Darmiyana - 8 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 8

Featured Books
Categories
Share

दरमियाना - 8

दरमियाना

भाग - ८

मैंने हाथ पकड़ कर उसे उठाया और अपने पास सोफे पर बैठा लिया । धीरे-से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर कंधे को थपथपा दिया । उसने अपनी डबडबाई पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा था । वही-गहरी, बड़ी, झील-सी आँखे और उसी तरह भरी हुई । किन्तु इस बार उसने मेरे स्पर्श को दूसरे ही अर्थों में स्वीकार किया था । मैं और मधुर जब रूठ जाते, तो इसी तरह मैं उसके कंधे को सहला देता । मैं अक्सर कहा करता कि स्पर्श एक बहुत अच्छी थेरेपी है... एक बहुत अच्छा उपचार ।

उसने मुझे हग किया था – निःसंकोच और साधिकार । मैंने भी उसे उसी प्रकार सहेज लिया था । उसके बालों को सहला कर, कंधों को थपथपाया, तो जैसे कुछ रुका हुआ छूट गया था । वह फफक उठी थी । ठीक महिलाओं की तरह, क्योंकि पुरुष शायद इस तरह नहीं रो पाते –पुरुष होते हैं न ! संध्या का रुदन भी स्त्रीयोचित था । मैंने उसे सांत्वना दी थी... और शायद एक विश्वास भी, जो उस समय तो अनकहा ही था ।

संध्या ने खुद को सम्भाला और कहने लगी, "भैया, मेरी देह स्त्री की है... मेरा मतलब मैं आत्मा से स्त्री हूँ... और हूँ एक ऐसे शरीर में -- मुझे कुछ समझ नहीं आता, मैं क्या करुँ । आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं, मैं नहीं जानती, मगर मैं सच कह रही हूँ –मैं औरत हूँ..." इस बार वह और भी फूटकर रो पड़ी थी । उसके रुदन को लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं है –- यानी मर्दाने जिस्म में छटपटाता एक जनाना मन । पर यह कहना तो एक साधारण-सी बात है –- किन्तु एक विपरीत शरीर में जीना और बात !

मैं तो सोच कर ही सिहर उठा था । मैं पत्नी और बच्चों के साथ एक सामान्य जीवन जी रहा था । इसलिए एक ऐसे शरीर में छटपटाती हुई उस आत्मा को शायद पूरा-पूरा महसूस नहीं कर पा रहा था, जो एक ऐसे शरीर में प्रवेश कर गई थी, जो शरीर उसका था ही नहीं । तब एक बार तारा माँ और रेशमा का स्मरण भी आया था । इतने तमाम वर्ष उनके साथ बिता देने पर भी – यह विचार मेरे मन में क्यों नहीं आया था । मैं अभी तक उन्हें अपने से भिन्न समझता था –बस ।

उस दिन मैंने संध्या को आश्वासन दिया था -‘तुम चिंता नहीं करो, कुछ करते हैं...’ मगर क्या करेंगे यह मुझे भी नहीं पता था । फिर भी मेरे सामान्य व्यवहार और मेरी आत्मीयता ने उसे सहज कर दिया था ।

"चलो, अब आँसू पोंछो -– लो, पानी पियो ।" मैंने गिलास उसकी ओर बढ़ाया । उसने पानी पिया और फिर अपने ब्लाउज से कुछ रुपये निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिये ।

मैंने उसे आश्चर्य से देखा, तो वह खिलखिला उठी, "आपसे उधार लिए थे न... ये रख लो... " फिर शरारत से मुस्करई, "मैं राहुल से मिलने गई थी । तब नहीं थे – बाद में बधाई गाने गई, तो आपके लिए रख लिये थे ।... "

"अच्छा, तुम रहने दो । भैया कहती हो न, इसलिए रहने दो ।" मैंने फिर उसके गालों और बालों को सहलाया, "आज से, मैं हमेशा तुम्हारा बड़ा भाई हूँ ।... कोई भी बात हो, मुझसे बेझिझक कहना ।... मैं देखता हूँ -– तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ ।... "

उसने फिर मुझे हग किया और एक चूंटी काटी, "थैंक्यू ! अब चलती हूँ ।..." वह घर से तो उस दिन चली गई, मगर दिमाग से नहीं गई । मेरा पूछा गया सवाल भी वहीं का वहीं रह गया था –- औऱ अब शायद उसके जवाब की जरूरत भी नहीं थी । मैं लगभग समझने लगा था कि राहुल कौन था !... और यह भी कि संध्या उसे कैसे जानती है ?

***

फिर वक्त कुछ उसी तरह से निकल गया – जैसे आदतन चला जाता है । इस बीच वह आ नहीं पाई और मुझे समय नहीं मिल पाया कि मैं इस विषय में कुछ जानकारी जमा कर पाता । तभी एक दिन उसका फोन आया, "भैया, माँ आईं हैं... आपसे मिलना चाहती हैं ।..." मतलब कि उसने मेरे बारे में उन्हें कुछ बताया होगा ।

"ठीक है, संडे को आऊँगा... छुट्टी रहेगी ।" मिलना तो मैं भी चाह रहा था । शायद उसे और बेहतर जान सकूँ । इसलिए कह दिया था । फोन पर ही उसका पता भी ले लिया था ।

जब पहुँचा तो यह बलजीत नगर में एक दुमंजिला मकान था । नीचे शायद कोई दुकान थी, जो किराये पर दे दी गई थी । ऊपर दो कमरे वाला एक सेट था । मैं पूछता हुआ पहुँच ही गया था । मन में बहुत सारे सवाल थे । बाद में पता चला कि संध्या के पिता की मौत के बाद यह मकान उसी के लिए खरीदा गया था –- यानी संजय के लिए, क्योंकि वह आगरा के बजाय, यहीं दिल्ली में रहना चाहता था –- अपनी पढ़ाई की वजह से । मगर यह तो उसका बहाना था । दरअसल, वह अपनी इस दोहरी जिन्दगी को अपनी तरह से जीना चाहता था।

मैं पहुँचा, तो दरवाजा एक 20-22 साल की लड़की ने खोला था । इससे पहले कि मैं पूछता –- संध्या... या संजय... वह मुझे नमस्ते कर मुड़ी और वापस लौट गई । सामने मैंने देखा था –- बालों की सफेदी और झुर्रियों के बीच एक थका-सा चेहरा । यकीनन माँ ही होंगी । मैं भीतर आया, तो वे कहने लगीं, "आशु... इधर आ बेटा –- मेरे पास !" मैंने पाँव छूने का प्रयास किया, मगर उन्होंने रोक दिया और अपने पास बैठाया !... मेरी पीठ, मेरे सिर पर हाथ फेरा और ढेर-सारी दुआएँ दे डालीं । शायद उसी ने मेरे बारे में कुछ बताया हो !

माँ ऐसी ही होती है –- किसी की भी हो ।... कैसी विडम्बना है न ! कभी सोचता हूँ –- ईश्वर ने भी क्या बनाया है माँ को ! लगता है, क्योंकि हम सबके जीवन में वह स्वयं उपस्थित नहीं हो पाता, इसलिए अपनी जगह वह माँ को भेज देता है –- और माँ का न रहना, ईश्वर के रुष्ट हो जाने जैसा लगता है ।... जैसा मुझे लगता है ।... वह भी ऐसी ही तो थीं ।

वह युवती पानी ले आई थी । तभी माँ ने मिलवाया, "बेटा, ये तेरी बहन है -–संध्या !"

‘संध्या..... ’ मैं बुरी तरह चकरा गया था । यह नाम तो उसने अपना बताया था । जाहिर है, अब यहाँ तो मेरे तहत वह संजय ही रहेगा –- क्योंकि इस संध्या ने भी मुझे भैया कह कर पानी दिया था ।

"ये सचिन है,... सबसे छोटा !" उस युवक ने भी मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया था । मैं समझ गया था कि यह छोटा भाई है । अभी तक मैं सभी बिखरे हुए संदर्भों को समेटने का प्रयास कर रहा था ।

‘संध्या !’ संजय ने इसी का जिक्र किया था -– जिसके साथ खेलना, जिसके कपड़े पहनना उसे अच्छा लगता था । मैंने एक निगाह संध्या पर डाली, वह मुझे एक संभ्रांत, सुशील और समझदार लड़की लगी ।

‘सचिन!’ किशोर उम्र की दहलीज लाँघ कर आगे बढ़ रहा एक युवक... जो शायद इन दो ‘संध्याओं’ के बीच नहीं जीना चाहता था। इस तिलिस्म को समझता तो नहीं था, मगर भाई और बहन के अर्थों को गड्डमड्ड होने देना भी नहीं चाहता था । बहन तो बहन थी ही, वह भाई को भी ‘भाई’ देखना चाहता था –- जो वह था ही नहीं ! इस ‘न’ होने का अहसास शायद सचिन को भी था, हालाँकि वह कुछ जानता नहीं था ।

मगर संजय ने अपना नाम ‘संध्या’ ही क्यों बताया था –- यह मैं अभी तक सोच रहा था । वह कुछ और भी बता सकता था । यदि ‘स’ से ही बताना होता, तो सैंकड़ों नाम हैं, मगर फिर ‘संध्या’ ही क्यों ? उसने बताया था कि वह अपनी बहन से बहुत प्यार करता है... शायद इसीलिए... और शायद आगरा से दिल्ली चले आने के बाद –- तब उसने अपना नाम ‘संध्या’ ही रखा हो !

फिर बहुत देर तक उन सभी से बात होती रही । संजय घर नहीं था, इसलिए अतिरिक्त सुविधा थी । मुझे भी... और शायद उन्हें भी । माँ, संध्या और सचिन ने मुझे बहुत कुछ बताया था । उसके बचपन से जुड़ी बहुत-सी जानकारियाँ माँ ने दी थीं । युवा हो रहे सहचर –- अपने भाई के बारे में काफी जानकारियाँ मुझे संध्या ने दी थीं । सचिन सबसे छोटा था... और शायद इस विषय में ज्यादा बात करना नहीं चाह रहा था, इसलिए कम बोल रहा था । बस उसने इतना ही कहा था, "भैया, मुझे संजय भैया अपने जैसा कभी नहीं लगा । मेरे दोस्त भैया को लेकर मुझे छेड़ते हैं, तो बर्दाश्त नहीं होता –- पर मैं भाई का करूँ क्या ? वह किसी की बात नहीं मानते।... कभी नहीं मानीं।" सचिन की आँखें भर आई थीं । मैंने माँ को देखा था –- एक रुआँसा-सा दर्द भरा चेहरा –- बूढ़ी, धकी आँखों में एक उम्मीद की तलाश !

****