दादा चले गए पढ़ाई का प्रलोभन देकर। सीखने की ललक तो बहुत थी धन्नू को पर बीते दिनों की यादें अभी शेष थीं। यहाँ जो प्यार मिल रहा था, जो ओहदा मिल चुका था उसे छोड़ने का मन नहीं था। कुछ ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया उसने। सोचा – “जाने दो आज पहली बार तो आए थे अब शायद कभी आएँ न आएँ। ऐसे तो कौन बिना किसी मतलब के, किसी को ले जाकर पढ़ाने की कोशिश करेगा।”
“ये कहीं उन नेताजी की तरह फिर से उसे कहीं फँसा न दे।”
नेताजी जैसा कोई ताम-झाम, लाव-लश्कर तो नहीं था इनके आगे-पीछे। ये कौन थे, कहाँ से आए थे, क्यों धन्नू को ले जाना चाहते थे ऐसे कई सवालों में वह बिल्कुल भी नहीं उलझा। अपने काम में मशगूल हुआ तो भूल चुका था दादा को और उनके उसे साथ ले जाने के प्रस्ताव को। जानने की कोशिश भी नहीं की कि ये दादा कौन थे और सब उन्हें इतना आदर क्यों दे रहे थे। अपनी इस नयी ज़िंदगी से बहुत ख़ुश था वह। बहुत अच्छा लगता था काम में लगे रहना, पैसे मिलना, सारी मेहनत का फल मिलना। जोर से आवाज़ देकर ऑर्डर बुक करना। एक टेबल से दूसरी टेबल पर जाना, सामान देना और फिर कैशियर की ज़िम्मेदारी पूरी करना। एक नहीं हज़ार कामों का ज़िम्मा ले रखा था उसने। “धन्नू... धन्नू...” आवाज़ें लगतीं और वह एक फिरकनी की तरह दौड़-दौड़ कर सारी ज़िम्मेदारी पूरी करता।
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