Rai Sahab ki chouthi beti - 18 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 18

Featured Books
  • Venom Mafiya - 5

    अब आगेराघव मल्होत्रा का विला उधर राघव अपने आदमियों के साथ बै...

  • रहस्यमय हवेली

    रहस्यमयी हवेलीगांव के बाहरी छोर पर एक पुरानी हवेली स्थित थी।...

  • किट्टी पार्टी

    "सुनो, तुम आज खाना जल्दी खा लेना, आज घर में किट्टी पार्टी है...

  • Thursty Crow

     यह एक गर्म गर्मी का दिन था। एक प्यासा कौआ पानी की तलाश में...

  • राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा - 14

    उसी समय विभीषण दरबार मे चले आये"यह दूत है।औऱ दूत की हत्या नि...

Categories
Share

राय साहब की चौथी बेटी - 18

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

18

बस, ये और बाकी था।

अब अम्मा को कभी - कभी ये भी ध्यान नहीं रहता था कि वो बहुत देर से शौचघर नहीं गई हैं और उनके कपड़ों से बदबू उठ रही है।

ये उनके सत्तर वर्षीय पुत्र के लिए एक बेहद कठिन परीक्षा की घड़ी थी।

यद्यपि ये काया वही है जिसमें बनकर हम जगत में आए हैं, लेकिन इन रास्तों और पड़ावों पर कभी वापस नहीं लौटा जाता।

लेकिन बेटे को ये संतान धर्म भी निभाना पड़ा कि अम्मा को गोद में उठा कर शौचघर या स्नानघर में लेकर जाए, और साफ़ - सुथरा बना कर वापस बाहर लाए।

आख़िर एक दिन अम्मा के तीनों पुत्रों ने ये निर्णय लिया कि इस समस्या का हल तो निकाला जाना बेहद ज़रूरी है।

कुछ अनुभवी लोग राय देते कि अम्मा को अब किसी बहू या बेटी की ही सघन देखभाल में रखा जाना चाहिए किन्तु व्यावहारिक समस्या ये थी कि अम्मा ने किसी बहू को मन से भी कभी इतना पास नहीं आने दिया कि वो अब तन से उनके पास आने के लिए अपने को तैयार कर सके।

बहुओं ने इस सेवा के लिए पूरी तरह अरुचि दिखाई।

बेटियां मन से इस काम के लिए तैयार थीं पर उनके निर्णय उनके अपने हाथ में नहीं थे।

वो अपने घर बार छोड़ कर लंबे समय के लिए अम्मा के पास नहीं आ सकती थीं।

आख़िरकार ये निर्णय लिया गया कि अब अम्मा के पास या तो कोई पूर्णकालिक नर्स रखी जाए या फिर उन्हें समुचित देखभाल के लिए किसी हॉस्पिटल या नर्सिंग होम में रखा जाए।

सब सोच विचार करके उनके पास एक नर्स रखने का फ़ैसला ही किया गया ताकि वो घर में ही नज़रों के सामने भी रहें और उनकी पर्याप्त देखभाल भी हो सके।

अब सुबह एक नर्स अम्मा के पास आ जाती और उनके दैनिक क्रिया कलाप संपन्न करके, वस्त्र बदलने, दवा आदि देने का काम करती। उन्हें नाश्ता कराती, खाना खिलाती और दिन भर उनके पास रह कर उनकी जरूरतों का ध्यान रखती।

लेकिन...

लेकिन अम्मा एक ऐसे देश में जन्मी और पली- बढ़ी थीं जहां भ्रष्टाचार के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हर इंसान का भ्रष्टाचार यहां ऐसा है कि उसे अपने अलावा बाक़ी हर व्यक्ति के चरित्र और क्रियाकलाप पर टीका- टिप्पणी करने का हक़ और शौक़ है।

ज़्यादा से ज़्यादा आय- अधिकार और कम से कम कर्तव्य हमारा मूल स्वभाव है।

हम रोगी से कई गुना फ़ीस ले लें,पर दूध वाला हमारे दूध में पानी न मिलाए। हम विद्यार्थियों को बिना पढ़ाए वेतन लेे लें, पर हमारे घरेलू सेवक छुट्टी पैसे कटा कर ही लें।

ऐसे में ये समझना कि बेटों के बैंक खाते से जो भी जा रहा है वो अम्मा के पेट में ही पहुंच रहा है, ये सोचना ज़्यादती ही था।

ऊपर से तर्क वितर्क ये, कि जब घर वाले उनका ध्यान न रखें तो कोई पेड सर्वेंट ही कैसे रखे?

हां, उसके "पेड" होने और लगातार होते रहने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी।

कई बार परिवार व पड़ोसियों के देखने में ये बात उजागर हुई कि वेतन भोगी महिला अम्मा का ध्यान रखने में लापरवाही बरतने लगी है।

पूछने पर कहती - जब घरवालों को ही उनका ध्यान नहीं है तो मैं क्या- क्या ध्यान रखूं।

ये एक तर्क नहीं, बल्कि कुतर्क था। चोरी और सीना ज़ोरी। उसे जब इस काम का पैसा मिल रहा था, तो उसे लापरवाही का हक नहीं था, घर वाले ऐसा ही कहते।

सचमुच ये तर्क और प्रवृत्ति ऐसी ही थी जिसने देश में कई रोजगार मिटा दिए। बेटे को ध्यान आता कि किस तरह उसके दफ़्तर में काम करने वाले कुछ कम वेतन वाले कर्मचारी अनुरोध करते थे कि हमारे बच्चे, भाई, दोस्त को काम पर लगा लो, ये बहुत गरीब है, यहां चाय- पानी लाकर पिला दिया करेगा। साफ़ - सफ़ाई कर लेगा।

और जब उन्हें रख लिया जाता तो वो कुछ समय बाद काम में लापरवाही बरतने लग जाते। कुछ कहने पर तर्क देते- ये लोग क्या अपने आप पानी भी लेकर नहीं पी सकते?

और जब उन्हें ये कह कर काम से हटाया जाता, कि ठीक है, अपने आप पी लेंगे...तो वे नौकरी में बने रहने के लिए यूनियन और कोर्ट का सहारा लेने लगते।

शायद यही कारण था कि देश भर में एक कड़वाहट भरा वर्ग भेद पनप गया।

ख़ैर, अम्मा को इस सब से क्या? अम्मा अपना और नर्स अपना नसीब भुगत रही थीं।

एक दिन सुबह ग्यारह बजे अम्मा का तीसरा बेटा किसी काम से अपनी कार लेकर उधर से गुज़र रहा था तो दस मिनट के लिए अम्मा का हालचाल जानने भीतर चला आया।

अम्मा परेशान हाल अपने बिस्तर पर लेटी हुई ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रही थीं। उनका नहाना- धोना अब तक नहीं हुआ था और उनके चेहरे के आसपास मक्खियों का जमावड़ा था।

पुत्र ने कुछ देर मौन खड़े रहकर अम्मा के चेहरे को निर्नमेष ताका।

दस मिनट बाद दौड़ती- हांफती हुई नर्स प्रकट हुई और कुछ पूछने से पहले ही बोली- ज़रा पास के एटीएम तक गई थी।

उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था कि अम्मा को अब तक स्पंज करके उनके वस्त्र क्यों नहीं बदले गए हैं।

बेटा ख़ाली मन वहां से लौट गया।

दो दिन बाद इसी तरह एक बार छोटे बेटे के भी अकस्मात चले आने पर कुछ इसी तरह का अनुभव सामने आया।

नर्स कुछ दूर पर बैठी अख़बार पढ़ रही थी।

बेटे को उसने नमस्कार किया, तो बेटे ने जवाब देकर उससे पूछा- "नाश्ता हो गया अम्मा का?"

- हां...जब उसने कहा तो बेटे को उसकी भंगिमा से कुछ अटपटा सा लगा।

बेटे ने कहा - क्या खाया था?

- आलू का परांठा। नर्स ने कुछ संभल कर कहा।

नर्स भीतर अम्मा के थरमस में पानी भरने गई तो बेटे को न जाने क्या सूझा, उसने टेबल पर पड़े पैकेट से एक बिस्कुट उठा कर अम्मा की ओर बढ़ाया। अम्मा ने किसी बच्चे की भांति अपने दोनों कमज़ोर से हाथों से बेटे का हाथ भींच कर अपने मुंह की ओर बढ़ाया और जल्दी -जल्दी बिस्कुट खाने लगीं।

बेटे को ध्यान आया कि उसका नाती गोद में बैठा कर कोई खिलौना देने पर ऐसे ही तो करता है।

बेटे ने कुछ देर अम्मा के पास बैठ कर अम्मा के हाथ, सिर, गर्दन को ध्यान से देखा और कहीं - कहीं लाल चकत्ता दिखने पर उसे हाथ से सहलाया। तब तक बड़ा बेटा भी अपनी पत्नी को लेकर आ पहुंचा।

उसने बताया कि आज पत्नी को डॉक्टर के पास चैक- अप के लिए ले जाना था।

बाद में दोनों भाइयों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की, कि बहू के आलू के परांठे बना कर रख जाने के बावजूद अम्मा भूखी ही थीं और बेटे के बिस्कुट देते ही उन्होंने उसे किसी देर से भूखे बच्चे की तरह जल्दी से खाया। दोनों में थोड़ी देर विमर्श भी हुआ, अविश्वास भी, और थोड़ी गरमा- गरमी भी।

छोटे भाई ने कहा कि हम इस नर्स को हटा देते हैं, तो उसे ये आश्चर्य- जनक तथ्य मालूम पड़ा कि जिस संस्था ने उसे छः महीने के कॉन्ट्रैक्ट के तहत यहां भेजा है उसने पूरे पैसे पहले ही एडवांस में ले लिए हैं जो किसी भी हालत में नॉन- रिफंडेबल हैं।

आधुनिक समय की इन जटिलताओं से अनभिज्ञ अम्मा अपने बिस्तर पर किसी मासूम बच्ची की तरह बैठी अपने तकिए को ब्लैक- बोर्ड बना कर स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का खेल खेल रही थीं।

वो जो कुछ बोलती जा रही थीं उसे उस घड़ी दुनिया का कोई भी भाषाविद नहीं समझ सकता था।

अम्मा के बेटे दोनों भाइयों की आंख नम हो गई।

छोटा भाई अब अपने घर जाने के लिए एक बार फ़िर से अम्मा को देखने कमरे में आया तो नर्स अम्मा का गिलास धोने के लिए पीछे आंगन में बने वाश बेसिन पर गई हुई थी और अम्मा अपनी बत्तीसी को निकाल कर सामने तकिए पर रख कर उसे दोनों हाथ जोड़ कर नमन कर रही थीं।

मानो अम्मा को इस अवस्था में भी ये याद हो कि भोजन सृष्टि का प्रथम नियम है और जब तक परमात्मा न कहे, इसे छोड़ना नहीं है।

जिस तरह रुद्राक्ष के मनकों की माला भगवान को आवाज़ लगाने का यंत्र है वैसे ही नक़ली दांतों का ये खिलौना सृष्टि के नियमों को पालने का ताबीज़!

और साधना- आराधना में रत अम्मा! राय साहब की चौथी बेटी!

एक दिन शाम को घर जाने का समय हो जाने पर नर्स अपने हाथ पैर साबुन से धोकर भीतर भाभी को ये बोलने गई कि वो जा रही है, अम्मा को संभालना, तो उसके साथ - साथ भाभी अर्थात अम्मा की बहू अम्मा को देखने कमरे में चली आई।

उसने देखा कि अम्मा के दोनों हाथों में पट्टी बंधी है। पट्टी पर ताज़ा खून के दाग थे। पट्टी में अम्मा के एक हाथ की चारों अंगुलियों को भी लपेट दिया गया था।

नर्स ने बताया कि अम्मा के सिरहाने रखी हुई अलमारी में एक पुराना सा काला लोहे का जो बॉक्स था, अम्मा खड़ी होकर उसके ताले से खिलवाड़ करती रही थीं।

कुछ देर बाद उसके ताले पर हाथों से वार पर वार करते हुए अम्मा ने अपने हाथ लहू लुहान कर लिए।

नर्स के रोकते - रोकते भी अम्मा उसे खींचती रहीं। यहां तक कि नर्स को ज़ोर से अम्मा को डांटना भी पड़ा।

जब अम्मा के हाथों से खून रिस कर ज़मीन पर गिरने लगा तो नर्स ने बॉक्स को वहां से हटा कर अम्मा के हाथों में पट्टी बांधी।

ये पुराना बक्सा वही था, जिसमें अम्मा अपने सब घर वालों की पुरानी पुरानी तस्वीरें और डायरियां रखा करती थीं।

बिल्कुल वैसा ही बक्सा जिसमें बच्चे अपने पुराने खिलौने समेट कर रख लेते हैं और अकेले होने पर समय काटने के लिए उसे उठा लाया करते हैं।

अगले दिन किसी फ़ोन से बेटे को मालूम पड़ा कि अम्मा की दूसरे नंबर की बहन की सबसे बड़ी बेटी, जिसका अम्मा से मौसी - भांजी का कम, सहेलियों का नाता ज़्यादा था, कुछ दिन की बीमारी के बाद गुज़र गई थी।

तो क्या अम्मा के केश उतरे सिर में विराजे अतीत- देवता ने अम्मा को उसकी मौत- गंध सुंघा दी थी? क्या अम्मा उसकी ही तस्वीर खोज रही थीं? क्या अम्मा उसकी तिये की बैठक अपने बिस्तर पर ही करना चाहती थीं?

रात को बहू ने अम्मा के आसपास से चश्मा, बक्सा, कांच का गिलास जैसी तमाम चीज़ें हटा कर इधर- उधर कर दीं ताकि अम्मा बेवजह उनसे घायल न हो जाएं।

दो दिन के बाद अम्मा की दोनों बेटियां सात आठ घंटे का सफ़र करके अम्मा से मिलने आईं।

उन्होंने आते ही इस बात की परवाह नहीं की, कि अम्मा ने उन्हें पहचाना है या नहीं। वो सीधे आकर अम्मा से लिपट गईं।

अम्मा भी हतप्रभ सी उन्हें देखती रह गईं।

अम्मा को ये तो एकाएक समझ में नहीं आया कि ये अचानक क्या हुआ, पर जो भी हुआ, ये स्पर्श अम्मा को अच्छा सा लगा। उन्होंने किसी तरह का कोई विरोध नहीं किया।

न ही अम्मा ने अजनबियों की तरह देख कर उनसे दूर छिटकने की कोशिश की।

जब दोनों अम्मा के पास बैठी तो भीतर से अाई भाभी और भाई ने उन्हें अम्मा के ढेर सारे किस्से और बातें सुनाने शुरू किए।

कभी बेटियों की आंखें भीग जाती थीं तो कभी कभी दोनों हंस पड़ती थीं।

अम्मा चारों की बातों को इस तरह बैठी सुनती रही थीं जैसे कोई बच्चा बड़ों की बातों के बीच कुछ समझ में न आने पर भी कभी एक का मुंह देखता है, कभी दूसरे का।

कभी ऐसा भी लगता जैसे अम्मा ये समझ रही हों कि जैसे ये सब बातें अम्मा के बारे में ही की जा रही हैं।

पर कभी- कभी वो सब अम्मा को अपनी बस में अा बैठे ऐसे मुसाफ़िर से लगते जिनसे अम्मा का कोई लेना- देना न हो।

अम्मा अपने किसी खेल में फ़िर मगन हो जातीं।

बड़ी बिटिया रह- रह कर अपने रुमाल से अम्मा का मुंह पौंछ देती, तो कभी उस मिठाई की प्लेट में से कोई टुकड़ा उठा कर अम्मा को खिलाने की कोशिश करती जो उन दोनों के लिए लाकर रखी गई थी।

जब अम्मा मुंह फेर लेती थीं तो वो पानी का गिलास उठा कर उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करती।

छोटी बेटी ने अम्मा को नमकीन मठरी का एक ज़रा सा टुकड़ा उठा कर खिलाया तो अम्मा ने उसे खा लिया, और बेटी की ओर इस तरह देखा मानो उससे कह रही हों- अब तो ठीक!

अम्मा के बारे में भाई- भाभी से ढेर सारी बातें सुन कर बड़ी बेटी ने अम्मा को इस तरह देखा मानो उन्हें दिलासा दे रही हो कि अब मैं आ गई हूं अम्मा, सब ठीक हो जाएगा।

उसे क्या मालूम कि अम्मा अब ज़िन्दगी की रेल को उस स्टेशन तक ले जा चुकी हैं जहां पहुंच कर न मुसाफ़िर एक दूसरे को पहचानते हैं और न ही रेल के डिब्बों को!

छोटी बेटी ने अम्मा की ओर करुणा से देखते हुए भाभी को सुनाते हुए कहा कि मैं गाड़ी लेकर इसीलिए अाई हूं कि अम्मा को कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जा सकूं।

कोई नहीं जानता था कि अम्मा के बटुए में अब कुछ दिन बाक़ी थे भी या नहीं। फ़िर कार से भी सात घंटे का सफर अम्मा किस तरह कर पाएंगी ये दूसरा बड़ा सवाल था।

तीसरा सवाल ये भी था कि जिस नर्स के वेतन के पैसे पूरे छः महीने के लिए दे दिए गए हैं उसे क्या तीन महीने में ही छुट्टी दे दी जाए, जबकि उसके साथ करार है कि किसी भी सूरत में पैसे लौटाए नहीं जाएंगे!

चौथा और सबसे वजनदार सवाल ये था कि अब अम्मा को घर से दूर बेटी के घर ले जाने पर मान लो वहीं कुछ अनहोनी घट गई तो बेटी के ससुराल में अम्मा की ख़ाक कैसे त्राण पाएगी?

सब "बेटीवाले" क्या कहेंगे कि चार- चार बेटों के होते हुए भी अम्मा दुनिया से विदा लेने बेटी के द्वार पर चली आईं?

***