Rai Sahab ki chouthi beti - 17 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 17

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राय साहब की चौथी बेटी - 17

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

17

अब कुछ दिन के लिए अम्मा ने अपनी उम्र को पकड़ कर रोक लिया।

ज़िद थी कि अभी और बूढ़ा नहीं होना है।

इसके दो कारण थे जो सामने साफ़ - साफ़ दिख रहे थे।

अम्मा का जो पोता सगाई करके अमेरिका वापस चला गया था, उसे अब कभी न कभी तो शादी के लिए भी आना ही था। और अम्मा न होंगी तो उसकी शादी कैसे होगी?

दूसरे, अम्मा की तीसरी बहू की जिस बेटी की शादी शहर से बहुत दूर जाकर सब लोग कर के आए थे, उसके बच्चा होने वाला था। अब जब बहू दुनिया में थी ही नहीं, तो लाज़िमी है कि जब वो बेटी अपने घर आए तो अम्मा को उसकी तीमारदारी में होना ही था।

अब अम्मा कोशिश करतीं कि सुबह शौच घर जाने के लिए बिस्तर से नीचे उतरें तो बिना दीवार का सहारा लिए या बेटे का हाथ पकड़े ही वहां जा सकें।

यदि तकिए पर सिर रखते समय उन्हें हल्के से भी चक्कर आएं तो वो आंख मूंद कर लेटने के बदले अब स्पोंडीलाइटिस की दवा खाना और एक्सरसाइज करना शुरू कर देती थीं।

जब बेटा कहता कि आने वाली बहू के लिए किसी ज़ेवर- गहने की ज़रूरत नहीं है तो अम्मा आंखें बंद कर के हनुमान चालीसा का पाठ करने की जगह मन ही मन उस चेन के मनकों को माला की तरह फेरने लग जाती थीं जो उन्होंने वर्षों पहले बहू को अपनी पुरानी चूड़ियां देकर पोते की बहू की मुंह दिखाई के लिए बनवा ली थी।

लेकिन इस बार जब बेटा अमेरिका से आया और उसके पिता ने इन्विटेशन कार्ड्स का मजमून बनाते समय उससे पूछा कि बता, किस- किस को कार्ड भेजने हैं तो बेटे ने मुंह नीचे करके धीरे से कहा- पापा, अम्मा को शादी में मत बुलाना!

- अरे क्यों बेटा! अम्मा तो ख़ुद सबको बुलाने वालों में हैं। पिता ने कहा।

बेटे ने भोलेपन से कहा- अम्मा उनके सब घरवालों को "लड़की वाले" कहती हैं, उन सब के नाम नहीं हैं क्या?

पिता को हंसी आ गई। बोले- बस इतनी सी बात!

पिता को हंसते देख बेटे को लगा कि शायद उसके तर्क में कुछ ज़्यादा दम नहीं है।

वो फ़िर ज़ोर देकर बोला- पापा, अम्मा ने सगाई के समय उन लोगों से कहा कि पहले सबके टीका करो। टीका क्यों? हम सबने उन्हें कोई लड़ाई करके जीता था क्या? हम लोग कोई सेना हैं क्या, जो उनके घर अपना परचम लहराने पहुंचे थे? वो क्या हमारे गुलाम हैं?

पिता ने सकपकाते हुए कहा- पर बेटा, टीका तो शुभ का संकेत है।

बेटा और मुखर हुआ, बोला- शुभ का संकेत है तो ये संकेत हमने क्यों नहीं किया उन्हें? और शुभ के संकेत के साथ करेंसी देने की क्या ज़रूरत है?

बेटा ये तो मन की ख़ुशी है, उल्लास है! पिता ने किसी पराजित योद्धा की भांति आह्वान किया।

- तो उनके मन की खुशी के लिए हम उन्हें रिमाइंड कराएंगे? नो पापा, ये सब केवल लड़की को नीचा दिखाने के लिए है, आई नो ! ये मेंटेलिटी ग़लत है। मुझे मालूम है, यदि हम कुछ कहेंगे तो सारे लोग बोलेंगे कि हम इंडिया के कस्टम्स को तोड़ रहे हैं, हम ज़्यादा पढ़ -लिख गए वगैरह वगैरह...पर ये सब हमारी कम्युनिटी के बिजनस को डिफेंड करने के तरीके हैं।...कर दो टीका, हम पौंछ लेंगे!

इसी समय घर में कुछ और रिश्तेदार, मित्र आदि आ गए, और बाप बेटे के बीच का वार्तालाप अधूरा ही रह गया।

ये सब लोग बेटे को आया जानकर ही उससे मिलने की खातिर आए थे। बेटे ने उन्हें यथायोग्य अभिवादन किया। किसी से हाथ मिलाया, किसी को नमस्ते की, किसी के पांव छुए और फ़िर अपने दोस्तों से मिलने बाहर चला गया।

बात घर की शादी से चलती - चलती शहर और देशों की शादी तक पहुंच गई और चाय पीते हुए सभी को इस चर्चा में रस आने लगा।

एक युवक बोला- कितनी वेस्टेज होती है शादियों में। अब तो कोई लिमिट ही नहीं रही, लोग शादी में लाखों नहीं, करोड़ों खर्च करने लगे हैं।

एक बुज़ुर्ग बोल पड़े- तो इसमें हर्ज क्या है? शादी कोई डेली अफेयर नहीं है, "वंस इन ए लाइफ टाइम" इवेंट है। लोगों के कमाने का क्या फ़ायदा यदि ऐसे मौकों पर खर्च न करें तो?

- अजीब तर्क है, लाखों रुपए इस तरह पानी में बहाना क्या कोई अच्छी बात है? युवक ने ज़रा उत्तेजित होकर अपने ताऊजी को आड़े हाथों लिया।

- अरे,पर जिनके पास है वही बहा रहे हैं न, तो बुरा क्या है? बुज़ुर्ग को अपने भतीजे का इस तरह उनकी बात काटना रास नहीं आया।

युवक भी जैसे अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए तैयार ही बैठा था, बोला- बुरा ये है, कि जिनके पास पैसा है वो तरह- तरह के बेतुके रिवाज़ बना देते हैं, फ़िर इन रिवाजों को निभाने के लिए जिनके पास पैसा नहीं है, वो भी कर्ज़ लेते हैं, परेशान होते हैं। ग़लत तरीके से पैसा कमाने के फेर में पड़ते हैं। पैसे का भौंडा और बेजरुरी भद्दा प्रदर्शन करते हैं। दहेज मांगने, लूटने, छीनने के रास्ते बनाते हैं।

बुज़ुर्ग ताऊजी तिलमिला गए। उन्हें लगा कि भतीजे ने उनके सिर पर एक के बाद एक ईंट- पत्थर दे मारे। वो चुप हो गए।

ताऊजी के एक मित्र जो अब तक चर्चा में मूक दर्शक बने हुए थे, अब अपने मित्र की तरफ़दारी करने के लिए मैदान में उतरे, युवक से बोले- तुम एक मिनट के लिए ज़रा सोच कर मेरी बात का जवाब दो, सोचो, एक बड़ा आदमी अपने यहां शादी में पचास लाख रुपए ख़र्च कर रहा है। तो मुझे बताओ कि उसकी जेब से निकल कर ये पचास लाख रुपए कहां जाएंगे?

युवक एक पल के लिए चुप हुआ, फ़िर बोला- मतलब?

- मतलब ये, कि ज़रा बताओ एक ख़र्चीली और महंगी शादी में क्या - क्या होगा? ये पैसे किस - किस जेब में जाएंगे?

शायद सभी लोग उनका आशय समझ गए। युवक भी समझ गया कि उसके विचार की बाड़ा बंदी की जा रही है। वह चुप हो गया।

तब मित्र ने समझाया, बोला - ये पैसे गहने,कपड़े, टेंटहाउस,भोजन, इलैक्ट्रिक सज्जा, बैंड, घोड़े, फूल,पानी, सफ़ाई, वाहन, फर्नीचर आदि असंख्य चीज़ों पर खर्च होकर शहर की अर्थव्यवस्था में लगभग हर वर्ग तक पहुंचेंगे। इससे अर्थव्यवस्था को कोई नुक़सान नहीं, बल्कि फ़ायदा ही होगा।

युवक को चुप देखकर वो फ़िर बोले- अगर सरकार को रोकना ही है, तो वो ग़लत तरीके से कमाने से रोके, पूरा टैक्स वसूल करे।

बात घूम फ़िर कर घर की शादी पर ही आ गई और परिजन घर और अम्मा की खैरियत पूछने पर आ गए।

अम्मा एक बार फिर चहल - पहल से उत्साहित थीं।

लेकिन अब अम्मा का उत्साह केवल उत्साह ही रह गया था, काम काज तो उनसे इस उम्र में क्या होता।

और कामकाज की अम्मा को कुछ ज़रूरत भी नहीं थी क्योंकि ये शादी घर के आंगन से नहीं, बल्कि शहर से दूर एक रिसोर्ट से हो रही थी।

शादी के बहाने अम्मा को अपने फैले -बिखरे परिवार से एक बार फ़िर से मिलने का मौका मिल गया।

जिस बेटे की शादी थी, उसकी बहन अब जल्दी ही संतान को जन्म देने वाली थी, इसलिए अम्मा के मन में आशा की एक जोत फ़िर से दिप दिपा रही थी, किन्तु अम्मा को रह -रह कर ये भी लगता था कि आख़िर वो अब कब तक बैठी रहेंगी। उनका भी भगवान के घर से अब बुलावा आयेगा ही।

ये सोच बेटी -बहुओं से मिलते समय अम्मा की आंखों में समा जाती और अम्मा ऐसे सुबकने लगती थीं मानो इन सब से आखिरी बार मिल रही हों।

सब चले गए।

शादी की धूम धाम भी सिमट गई।

अम्मा फ़िर से अपने अकेलेपन में लौट आईं जहां उनके बेटा- बहू ही उनके सहारे थे।

अम्मा पड़ी - पड़ी सोचती रहतीं।

इधर एक बात लगातार देखने में आ रही थी कि अब अम्मा शरीर से काफ़ी कमज़ोर होती जा रही थीं।

अब कई - कई दिन तक वो बहू से सिर में तेल डालने को भी नहीं कहती थीं। और कोई कहे नहीं, तो बहू को क्या सपना आए कि सास की सेवा करनी है।

अब अम्मा का बोलना- चालना भी काफ़ी कम हो गया था। अब वो बात - बात पर बेटे को बुलंद आवाज़ नहीं लगाती थीं।

और कोई आवाज़ न लगे तो सत्तर साल के बेटे को क्या पड़ी कि बिन बुलाए दौड़ -दौड़ कर मां के पल्लू में आए।

मां तो दूर, अब तो बीबी की सुध लेने की भी खबर नहीं रहती थी। कोई कुछ बताए, कहे, मांगे, चाहे तो किया भी जाए। नहीं तो तू अपने रास्ते मैं अपने रास्ते।

सच में बुढ़ापा ऐसा ही निर्दयी - निष्ठुर तो बना देता है सबको।

सप्ताह- पखवाड़े आकर खोज- खबर लेने वाले भाइयों- बंधुओं ने भी अब आना जाना कम कर दिया था। छठे छमाहे कोई आता तो आता।

और आता तो देखता कि अम्मा अब पहचान भी नहीं रही हैं। टुकुर- टुकुर देखे जाती हैं।

किसी बहू की निगाह पड़ी तो ये भी दिख गया कि अम्मा के सिर में ढेर सारी जुएं भर गई हैं। अम्मा खुजाते खुजाते हलकान हो जाती हैं। पर क्या कहें, किससे कहें?

जिस बूढ़ी काया को ये तक याद न रहे कि जब तक प्रभु न कहे तब तक सांस तो लेते रहना है, वो भला ये कैसे याद रखे कि बालों में तेल - फुलेल करना है।

बेटे ने भी देखा कि हर दूसरे- तीसरे दिन बहू से जाकर ये कहना तो सचमुच बड़ा मुश्किल है कि अम्मा को नहला- धुला कर कंघा- चोटी कर दे, मगर हां, ये आसान है कि मोहल्ले के नाई को पकड़ लाए और उससे कहे कि अम्मा के केश उतार ले जाए।

लो, राय साहब की चौथी बेटी किसी संन्यासिन की भांति सिर मुंडाए भिक्षुक सी हो गई।

ये बूढ़ी काया अब न किसी अपने को पहचानती, और न किसी पराए को।

चुप रहती तो चुप रहती, चाहे कोई अपना- पराया सिरहाने ही बैठा हो।

बोलती तो बोलती जाती, चाहे कमरे में कोई न हो।

पहले कम से कम अपने बेटों को हाथ से छूने पर ज़रूर पहचान जाती थीं अम्मा, पर अब धीरे - धीरे उसमें भी कोताही।

अब तो पोते - पोती - नाती -नातिन भी आ जाएं तो अम्मा उनकी ओर ऐसे देखती थीं मानो ये सब किसी चिड़िया घर में बंद किसी प्राणी को देखने आए हों और अम्मा यहां कैद हों।

कई महीने ऐसे ही गुज़र गए।

अब कभी - कभी ऐसे हादसे भी पेश आते कि अम्मा बिना किसी से कुछ बोले दीवार का सहारा लेकर उठ जाएं और कभी दीवार पर हाथ मारकर या कभी बिस्तर की चादर को खींचकर ज़ोर लगाते हुए कहीं गिर जाएं। कुछ देर वहीं पड़ी रहें और जब कमरे में कोई आकर उन्हें देखे तो सहारा देकर उठाए।

फ़िर देखे कि कभी अम्मा के सिर से खून निकल रहा है तो कभी अम्मा की कोहनी पर नील पड़ा हुआ है।

अम्मा की चोट पर किसी दवा का लेप किया जाता और अम्मा ये सब इस तरह देखती थीं मानो कब उन्हें दर्द हुआ और कब आराम आया, कुछ फ़र्क नहीं पड़ता।

जब अम्मा के कमरे के दरवाज़े को बंद करने की कोशिश होती तो अम्मा खाट से उतर जाती थीं और ज़ोर- ज़ोर से खाट को हिला कर तेज़ आवाज़ से घर को सिर पर उठा लेती थीं।

इन्हीं दिनों एक और विचित्र बात देखने को मिली।

अम्मा अकेले में जो कुछ भी बोलती या बड़बड़ाती हुई देखी जाती थीं उसे ध्यान से कान लगा कर सुनने की कोशिश की जाती।

अम्मा अक्सर अपने घर परिवार या किसी से संबंधित कोई बात नहीं बोल कर अपनी उन कक्षाओं की बातें बोला करती थीं जिन्हें वो कभी तीस- चालीस साल पहले पढ़ाया करती थीं।

वो अपने स्कूल कॉलेज की बात याद करके बुदबुदाती थीं।

एक दिन तो हद हो गई।

अम्मा के पोते और पोतियां उन्हें देखने आए।

अम्मा ने उन्हें पहचाना तो नहीं, पर उनके करुणा और कातर दृष्टि से देखने पर अम्मा ने उनसे अपने विद्यार्थियों जैसा बर्ताव किया।

जर्जर और कृशकाय अम्मा ने जब गरज कर ज़ोर से कहा- आप सब बाहर बैठिए, एक एक करके आइए...

तो सभी की आंखों में आसूं उमड़ आए। ये वही अम्मा तो थीं, जिनकी गोद में बैठ कर उन लोगों ने उनसे अपने बचपन में कई कहानियां सुनी थीं।

आंखें पौंछ कर कमरे से बाहर निकलती अम्मा की ही इस संतति का ये कायनात से अनोखा साक्षात्कार था।

क्या एक दिन सब ऐसे हो जाते हैं?

क्या आदमी की शाम यही है?

जिन बच्चों के तन पर मक्खी- मच्छर बैठने भर से अम्मा कभी विचलित हो जाती थीं वो आज अम्मा के बदन पर दुःख और कष्टों का शिविर लगा हुआ देख रहे थे और उनके पाले हुए ये बिरवे अपने पंखों की हवा तक उन पर नहीं डाल पा रहे थे।

शायद दुनिया में रहते हुए ही इंसान को इतना कलेश मिल जाता है कि न तो फिर यहां से जाने वाले को कोई ऐतराज़ हो और न उन्हें जो उसके दारुण दुःख को अपनी आंखों से देख लें।

उस छोटे से कमरे में दीवारों से सिर टकरा- टकरा कर गिरती किसी घायल चिड़िया सी अम्मा को वहां छोड़ कर लौटने वाले लोग ये नहीं जानते थे कि वे कितना तो बाहर निकल पाए और कितना भीतर ही रह गए।

***