Kuber - 2 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 2

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कुबेर - 2

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

2

धन्नू के जवाबों से साफ़ ज़ाहिर था कि गाँव की सरकारी शाला में क्या हो रहा है। उसके पकड़मपाटी के खेल में किसी ने किसी को पकड़ लिया था। जाँच के आदेश भी दिए गए थे कि – “आख़िर क्यों स्कूल में खाना नहीं दिया जा रहा है जबकि ‘मिड-डे मील’ के नाम पर एक बड़ी राशि वहाँ जा रही है। जाते-जाते बीच में कितने जंक्शन स्टेशन हैं जहाँ पर यह राशि टौल टैक्स भरती जा रही है कि स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते कुछ भी नहीं बचता।”

“खाना भी नहीं, पढ़ाना भी नहीं तो आख़िर यह मास्टर का बच्चा है कौन जो सबकी निगाहों में धूल झोंककर चैन की नींद सो रहा है, जिसकी देखरेख में पढ़ाई पकड़म-पकड़ाई में बदल चुकी है।”

नयी-नयी जीत के अतिरेक में, नये-नये नेताजी की त्योरियाँ चढ़ीं। तत्काल कार्यवाही के आदेश जारी हुए और मास्टर जी को सस्पेंड कर दिया गया। नयी मास्टरनी को उस गाँव की शाला में नियुक्त करके, ताक़ीद कर दी गयी कि – “यह न समझना कि यह गाँव का स्कूल है और देखने वाला कोई नहीं है। अपना काम ठीक तरह करना वरना सस्पेंड करने में एक मिनट लगेगा।”

जीत की ख़ुशी का जश्न मनाना कोई इन नेता लोगों से सीखे। उस दिन अपने जश्न को पूरा नौटंकी बनाने के लिए उनके दिमाग़ में एक से एक उम्दा ख्याल उछल-उछल कर, कूद-कूद कर सामने आने लगे थे। अब उन्हें वहाँ किसी के घर पर खाना भी खाना था। एक दिन के लिए यहाँ खाना खाकर भविष्य के आने वाले सौ दिन का मीडिया कवरेज लेना बुरा सौदा नहीं था। राजनीति की दुकान चलाने का पहला सबक था यह –“ मौके पर चौके लगाते रहो” चुनाव में जीत के पहले दिन तो कम से कम ये सारे सबक दोहरा लिए जाते थे।

नेताजी ने बहुत ही उत्साह में धन्नू की माँ से कहा कि – “आज शाम को मैं आपके हाथ का बना खाना खाऊँगा।”

माँ-बाबू को विस्मित देखकर वे बोले – “जो आपके यहाँ रोज़ बनता है वही खाऊँगा मैं। कुछ ख़ास बनाने की ज़रूरत नहीं है।”

ख़ास बनता भी कहाँ से। जो था वही था, पतली दाल थी जिसमें कच्ची कैरी की कचूमर डाली गयी थी और गरम-गरम रोटी थी। खाने की पीतल वाली थाली पर कैमरे टिके थे जिसके एक सिरे पर टेका लगाकर दूसरे सिरे पर दाल लुढ़का दी गयी थी। नेताजी दाल में रोटी डुबा-डुबाकर ऐसे खा रहे थे जैसे पाँच सितारा होटल की मेज़ पर बैठे हों और सारे खड़े हुए लोग वहाँ के वेटर हों जो उनके एक इशारे पर सुस्वादु व्यंजन परोस रहे हों। खाना खाते-खाते उनके कई फोटो खींचे गए थे। यह संदेश था देश की जनता के लिए कि इतना महान नेता इतना साधारण खाना खाकर जनता की सेवा करने के लिए किस क़दर लालायित है। देश को बताना था कि इतना बड़ा चुनाव जीतकर भी नेताजी अपनी जनता के साथ हैं, अपनी धरती से जुड़े हुए हैं, उन्हीं का खाना उन्हीं की तरह खा रहे हैं, नि:संकोच।

यह एक अलग मुद्दा था कि देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को रोज़ वैसा खाना भी नहीं मिल पाता था। बालक धन्नू को एक ही डर था कि आज माँ या बाबू में से किसी एक को भूखा रहना पड़ेगा या फिर वे दोनों बचे हुए खाने के साथ बाकी भूख को पानी से मिटा लेंगे। उनके हिस्से की रोटी नेताजी के पेट में चली गयी थी। हर निवाले के साथ उनके अमचे-चमचे जय-जयकार कर रहे थे। माँ-बाबू हाथ जोड़ते हुए कृतज्ञ चेहरे लिए उन्हें देख रहे थे।

पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं के ज़िम्मे यह काम था कि वे पार्टी फंड से पैसे निकलवा कर धन्नू के स्कूल की फीस जमा करें तथा कॉपियाँ-किताबें ख़रीद कर दें। पार्टी के कार्यकर्ता इस तरफ़ आते ही रहते हैं तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। वे धन्नू के स्कूल की ज़िम्मेदारी का वहन अच्छी तरह करेंगे। मीडिया ने नेताजी के इस नेक काम का खुल कर प्रचार-प्रसार किया था और उनकी उदारता को जी भर कर सराहा था। धन्नू की कई तस्वीरें ली गयी थीं माँ-बाबू के साथ।

उस दिन माँ-बाबू दोनों को बेहद गर्व महसूस हुआ था कि उनका धन्नू पढ़ने के लिए अंग्रेज़ी स्कूल में जाएगा और पढ़-लिख कर बाबू बनेगा। दो साल तक तो सब कुछ ठीक चला। स्कूल वालों ने कभी पैसे नहीं मांगे। धन्नू जब तीसरी कक्षा में गया तो बारह साल का हो चुका था। दो-एक साल पीछे चलना अंग्रेज़ी की पढ़ाई के लिए ज़रूरी भी था। वे दो साल बहुत अच्छे निकले। धन्नू को खाना भी स्कूल में मिलता था, यूनिफार्म भी मिलती थी और किताबें, कॉपियाँ, पेंसिलें सब मिलती थीं।

दिमाग़ तो बहुत तेज़ था धन्नू का। कभी भी उससे कोई भी सवाल पूछा जाता जवाब हाजिर मिलता। कक्षा में सबसे आगे था, पहले नंबर पर। सारे विषयों में सौ-सौ नंबर मिलते थे। जो बहनजी उसे पढ़ाती थीं उनके लिए यह परिणाम उनकी “मेहनत का फल” था। माँ-बाबू के लिए यह “नेताजी की कृपा का फल” था। किसी ने यह कभी नहीं सोचा कि यह “धन्नू की मेहनत और लगन है और यह सिर्फ़ उसके तेज़ दिमाग़ का फल” है।

धन्नू ख़ूब पढ़ाई करता। माँ को अंग्रेज़ी लिख कर, बोल कर बताता तो वे मुँह में पल्लू दबाकर मुस्कुरातीं। वह मुस्कुराहट अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य को देखती और चौड़ी हो जाती। बाबू की दूरदर्शी निगाहें अनुमान लगातीं कि – “अपना छोरा एक दिन शहर जाकर बाबू बनकर काम करेगा।” उसकी माँ से कहते – “देखना धन्नू की माँ, हमारा बेटा वह सब कुछ कर पाएगा जो हम नहीं कर पाए। तब हम भी ऐसे घर में रह पाएँगे जहाँ छत के साथ दीवारें भी होंगी। सीमेंट और रेत से बनी दीवारें, जिनमें न बारिश की चिंता करनी पड़ेगी न धूप की, न रातों की कड़कती ठंड की और न ही अंधेरे का फायदा उठाते जानवरों की।”

और माँ अपने धन्नू के सिर को सहलाने लगतीं, आशाओं और उम्मीदों से भरे सपने उनकी आँखों में तैरने लगते।

अभी तो सपनों की माटी गीली ही थी, कोई आकार भी नहीं ले पायी थी कि उसे पानी में मिला दिया गया, धराशायी कर दिया गया। हवा को अपना रुख़ बदलने में देर नहीं लगती। यही हुआ, धीरे-धीरे राजनीति की हवा अपना रुख़ बदलने लगी और उल्टी दिशा में बहने लगी। अगले चुनाव में नेता जी की पार्टी चुनाव हार गयी। उनकी पार्टी की सिर्फ़ हार ही नहीं हुई उनका पत्ता ही साफ़ हो गया। ख़ुद मंत्री जी की जमानत जब्त हो गयी। अब उनकी पार्टी से कभी कोई धन्नू के गाँव नहीं आता, कभी कोई स्कूल भी नहीं आता। सारे कार्यकर्ता अंतर्ध्यान हो गए थे। स्कूल की फीस भरने का ज़िम्मा तो सांसद ने उठाया था। जब सांसद ही नहीं रहे, कुर्सी ही नहीं रही, पार्टी ही चली गयी तो कौन धन्नू, कैसा धन्नू का स्कूल और कैसी धन्नू की फीस!

दो-चार महीने तो जैसे-तैसे निकले लेकिन बाद में फीस न भरने पर रोज़ की किच-किच होने लगी। स्कूल वाले परेशान तो थे ही तिस पर धन्नू का गृहकार्य न करना। न फीस भरी जा रही थी और न ही धन्नू पढ़ रहा था। एक अच्छा बहाना मिल गया था स्कूल वालों को अपने नाम को बचाने का। सबकी सहनशीलता का घड़ा भर चुका था, एक दिन फूटना ही था उस घड़े को। उसे स्कूल से निकाल दिया गया। उस दिन वह स्कूल से इतना तेज़ भाग कर घर आया था कि साँस धौंकनी की तरह चलती रही और वह भागता रहा था, बेतहाशा। जैसे पीछा छूटा किसी के एहसानों से, जैसे पीछा छूटा इतनी धीमी चल रही पढ़ाई से, जैसे पीछा छूटा उस चक्रव्यूह से जिसमें वह फँस गया था। घर का धन्नू लौट कर वापस घर आ गया।

वह दिन पहला व आख़िरी दिन था जब माँ ने अपनी नाराज़गी जताई थी। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर करे तो क्या करे। आज वे मौन नहीं थीं, चिल्ला रही थीं। पहले तो बहुत डाँटा – “क्यों नहीं पढ़ता तू”

“क्यों नहीं सुनता बहनजी की बात”

“इतना तेज़ दिमाग़ है क्यों नहीं पढ़ने में लगाता”

“तुझे पता नहीं जब सब तुझे डाँटते हैं तो मेरा कलेजा मुँह को आता है”

“मुझसे देखा नहीं जाता तेरा ये ज़िद्दी स्वभाव”

“काहे किसी का कहना नहीं मानता”

जी भर कर डाँटने के बाद थक गयीं माँ तो उसे सज़ा दी। बेंत से मारने की नहीं, उस मार का तो वह आदी था अपितु ऐसी सज़ा जो धन्नू के लिए असहनीय थी। एक दिन, पूरे दिन उससे बात नहीं की। उसके न पढ़ने के लिए यह सबसे बड़ी सज़ा थी जिसे धन्नू को समझना था और कुछ करना था। एक चुनौती थी। माँ के दूध की लाज रखनी थी। अपनी माँ का बेटा जो था, वह भी गुस्सा होता। नहीं समझा पाता माँ को कि बहनजी जो भी पढ़ाती थीं उसे सब कुछ आता था। वह और भी ज़्यादा सीखना चाहता था। वह कागज़ नहीं बिगाड़ना चाहता था। क्योंकि पैसे ख़र्च होते हैं कागज़ बिगाड़ने में। गृह कार्य तो सब कक्षा का काम दोहराने के लिए करते हैं। उसे तो सब कुछ मुँह जबानी याद है कहीं से भी, कुछ भी पूछ लो।

माँ की डाँट के बाद बाबू आए तो फिर से बेंतों की मार शुरू हो गयी। बेंत की तीखी मार ने उसे बहुत दर्द दिया, मन का और तन का। मन का इसलिए कि उसकी तो कोई ग़लती थी ही नहीं। सारा शरीर बेंत के निशान से लाल था और दिमाग़ गुस्से से लाल था, आग-बबूला। भाग कर शहर जाने वाली सड़क के पास आ कर खड़ा होता तो दिमाग़ के खुलते दरवाजे दूर तक जाते। उन मोटर गाड़ियों की आवाज़ के साथ टकराते जो फट-फट करके आतीं और नज़रों से ओझल हो जातीं। गाड़ी को आते देख लगता ऐसी ही पहिये वाली ज़िंदगी उसे चाहिए। इस तरह रोज़ मीलों धूप में चल कर जाने में जो ऊर्जा खतम हो रही है उस ऊर्जा को बनाए रखने के लिए लिए गति चाहिए। इतनी धीमी गति से आगे बढ़ती हैं बहन जी जो उसे चिड़चिड़ा कर देता है। दो मिनट की बात को दो दिन लगाती हैं समझाने में। वही रोज़-रोज़, ऐसी धीमी पढ़ाई होगी तो सालों लग जाएँगे आगे बढ़ने में। जितना धीरे पढ़ाएँगी उतना ही ज़्यादा समय लेंगी और उतनी बार फीस भरने के लिए जुगाड़ लगाना मुश्किल होगा।

इधर धन्नू का गुस्सा उधर माँ का गुस्सा, जो सारी आशाएँ बाँधे बैठी थीं कि कम से कम धन्नू पढ़-लिख कर इस लायक बने कि उसके अपने जीवन में इतने अभाव न रहें। और तिस पर बाबू की बेंत की मार, इकट्ठा होता रहा यह ज्वालामुखी एक न एक दिन तो फटना ही था। बहुत गुस्सा था मन में, अब और नहीं सहन करेगा वह। मीलों चलकर जाता है इस आस में कि कुछ नया सीखेगा। कुछ नया नहीं होता, कुछ नया नहीं सीखता और कुढ़ते हुए वापस घर आता। उस नन्हें मन को इतनी दूर पैदल चल कर जाने की भी इतनी परवाह नहीं थी जितनी माँ-बाबू के पास फीस के पैसे नहीं होने की।

रोज़ सुबह उठकर ऐसा लगता था जैसे कि वह पढ़ने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ़ डाँट खाने के लिए स्कूल जा रहा हो। स्कूल के लोग रोज़ पैसों की उगरानी करते, फीस न भरने पर निकाल दिए जाने की धमकी देते और कल पैसे लाने का आश्वासन उससे ले लेते। बहनजी का अपना गाना चलता रहता गृहकार्य को लेकर और माँ-बाबू का पढ़ाई न करने को लेकर। फीस, गृहकार्य, बहनजी, माँ-बाबू ये सब मिलकर धन्नू के नन्हें दिमाग़ पर हथौड़ों की तरह प्रहार करते। सब कुछ मिलकर धन्नू को इतना तंग करने लगा था कि उसका मन इस पार या उस पार के तट पर था।

रोज़ की मार से और शिकायतों से वह दूर जाना चाहता था। वैसे भी उसके जाने से कम से कम एक आदमी के खाने की चिन्ता तो कम हो ही जाती माँ के लिए। उसकी बाल सोच में यही अच्छा था माँ और बाबू दोनों के लिए। यह अहसास कभी नहीं हुआ उसे कि बच्चे के चले जाने की तकलीफ़ कितने गुना ज़्यादा होगी उन्हें। इतनी बड़ी बात सोचने के लिए वह बहुत छोटा था अभी। वह तो माँ को मुक्ति देना चाहता था रोज़ की किट-किट से, बाबू के तानों से। धन्नू को अच्छा नहीं लगता था जब बाबू धन्नू का नाम लेकर माँ को डाँटते थे। माँ का मौन रहकर सब कुछ सुनना धन्नू की बर्दाश्त के बाहर था। इससे ज़्यादा सोचने की न कोई ज़रूरत पड़ी थी, न ही हालात ऐसे थे।

घर से भागकर जाता कहाँ, गाँव का रास्ता छोड़कर शहर के रास्ते पर आया। चलता रहा पूरे दिन, रास्ते में कहीं हैंडपंप मिले तो पानी पी लिया। गाँव के बाहर जाकर दो दिन तक ठोकरें खायीं धन्नू ने। सड़क के किनारे भूखा सोना पड़ा लेकिन अपनी चिन्ता करने का, घर छोड़ने का या दूर जाने का कोई ग़म बिल्कुल भी नहीं सताया। भूख-प्यास से ज़्यादा माँ की याद सतायी बावजूद इसके घर नहीं जाना था तो नहीं जाना था बस।

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