Kuber - 1 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 1

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कुबेर - 1

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

1

“कुबेर का ख़जाना नहीं है मेरे पास जो हर वक़्त पैसे माँगते रहते हो।”

माँ की इस डाँट से चुप हो गया वह, कह नहीं पाया कि वह क्यों पैसे माँग रहा है। उसे तो कॉपी-पेंसिल के लिए कुछ पैसे चाहिए थे। जानता है कि माँ के पास कुछ है नहीं, घर में राशन भी नहीं है, इसीलिए नाराज़ होकर कह रही हैं। माँ की फटकार को सुनना और चुप रहना इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं था। बालक धन्नू समझ ही नहीं पाया कि दस-बीस रुपयों में ख़जाना कैसे आ जाता है बीच में, यह ख़जाना कहाँ है और क्या इसमें पैसे ही पैसे हैं, कभी ख़त्म न होने वाले। अगर यह सच है तो - “माँ के लिए एक दिन यह ख़जाना हासिल करके रहूँगा मैं।”

नन्हीं सोच को विस्तार मिलता ताकि माँ फिर कभी यह दोहरा नहीं पाए।

स्कूल को छोड़ा, घर को छोड़ा, गाँव को छोड़ा, शहर को छोड़ा, देश को छोड़ा, और अंतत: इस भागमभाग को पीछे छोड़ता हुआ यह बालक धन्नू आज न्यूयॉर्क और लास वेगस शहर का जाना-पहचाना चेहरा है।

स्कूल को छोड़ा क्योंकि बार-बार बहनजी एक ही सवाल करती थीं - “तुमने गृहकार्य किया?”

“हाँ, सब याद कर लिया।” कह तो देता था उस समय वह परन्तु उसे पता था कि आगे क्या होने वाला है।

“लेकर आओ अपनी कॉपी” यह कहते हुए बहनजी की छोटी-छोटी आँखें गोल होकर बड़ी हो जातीं। एक सख़्त आदेश देते हुए वे किसी ज़ालिम मास्टर का आभास देतीं जिसका कहा पत्थर की लकीर हो। उस लकीर को लाँघने वाले सज़ा के लिए तैयार रहते। धन्नू भी तैयार था मिलने वाली सज़ा के लिए।

“कॉपी तो नहीं है।” धन्नू का सहज और बेबाक उत्तर बहनजी की त्योरियाँ चढ़ाने के लिए पर्याप्त होता।

“तो तुमने गृहकार्य किया ही नहीं, हर रोज़ तुम यही कहते हो।” उनकी आँखें आग बरसाने लगतीं। सब कुछ सुनते हुए बालक धन्नू शांत रहता, चुप खड़ा रहता। उसकी चुप्पी बहनजी को उकसाती, गुस्सा दिलाती और एक तरह से उनका सरेआम अपमान करती।

“बहुत ही ढीठ हो तुम, ऐसे नहीं सुधरोगे!”

एक ही जवाब पाकर परेशान हो गयी थीं वे, सुनता ही नहीं था वह लड़का। सारी कोशिशें असफल रहतीं तो बहनजी की छड़ी भी उठने लगती। धन्नू के हाथों की नर्म लकीरों पर एक के बाद एक तड़-तड़ मार पड़ती तो दर्द होता। बहुत दर्द होता। ऐसा दर्द जो अंदर छुपे उस कोमल मन को चोट पहुँचाता और एक आक्रोश पैदा करता, कण-कण इकट्ठा होता, अंदर एक लावा बनाता गुस्से का, आवेश का।

“छड़ी पड़े छम-छम, विद्या आवे घम-घम” एक जमाने में तरीका रहा होगा उद्दंड बच्चों को पढ़ाने का। यह तो धन्नू था, कहीं से कहीं तक उद्दंडता नहीं थी यह, गंभीरता थी। इतनी अधिक कि उस छड़ी के हाथों पर हमले से पहले ही लकीरों को रगड़ती चिंगारी बनने लगती, चट-चट करती सुलगने को तैयार। दोनों हाथों में एक-एक करके बहनजी के पड़ते डंडों के साथ एक आग हवा पकड़ लेती थी, किताबों को जलाती, स्याही को उड़ाती, लेकिन उनमें लिखे अक्षरों को दिमाग़ में बैठाती।

बालक धन्नू सोचता था – “क्या ज़रूरत है कागज़ ख़राब करने की। सब कुछ आता है, कहीं से भी पूछ लो।” कॉपी ख़रीदने के पैसे कहाँ थे उसके पास। घर में था क्या जो वह इस कॉपी-किताब के लिए पैसे जुटाता और पढ़ाई पर ध्यान दे पाता।

बहनजी के लिए – “कॉपी नहीं है” यह सुनना पर्याप्त नहीं था। नियम सबके लिए बराबर थे। सारे बच्चे घर से लिख कर लाते हैं कागज़ पर, धन्नू को भी घर से गृहकार्य करके लाना चाहिए। गृहकार्य घर से करके लाना ज़रूरी है। गृहकार्य दिया ही इसलिए जाता है।

बहन जी की आँखों में तैरता गुस्सा उनकी आज्ञा की अवहेलना की कहानी कहता। धन्नू का गुस्सा उसकी मजबूरी की कहानी कहता। यह कहानियों का टकराव क्रिया की प्रतिक्रिया को जन्म देता। वे एक दिन सहन करतीं, दो दिन सहन करतीं, आख़िर कब तक ऐसे चलता। धन्नू को डाँट पड़ती रहती, सज़ा बढ़ती रहती और क्रोध जमा होता रहता। यह क्रोध की जमावट जब गंभीर शिकायत बनकर माँ-बाबू तक जाती तब तक सब कुछ बदल जाता।

माँ की स्नेहिल नज़रें हक्का-बक्का होकर उसे देखने लगतीं मानों कह रही हों – “तू ऐसा तो कभी नहीं था बेटा, तुझे हुआ क्या है?”

धन्नू की आँखें भी जवाब देतीं – “मुझे सब कुछ आता है माँ, मैं लिखूँ तो कहाँ लिखूँ!” मगर माँ तक वह संदेश नहीं पहुँचता, जवाब पाकर भी जवाब नहीं मिलता उन्हें। माँ की ममता की आड़ में और कोई अगर-मगर नहीं आ पाता। उनके चेहरे पर उनका क्रोध अदृश्य नहीं रह पाता। उनका मौन बाबू तक अपनी बात पहुँचाता तब बाबू को भी गुस्सा आता। माँ की तरह मौन रहकर गुस्सा नहीं निकालते बाबू, उनका गुस्सा उनकी अपनी भाषा में बाहर आता। माँ-बाबू दोनों अपने बच्चे के साथ एक ही भाषा तो बोलते थे मगर दोनों के बोलने के तरीके अलग-अलग होते और दोनों के संदेश धन्नू के मन के भीतर तक भी अलग-अलग तरीके से ही पहुँचते।

धन्नू का मौन और माँ का मौन दोनों मिलकर बाबू को एक नयी भाषा सिखा देते थे। उनकी अपनी भाषा जो उनकी जबान नहीं बोलती मगर उनकी बेंत ज़रूर बोलती। बाबू की बेंत चलने लग जाती तो उसे रोकना कठिन हो जाता। धन्नू माँ-बाबू में से किसी को भी यह समझा नहीं पाता कि उसे कक्षा के सब बच्चों से ज़्यादा आता है। यह बात न समझा पाने के कारण भी उसे ख़ुद पर बहुत गुस्सा आता। वह कैसे कहे माँ-बाबू से कि उसने कॉपी नहीं ख़रीदी है इसलिए लिख नहीं पाता है वह, कॉपी इसलिए नहीं ख़रीदी है क्योंकि उसके पास पैसे नहीं हैं, कॉपी के पैसे माँ-बाबू से माँगे कैसे जबकि वह जानता है कि उसके लिए किसी न किसी को भूखा रहना पड़ेगा।

अपने सवालों के लिए उनके जवाबों का सच धन्नू को भीतर ही भीतर उलझाए रखता। वह जानता था कि अगर किसी को भूखा रहना पड़ा तो वह माँ ही होंगी क्योंकि बाबू को तो वह पहले ही खिला देती है। अपनी कॉपी के लिए माँ को भूखा रहते नहीं देख सकता है वह इसीलिए सबकी डाँट सुन लेता है, सबकी मार खा लेता है।

जब तक वह कारण न बताए बहन जी को, माँ-बाबू को भी न बताए तब तक किसी को पता भी कैसे चले कि वह क्यों गृहकार्य नहीं कर पा रहा है। धन्नू का मौन सबके लिए उसकी ग़लती मानने को मज़बूर करता। सबको लगता कि बच्चा अड़ियल होता जा रहा है। उसे किसी की परवाह नहीं है। उसे ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता न पढ़ने के लिए। यूँ बहन जी का गुस्सा, माँ का गुस्सा, बाबू का गुस्सा और धन्नू का गुस्सा सब मिलकर अपनी-अपनी आग में झुलसते रहते और वह आग एक ज्वालामुखी को जन्म देकर उसे दिन-ब-दिन अधिक जलाती, एक भयानक रूप देते हुए विस्फोट की प्रतीक्षा में।

गाँव की शाला में न जाकर दूर के सेंट टैरेसा अंग्रेज़ी स्कूल में भर्ती था वह। सब बच्चे चकाचक नयी यूनिफार्म पहन कर आते थे वहाँ। यूनिफार्म तो धन्नू भी पहनता था पर दो साल पुरानी गली हुई जो अब बहुत छोटी हो गयी थी। अपने घर से स्कूल तक पहुँचने की दूरी पाटने में की गयी मशक्कत इस क़दर थका देती कि वह गुमसुम हो जाता। दो किलोमीटर चल कर आने में कई सवाल वैसे ही दिमाग़ में रहते। एक-दूसरे से उलझते-टकराते ये सवाल धन्नू को परेशान करते - “मैं ही इतनी दूर क्यों जाऊँ पढ़ने!”

“गाँव के सारे बच्चे तो गाँव की शाला में पढ़ने जाते हैं!”

“माँ-बाबू का कितना ख़र्चा होता है इस स्कूल में!”

“अब तो उनके पास पैसे हैं ही नहीं, काम ही नहीं मिल रहा है तो पैसे आएँगे कहाँ से!”

“स्कूल वह डाँट खाने के लिए जाता है, पढ़ने के लिए नहीं।”

माँ-बाबू को तो धन्नू ने बताया तक नहीं कि स्कूल में उसके साथ क्या हो रहा है। बताए भी कैसे। घर की हालत बहुत ख़राब है इन दिनों। दोनों समय खाना भी नहीं मिल पाता है, कॉपी-पेंसिल कहाँ से लाकर देंगे। यह बात बहनजी को बता कर धन्नू उनके लिए ‘बेचारा’ नहीं बनना चाहता था। सख्त नफ़रत थी उसे इस बेचारेपन से। अगर वह कहता तो बहनजी दया दिखाकर कॉपी-पेंसिल तो ला कर दे देतीं मगर इस उपकार के लिए उसे रोज़ जो सुनना पड़ता उससे उसके अहं को चोट पहुँचती, एक और गुस्से की परत जमती।

थकान के मारे कहो या खीज के मारे, इन सवालों में उलझता धन्नू न घर का था न घाट का, न इस स्कूल का न उस स्कूल का। उसके सारे हम-उम्र तो वहीं थे, गाँव की शाला में, जो बरगद के पेड़ के नीचे लगती थी। वहाँ कोई फीस नहीं देनी पड़ती थी। सारा काम स्लेट पर ही हो जाता था। ज़रा-सी दूर चलो और स्कूल पहुँच जाओ। वही एक था जो बस चलता ही रहता था स्कूल पहुँचने के लिए। दो मील पैदल चलकर रोज़ स्कूल पहुँचना उस छोटे से बच्चे के साथ बड़ा अन्याय था।

रास्ते में कई धूल उड़ाते ट्रक निकलते, कई गाड़ियाँ निकलतीं वह उन्हें देखता रहता और कंधे का खाली बस्ता लिए आगे बढ़ता रहता। उस दिन को रोज़ ही कोसता जब वे नेताजी उसके घर आकर अपनी दरियादिली बरसा कर गए थे। वह ऐसी ही एक गरम दोपहर थी जब चुनाव के बाद विजय यात्रा निकल रही थी। कई लोग माथे पर कुंकुम-गुलाल लगाए, गाड़ियों में ठसाठस भरे, नाचते-गाते-झूमते हुए नेताजी की जय-जयकार कर रहे थे। उनके आक़ा बड़ी-सी गाड़ी में हाथ जोड़ कर खड़े, सिर हिला-हिला कर सबका अभिवादन कर रहे थे।

अपनी जीत के बाद बहुत जोश में थे नेताजी और उनके कार्यकर्ता। दिल्ली जाने से पहले पास से गुज़रते हुए आसपास के क्षेत्रों का दौरा किया उन्होंने। यह दौरा ख़ास तौर से अपने मतदाताओं को धन्यवाद देने के लिए था। गाँव के लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए और उन समस्याओं के तुरंत निराकरण के लिए सारा ताम-झाम साथ था। जगह-जगह गाड़ियाँ रुकतीं, कार्यकर्ता जन-जन तक संदेश देते – “अभी समस्या बताओ, अभी दिल्ली भेजेंगे और अभी के अभी समाधान हो जाएगा।”

“हम तो तुरंत काम करते हैं अगर आपकी किस्मत हुई तो दिल्ली जागेगी और आपका काम हो जाएगा ऐसे – टन-टना-टन।”

“अगर नहीं भी हुआ तो हमने तो पूरी कोशिश की, यह तो दिल्ली वालों का काम ढीला है किन्तु चिन्ता न करें आपकी फरियाद तो वहाँ पहुँच ही गयी है। आज नहीं तो कल सुनवाई तो हो ही जाएगी। आप हमारी इस बात पर भरोसा रखें। आपको यही विश्वास दिलाने के लिए तो आए हैं हम यहाँ।”

नेताजी का गाँव में आना वाजिब था। चुनाव जीतकर सांसद बन गए थे। एक बार जो दिल्ली के लिए निकल गए तो फिर तो ‘दिल्ली दूर है’, बहुत दूर। ख़ास तौर से अपने चुनावी क्षेत्र से तो दिल्ली दूर हो ही जाती है। करें भी क्या, दिल्ली है ही इतनी बड़ी कि वहाँ पर रहते हुए बाहर वालों की आवाज़ सुनाई नहीं देती। शायद इसीलिए अपने क्षेत्र के लोगों का अपने ऊपर भरोसा बनाए रखने के लिए सबसे मिलकर जाना उचित था। यह सब दिल्ली पहुँचने के पहले कर लेना ज़रूरी होता था। खाना और सोना सब कुछ अपने क्षेत्र के लोगों के साथ करते हुए आसपास के ग्रामीण इलाकों में रुकना था। पार्टी हाई कमान के पास इस दौरे की विस्तृत रिपोर्ट पहुँचाने के लिए महकमे के कम्यूटर-प्रिंटर सब साथ चल रहे थे। हर घंटे की तुरत-फुरत फाइल बनती और दिल्ली भेज दी जाती।

धन्नू का गाँव तो उन्होंने गोद लिया था।

इस ख़ास दौरे के समय वे धन्नू के गाँव रुके थे। बहुत धैर्य के साथ सबकी शिकायतें सुनते और अपने किए गए प्रयासों की चर्चा करते। गाँव वाले सुनते, सुनने के अलावा करते भी क्या। जबान तो इतने बड़े आदमी के घर में क़दम रखते ही बंध जाती थी, घर आए मेहमान का लिहाज़ जो रखती। नेताजी ने धन्नू को देखा तो उसे पास बुलाकर बात करने लगे। लड़के के चंट जवाब से हैरान हुए तो उसकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने धन्नू से कुछ सवाल पूछे, गणित के, विज्ञान के भी। आठ साल के धन्नू से उनके जवाब सही और सटीक मिलने पर उसकी बहुत हौसला अफ़जाई की।

“अरे वाह धन्नू, तुम तो बहुत होशियार हो। स्कूल जाते हो?”

“हाँ, जाता हूँ।” सपाट आवाज़ थी।

“ख़ूब पढ़ते हो?”

“ज़्यादा नहीं, पकड़मपाटी ज़्यादा खेलता हूँ और आ जाता हूँ।”

“पर तुमको तो बहुत कुछ आता है!”

“हाँ पिछली बार जो मास्टरनी बाई आयी थीं उन्होंने सिखाया था।”

“अच्छा अभी मास्टरनी बाई चली गयीं तो कौन आया उनकी जगह?”

“मास्टरजी आए हैं।”

“मास्टरजी पढ़ाते नहीं तो क्या करते हैं?”

“पेड़ के नीचे ठंडी हवा में सो जाते हैं।”

“वहाँ कुछ खाने को मिलता है?”

“नहीं, कुछ नहीं मिलता।”

उन्होंने धन्नू को बेझिझक बात करते देखकर, उसका उत्साह देखकर, उसे गाँव से दो किलोमीटर दूर के अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने की सलाह दी थी। स्कूल को ख़ास निर्देश दिए गए थे कि धन्नू से फीस न ली जाए, इसे पढ़ाने का ज़िम्मा नेताजी का होगा। उसकी किताबें, कॉपी, पेंसिल सब कुछ वे ही देंगे। धन्नू के गाँव को तो गोद लिया ही था अब धन्नू को भी गोद ले रहे थे।

*****