दरमियाना
भाग - ३
कहने को कहा जा सकता है कि विष भी वहीं वास करता है, जहां विश्वास होता है... और जब धीरे-धीरे सारा विश्वास ही विषाक्त हो जाता है, तब जैसे अचानक बहुत परिचित-से चेहरे भी नीले पड़ने लगते हैं...गंदला जाते हैं। बहुत देर के बाद हम जान पाते हैं कि परिचय था ही कहाँ ? क्योंकि पहचानना एक बात है, जानना दूसरी बात!
कोई महीने-भर बाद साथी लोगों का मूड़ बना कि शराब पी जाए, मगर पैसे किसी के भी पास नहीं थे। बहुत सोचने पर भी जब कुछ नहीं सूझा, तो एक साथी ने सुझाया कि क्यों न तारा से माँग लिए जाएँ ! और आशु के माँगने पर वह मना भी नहीं करेगी। मैंने अपने सर को ओखली में जाते देखा तो आनाकानी करने लगा, "नहीं यार ! साली उसी दिन इतनी गालियाँ बक रही थी। अबकी अगर पता लग गया, तो मेरे घर पहुँच जाएगी और बेटा! वो है भी बड़ी जालिम चीज। कहीं साली ने जलवा दिखा दिया तो... नहीं यार ! तुम तो मेरे बाप को जानते हो।"
"अबे छोड़ न ! कुछ नहीं होगा... एक घूंट शिव शंकर के नाम की लगा लेंगे।" साथी ने धैर्य बँधाया।
"पर यार ! अब तो वैसे भी शाम होने वाली है। फिर उसका घर कौन-सा यहीं रखा है ? साली बसी भी तो जमना पार है।" मैंने बचने की कोशिश की, मगर फिर यही तय हुआ कि पैसे आज ले आये जायें, दारू कल पी जाएगी।... तारा का, भीगी आंखों वाला चेहरा, एक बार मेरे सामने आया, किन्तु मैंने उसे वैसे ही धकेल दिया, जैसे तारा ने उस बार मुझे धकेला था।
***
तारा का घर तलाशने में मुझे अधिक कठिनाई नहीं हुई। मुझसे कई बार आने का वायदा लेकर, वह अपने घर तक पहुँचने का रास्ता समझा चुकी थी। गली में घुसते ही मैं बीस कदम चला और दायें मुड़ गया। पनवाड़ी की दूकान पर पहुँचकर पूछना पड़ा था, "सुनिए ! यहाँ तारा कहां रहती है ?"
"कौन ? सितारा बेगम ?"उसने बनारसी पत्ते पर चूना लगाते हुए पूछा।
"हाँ वो जो..." मैं उसकी पहचान नहीं बतला पाया।
"कौन सगन लाये हो का भैया?"
"हँ... हाँ..."मैंने हामी भर दी।
"तो ई लैऊ भैया!... ई बनरसिया का जोड़ा भी लेत जाओ, सितारा बेगम तोहार बलैयाँ लेंगी।" पनवाड़ी ने बनारसी पत्तों का जोड़ा बाँथकर मुझे पकड़ाया, पैसे लिए और समझाने लगा, "ऊ जौन पीली भीत की मज्जिद देखत हो न!... बस, सामने की तीसरी हवेली समझो।"
मुझे अपने घर का दरवाजा, तारा की हवेली के फाटक के सामने बहुत छोटा लग रहा था। इसलिए डरते--डरते मैंने दस्तक दी और अपने आने की सूचना अन्दर भेज दी। फाटक खुला तो सामने रेशमा खड़ी थी। जैसी खड़ी थी, वैसी ही खड़ी रह गई। फिर एकाएक उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था, "हाय अल्ला ! ये मैं क्या देख रहीं हूँ ? आज मेरे गरीबखाने पर, साजन आये हैं ?" मुझे छोड़ा और तारा को पुकार लिया, "अरी ओ मुँहजली !... देख तो, कौन आये हैं ?"
तारा आई और मुझे देखते ही खिल उठी, "अरे मेरे देवर जी ! आज कैसे अपनी भाभी की याद हो आई ?...मैं तो समझी थी, तुम तब आओगे, जब मैं इस दुनिया से लौट रही हूँगी।" मैंने देखा—तारा कुछ बदली-बदली-सी लग रही थी।... साटन की सफेद सलबार पर, वैसा ही दूधिया कुर्ता... बाल करीने से बँधे हूए, हाथों में चूड़ियाँ... माथे पर सुर्ख बिन्दी और होंठ--बनारसी पत्तों के रंग में रंगे हुए, रेशमी गुलाब से।... मैंने पनबाड़ी का दिया जोड़ा आगे बढ़ा दिया।
तारा अपलक मुझे देखती रही--उसकी आँखें, ठहरे-शांत जल की तरह मौन थीं... और किसी जलाशय की तरह भरी हुई भी ! उसके होंठ, जुबान खोकर गूँगे हो चुके थे, किन्तु उनमें कम्पन था! फिर जैसे अचानक उस कम्पन को स्वर मिल गया हो, "आशु !..."तारा ने पहली बार, मुझे मेरे सही नाम से पुकारा था।
"हाँ!..." मेरे स्वर ने, ठहरे-शांत जल में, पत्थर फेंककर लहरें उठा दीं। तारा मुखर हो उठी थी, "अरे ! मैं भी कितनी बद्जात हूँ।... अपने देवरिया को बैढने को भी नही पूछा। "वह मुझे साथ लेकर एक बड़े से कमरे में आ गई थी। शर्बत और फलों की प्लेट मेरे सामने रखकर कहने लगी, "देवर जी! मेरी नमाज का टैम हो रहा है, अगर इजाजत हो तो मैं जरा खुदा से मिल आऊँ... फिर आकर तूमसे मिलती हूँ।" उसने शरारत से मुस्काते हुए कहा था, "कहो तो रेशमा को भेज दूँ।..."
"नहीं-नहीं मैं ठीक हूँ... तुम करो, क्या करना है।" मैं हड़बड़ा उठा था ,यह देख कर वह जोर से खिलखिलाई।
तारा ने बरामदे के नल पर वजू किया, दरी बिछाई, नमाज की चादर ऊपर से ली और नीत बाँधकर खड़ी हो गई। उसके होंठ धीमे-धीमे-से कल्मा बुदबुदाने लगे थे, "दो रकात नमाज सुन्नत रसूल द वक्त नमाज फजर बन्दगी खुदा दी मुँह तरफ काबे शरीफ दे।" (या कुछ इसी तरह)। फिर उसने, "अल्ला हो अकबर !" पुकारा और दोनों हाथ कानों के पास तक ले आई थी। उसके हाथों के हिलते ही मुझे लगा था--मेरे कानों के आस--पास, सैकड़ों हथेलियों के मध्यभाग, बहुत जोर--जोर से टकरा रहे हैं।... उसका बोला गया संवाद भी, आरोह-अवरोह की प्रतिबद्धता से दूर, शास्त्रीय गायन की वर्जनाओं से मुक्त अनुभव हुआ था।
***
इसके बाद... तारा जब भी हमारी बस्ती में आई, मैं उससे बचकर भागता रहा था। चमन चाय वाले की दूकान के सामने से निकलना भी मैंने बन्द कर दिया था। साथियों में से भी जब कोई तारा की बात छेड़ देता, तो मैं असहज हो उठता था। इसमें, उसके प्रति वितृष्णा की अपेक्षा, आत्म-ग्लानि या अपराध-बोध ही अधिक था।... मैं सोच रहा था-- किसी तरह, इस बार वह क्षमा कर दे। भविष्य साक्षी होगा, मैं फिर कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा। स्वीकार कर लूँगा कि मैं जो पैसे दाखिले के लिए लाया था, मैंने उनका दुरूपयोग किया है। किन्तु तारा के सामने पड़ने का साहस भला किसमें था!
एक बार पहले भी... जब मैं माँ के रूमाल से पैसे खोलकर ले गया था, तब गई रात तक घर नहीं लौट सका था। मैं तब भी यही सोचता रहा था-- माँ इस बार क्षमा कर दे, फिर कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा।
किन्तु जैसा पिछली बार हुआ था, वैसा ही कुछ इस बार भी हुआ। लाख बचने पर भी, मैं एक दिन तारा के सामने पड़ ही गया। फिर तो भविष्य— जिसका अपना ही कोर्इ साक्ष्य नहीं होता, वह मेरे अपराध-बोध का साक्षी कैसे हो सकता था ? शायद तारा ने भी मेरे भविष्य का साक्ष्य स्वीकार नहीं किया। मुझे देखते ही वह ठिठक कर खड़ी हो गई थी। रेशमा ने मुझे देखा तो गालियाँ बकने लगी। वह जितनी जोर से हथेलियाँ टकरा रही थी, उससे कहीं अधिक ऊँचे स्वर में चीख भी रही थी, "हरामजादे! तू आदमी का नहीं, साँप का बच्चा है। तूने एक दुखिया की रूह को सताया है... खुदा करे, तुझे कफ्फन भी नसीब न हो! अगर अब भी गैरत..." रेशमा मेरी ओर बढ़ी, तो तारा ने उसे रोक लिया। किन्तु रेशमा अब भी देर तक बड़बड़ा रही थी।
और तारा !
तारा अपलक मुझे देखती रही--उसकी आँखें, खौलते हुए ज्वालामुखी की तरह लावाउगल रही थीं, जिसके साथ एक भयंकर शोर भी था, जिसे न सुनने के बावजूद मैं समझ पा रहा था। जबकि उसके होंठ, दाँतों के नीचे बुरी तरह दबे हुए थे। फिर भी उनमें कम्पन था, जो उस दिन कि तरह का नहीं था। इस बार, उसके कम्पन को स्वर नहीं मिल सका।... तारा घृणा-से मेरे अस्तित्व को नकार कर, आगे बढ़ गई थी।
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