Virus in Hindi Moral Stories by अमरदीप कुमार books and stories PDF | वायरस

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वायरस

वायरस

घाट की सीढ़ियों से गंगा के किनारे की ओर जा रहा था।आज भीखमंगे बहुत कम संख्या में कार्यरत थे।वहाँ उपस्थित भीखमंगों के चेहरे पर की अनगिनत आँखे बहुत चिंतित लग रही थी।हमने बात करने की कोशिश की।"आज आपके साथी कहाँ गए हैं?कोने पर बैठे दादा जी नहीं दिख रहे हैं!और उनके बगल में बैठी छोटी लड़की भी नहीं दिख रही है!वो जिसके पाँव कटे हुए हैं और वो घिसट-घिसट के चलता है,वह भी नहीं दिख रहा है?"जितने लोग स्मृतियों में थे पर यहाँ साक्षात नहीं दिखे तो उनके बारे में पूछना लाज़मी था।जिससे पूछ रहा था उसके दो-तीन साथी और पास खिसक गई थे।उनमें बताने की होड़ लगी थी।एक ने बताया कि "उ सबन लोग गइने ह हास्पिटल।सबके कोरना वायरस हो गइल।"हमने पूछा कि कौन बताया कि उनको वायरस हुआ है?इतने में दूसरे साथी ने कहना शुरू किया।"अरे,भैया नाही जानत हउआ का?उनकरे के खाँसी आबत रहली तीन-चार बरिस से।कबो-कबो तो बोखार भी रहल उनके।पिछले बरस त उ लँगड़ा इहे वाला बेमारी से मर गइल रहल।"
बात करते हुए उनके और भी साथी मेरे पास आ गए।उनके कपड़े की बू हमारे नाकों तक निर्विघ्न रूप से हमारे पास आ रही थी।उनके बाल उलझे हुए थे।कानों की पट्टियों में मैल चिपके हुए थे।सभी के दाँत काले पड़ गए थे।बोलते थे तो अजीब तरह की बू आ रही थी।।ख़ैर,बातचीत शुरू हुई थी तो कहीं अंत करना भी तो था।हमने फिर पूछा-"इतने सारे लोगों को हॉस्पिटल कौन ले गया?किस हॉस्पिटल में गए हैं सब?"भइया!ई बात तो हमके नाही पता।हम देर से अइली।बाकी रुक जा,अब उ लोगन आईं तबे पता चली।बाकी कोरना वायरस होला बहुत खतरनाक!"इतना कह कर सब लोग अपनी-अपनी जगह ले लिए।मैं भी अपने आवास की ओर चल दिया।
कमरे में बैठे-बैठे कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा था।इतने में याद आया कि किसी मित्र से बात करनी थी।कॉल लगते ही कॉलर ट्यून बजा।खों-खों...और तमाम सावधानियाँ।फूल रिंग होने के बावजूद भी जवाब न आया।हमने भी सोचा,चलो कहीं व्यस्त होंगे।जब खाली होंगे खुद ही कॉल वापस कर लेंगे।अभी तक लेख की चार पंक्तियाँ ही पढ़ पाया था कि मन उचट गया।लगा जैसे बहुत आदर्शवादी बातें लिखी हुई है।मन फिर से घाट के अभागे वासियों की तरफ हो लिया।घड़ी देखी।तीन बजे थे।सोचा चार बजे फिर घाट जाऊँगा।पर,लेख पढ़ने में मन नहीं लग पाया।न गाने सुनने का मन हुआ।साढ़े तीन बजे तक कमरे से निकल गया।
चार बजे तक घाट की सीढ़ियों पर उतर रहा था।पर,इस बार गंगा के एकदम किनारे जाना उद्देश्य नहीं था।बीच में ही रुककर सबको देखा।कोने वाले बुजुर्ग लौट आये थे।उनके अगल-बगल के लगभग सभी लौट आये थे।घाट का वो अनिवार्य हिस्सा फिर से भरा-पूरा था।हालाँकि,इस हिस्से का भरा-पूरा होना देश की लगभग सबसे बड़ी विडंबना है।सुनता हूँ कि देश में क़रीब दो करोड़ से ज्यादा भीखमंगे वास करते हैं।इनमें से अधिकांश का कोई सगा नहीं है।किसी के पास कोई घर भी नहीं है।कोई पहचान-पत्र भी नहीं।बस भीखमंगा होना ही उनकी पहचान है।
कोने वाले बुजुर्ग के पास गया।उनको मैं लगभग सात-आठ सालों से वहीं बैठा देखता आया हूँ।उनसे पूछा-"दादा!दिनमा में कहाँ गइल रहला?का हो गइल?तबीयत-पानी ठीक ठाक है न?"उन्होंने देखते ही पहचान लिया।हमेशा की तरह मुस्कान लिए हुए मिले।"अरे बच्ची!उ खाँसी रहल हमके।सुनली ह कि कौन तो वायरस फैल गइल ह।खाँसी ओकर लछन ह।इहे ख़ातिर,हास्पिटल गइल रहली।"इतना बोल के थोड़े निराश हो गए।तब का कहले डॉक्टर?"अरे बच्ची!डागटर मिली तब न!छोट गो हास्पिटल और ओकरो में डाक्टर नाहीं रहल।दुइ घन्टा रुकली,फिर आ गइली।भीख न माँगब तब खाई का?"हमने उनको दस रुपये का एक नोट दिया और धीरे-धीरे निराश मन से कमरे की ओर लौट गया।
रास्ते भर सोचते आया।भारत जैसे देश में भूखमरी से ज्यादा ख़तरनाक वायरस कुछ भी नहीं।पेट में अनाज नहीं और चले जागरूकता फैलाने।