राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
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अम्मा अपने जिस बेटे के परिवार के साथ सबसे ज़्यादा समय तक रहीं, उस का परिवार बिखर कर छिन्न- भिन्न हो गया।
अब अम्मा को अपने दूसरे बेटे का साथ मिला।
प्रायः बुजुर्गों का ये सोचना होता है कि एक से अधिक संतान होने पर वे दोनों के साथ रह कर एक संतुलन बनाना चाहते हैं। लेकिन कई बार वे एक दूसरे की अच्छाई को अपनी सुविधाओं के लिए ढाल बना लेते हैं।
मसलन, यदि एक घर में उन्हें कोई कष्ट या कमी हो रही है तो झट से वो ये जता देते हैं कि वहां दूसरे घर में तो ऐसा नहीं होता।
इसके उलट यदि यहां उन्हें कुछ एक्स्ट्रा मिल रहा है तो उसका ज़िक्र वे नहीं करते। उन्हें लगता है कि इससे ये सुविधा चली जाएगी। उनकी कोशिश तो ये होती है कि इसका उदाहरण देकर वहां भी ये आराम मांगा जा सके।
दुनिया के ज़्यादा से ज़्यादा आराम तलब होते जाने की ये होड़ अधिकतर उन्हीं से शुरू होती है। अब अधिकांश बुज़ुर्ग और अनुभवी लोग "सहने" के आदी नहीं रह जाते।
सरकारों ने भी "सीनियर सिटीजन" के नाम पर उन्हें इसका अभ्यस्त बनाया है।
बुजुर्गों की इस होशियारी को उनके बेटे- बेटी तो फ़िर भी सह जाते हैं किन्तु बहुएं आसानी से नहीं चलने देती हैं। और दामादों से ये अपेक्षा आज भी बहुत से दंपत्ति नहीं रखते।
अम्मा को ये बिसात यहां ख़ूब बिछानी पड़ती थी।
वहां तो काम पर जाने वाली बहू की सुविधाएं भी थीं और उसकी अनुपस्थिति के आराम भी। किन्तु यहां बहू के दिन भर घर पर ही रहने से अम्मा के छोटे - मोटे काम संपादित होने से रह जाते थे।
एक कहावत है कि जो चार काम करता है वो पांचवां भी आसानी से कर डालता है। पर जिसके पास एक ही काम की ज़िम्मेदारी रहे, उससे दूसरा नहीं होता।
वहां घर, दफ़्तर, बच्चे, सब काम एक साथ संभालती बहू को जब अम्मा कुछ बतातीं तो वो लगे में लगा अम्मा का काम भी कर डालती।
यहां अम्मा को कुछ भी कहने- मांगने से पहले बेटे को ही देखना पड़ता था। यहां तो घर के नोन - तेल - लकड़ी भी बेटे के ऊपर ही थे, और साग -सब्जी - दूध भी। बाज़ार तक पहुंच- पकड़ भी उसी की।
एक फर्क कमाऊ बहू और घरेलू बहू का भी था।
सौ बातों की एक बात ये, कि अम्मा अब कुछ तंग- हाथ भी रहती थीं।
दुनियादारी का एक और समीकरण यहां लागू होता था।
जिस तरह ग्रामीण किसान परिवारों में गाय की नियति होती है।
जब तक गाय दुधारू रहे सबके लिए पूजनीय गौ- माता होती है। उसके बाद केवल पशुधन, और उसके भी बाद मात्र एक चरने वाला प्राणी!
अम्मा की उम्र अब घर के कुछ कामकाज करने की भी नहीं रही थी। आयु का नवां दशक भी बीत रहा था।
असल में अम्मा की ये वही बहू थी जिसने अपने होनहार युवा बेटे को उसकी कुल चौबीस साल की उम्र में खो दिया था।
इसके बाद उनकी बेटी की शादी हो गई थी और फिर दोनों पति- पत्नी उसके भी चले जाने के बाद बिल्कुल अकेले ही अपने घर में रह गए थे।
ऐसा लगता था कि कभी - कभी बहू गहरे अवसाद में चली जाती थी और उसे दुनियादारी की बिल्कुल खबर नहीं रह जाती थी।
इसी कारण अम्मा का सूनापन और भी बढ़ जाता था।
अम्मा को ये परिवर्तन रास नहीं आता था।
लेकिन कुछ समय बाद एक बार फिर अम्मा को कुछ रौनक देखने का मौक़ा मिला।
अमेरिका गए अम्मा के पोते की पढ़ाई वहां पूरी होते ही उसे वहीं नौकरी मिल गई।
कुछ समय बाद वो छुट्टी लेकर वापस आया।
संयोग से उसी दौरान यहां इसी शहर में उसका रिश्ता भी तय हो गया।
जिस लड़की से उसका रिश्ता हुआ वो डॉक्टरेट कर रही थी। उसका काम पूरा होने में अभी कुछ समय शेष था।
इसलिए ये तय किया गया कि अभी बेटे की सगाई कर ली जाए और जब उसकी होने वाली बहू की डॉक्टरेट उपाधि पूरी हो जाए तब किसी अच्छे से मुहूर्त पर उन दोनों की शादी कर दी जाए, ताकि शादी के बाद बेटा- बहू दोनों एक साथ अमेरिका जा सकें।
अब उस बेटे की मां के न होने के कारण अम्मा एकबार फिर से घर में महत्वपूर्ण हो गईं।
उम्रदराज अम्मा कुछ दिन के लिए ये भी भूल गईं कि अब उनकी उम्र किसी सगाई- शादी की भाग दौड़ करने या घर में ऐसे समारोह को करने, मेहमानों की आवभगत करने की ज़िम्मेदारी लेने की नहीं है।
लेकिन फ़िर भी अम्मा को लगता कि बहू के न रहने पर अब इस शुभ कार्य को संपादित करने की पूरी जिम्मेदारी अब उन्हीं की तो है।
वृद्धावस्था शरीर की शक्तियों को क्षीण ज़रूर कर देती है लेकिन व्यक्ति की अनुभव जन्य सोच उसकी आवाज़ का वही दमखम बरकरार रखती है।
अम्मा हर बात में ऐसे ही बोलतीं मानो वो सब कर लेंगी, और घर के सभी लोग बस उनके कहे पर चलते रहें।
लेकिन अम्मा के तीसरे बेटे ने अपनी और घर की तमाम परिस्थिति को देख- समझ कर सारी व्यवस्था किसी अच्छे से होटल में कर दी, और घर के लोगों को बिना कोई कष्ट दिए हुए केवल मेहमानों की भांति ही आमंत्रित किया।
सही समय पर सब संपन्न हो गया।
अम्मा के तीसरे बेटे के विचार शादी -ब्याह को लेन -देन का कारोबार बना देने के कभी नहीं रहे थे।
बल्कि उसे तो ऐसे अवसरों पर लिए जाने वाले रस्मो रिवाज किसी ढकोसले की तरह नज़र आते थे।
घर- परिवार को हिला कर रख दिया जाए। अपनी ज़िन्दगी भर की जमा- राशि का भद्दा दिखावा किया जाए। रोज़ में न पहने जा सकने वाले बेतुके, तड़क - भड़क वाले कपड़े खरीद कर घर में बेवजह भर लिए जाएं। ज़िन्दगी भर बैंक लॉकरों में सड़ने वाले, या फिर जान जोखिम में डालकर मौक़े- बेमौके अपनी मालियत- मिल्कियत का बेहूदा प्रदर्शन करने वाले गहने ज़ेवर खरीद कर रख लिए जाएं। तमाम रिश्तेदारों मित्रों और परिचितों को इकट्ठा करके सजावटी- दिखावटी बेशुमार भोजन की बरबादी कर ली जाए और फ़िर इस तमाम खर्च और तामझाम का बोझ लड़की के घर वालों पर हक़ से डाल दिया जाए...ये सब किसी त्यौहार- खुशी से ज़्यादा कोई बर्बादी का बवंडर जैसा नज़र आता था उसे।
बाप तो बाप, बेटा तो और भी एक कदम आगे की सोच रखता था।
सब जानते हैं कि इन बातों से किसी का भला नहीं होता, फ़िर भी परंपरा, दिखावा, स्पर्धा और एक दूसरे से भद्दी होड़! अम्मा का पोता तो इस सब से और भी ज़्यादा चिढ़ता था।
इसलिए अमेरिका से लौटे बेटे से जब एक रात पिता ने पूछा कि मैं तेरी सगाई में आमंत्रित किए जाने वाले लोगों की सूची बना रहा हूं, तू बता किस - किस को बुलाना है, तो बेटे ने एक बहुत ही संक्षिप्त और सटीक उत्तर दिया।
बोला- रिश्ते और संबंध तो आप देख लो, मेरी ओर से तो उन सब लोगों को बुला लो जो आकर ख़ुश हों।
बेटे ने बहुत ही व्यावहारिक बात की थी।
पिता को अपने जीवन के ऐसे कई अनुभव याद आए जब इन अवसरों पर घर ऐसी चर्चाओं से भर जाता था-
- उन्हें तो ज़रूर बुलाना, नाक पर गुस्सा लिए बैठे हैं।
- उसे तो अभी कह दो, नहीं तो बाद में ताना मारेगा कि नाम के लिए बुलाया है, अब रिज़र्वेशन कहां मिलेगा।
- वो तो बेचारा अा ही जाएगा, बुलाओ या न बुलाओ।
- उसे ज़रूर कहना, हर मौक़े पर उसने हमें बुलाया है।
- उसे रहने दो, आकर और बखेड़ा करेगा।
- वो तो कभी मिलने पर सीधे मुंह बात तक नहीं करता,पर बुलाना तो पड़ेगा, बहन- बेटी के ससुराल का मामला ठहरा।
समाज में लोगों को अपनी किसी खुशी में शामिल करने के लिए छांटना भी जैसे एक कठिन परीक्षा हो।
लेकिन घर की महिलाएं इन सब कामों को बेहद कुशलता से निभा ले जाती हैं। किसी को पता तक नहीं चलता कि महिलाओं ने अलग - अलग दिशाओं में भागते ये घोड़े कब और कैसे साध लिए।
जब मौका आता है तो सब परिजन, मित्रजन और पड़ोसजन सज- धज कर आकर खड़े हो जाते हैं। और मंगल गीत गाए जाने लग जाते हैं।
अमेरिका में नौकरी कर रहे इस बेटे की सगाई भी धूमधाम से संपन्न हुई।
लोग भी जितने बुलाए गए थे,सभी अाए।
अम्मा को एक बार फ़िर अपना पूरा कुनबा एक साथ देख पाने का मौक़ा मिला। जो न अा सके, उनसे इस बहाने संदेशों का आदान- प्रदान हुआ। कम से कम इस बहाने संबंधों में एक बार फ़िर से खाद पानी तो पड़ ही गया।
अम्मा अब फिर अपने बड़े बेटे के पास सूने से घर के अकेले कमरे में आ गईं।
लेकिन एक बात ज़रूर थी।
बाहर से देखने वालों को चाहे ऐसा लगता हो कि ये बिना बच्चों का सूना घर है जहां तीन बुज़ुर्ग जन शांति से अकेले से रहते हैं। पर भीतर से तो वो घर खासा चहल- पहल भरा था ही।
वहां नब्बे साल की अम्मा अपने पैंसठ साल के बेटा- बहू के साथ रहती थीं।
मां के लिए तो बेटा, बेटा ही था।अम्मा उसे कभी गर्म पानी के लिए दौड़ातीं, कभी ठंडी चादर के लिए।
चाहे वहां किलकारियों की जगह कराह ही क्यों न गूंजती हो, अम्मा को भी बच्चे सामने दिखते, और बच्चों को भी मां!
वो साथ में ताश भी खेलते, टीवी भी देखते, चाय भी पीते और दूसरे घरवालों के सुख- दुःख पर चर्चा- टिप्पणी भी करते।
घुटनों के दर्द की बात होती, ढीली बत्तीसी की बात होती, पेट की गैस की बात होती, चश्मे के नम्बर की बात होती।
बहू कभी- कभी जब अम्मा और बेटे की गुफ्तगू देखती तो उसे अपना दिवंगत बेटा भी याद आ जाता और वो अवसाद की बदली में घिर कर अपने कमरे में जा बैठती और कमरा अंदर से बंद करके लेट जाती।
कभी- कभी ऐसे में ही वो गहरी नींद सो भी जाती और तब बेचारे अम्मा और बेटा तीसरे पहर की चाय का इंतजार ऐसे किया करते जैसे अलसभोर जागे हुए पंछी बादलों की ओट से सूरज के दिखने की आस लगाए बैठे इंतजार किया करें।
बेटा अगर शौच घर में भी जाए तो उसे अम्मा की दो- तीन पुकार सुन कर हड़बड़ी करनी पड़ जाती।
फ़िर अगर बेटे का मूड ठीक हुआ तो अम्मा को तत्काल उसका चेहरा शांति से दिख जाता, और नहीं तो अगले पंद्रह- बीस मिनट तक मां बेटे की जिरह से बहू को मनोरंजन मिल जाता और सबका कुछ समय पास हो जाता।
बेटा कहता- मैं क्या कहीं भागा जा रहा हूं? पांच मिनट का भी सब्र नहीं है।
पलट कर अम्मा कहती थीं- अब घर में इंसान हो, तो कुछ बोलेगा ही, मुंह में दही जमा कर तो नहीं बैठ सकता।
कभी - कभी अम्मा की इस व्यंग्योक्ति को बहू अपने पर कटाक्ष समझ लेती और चुपचाप रसोई में जाकर उस गैस का नॉब बंद कर देती जिस पर चाय का पानी चढ़ा होता।
चाय में हुई इस अकारण देरी से अम्मा खिन्न होकर बगावत कर जातीं और फ़िर लापरवाही से चम्मच में रखे उस गर्म तेल को पड़े- पड़े ठंडा हो जाने देती थीं जो अभी - अभी बहू ने कर के दिया होता।
कुछ देर बाद अम्मा कहती थीं- बिल्कुल ठंडा तेल है, इसे कान में डालने से क्या फायदा होगा?
और तब बेटे को उठ कर रसोई में जाना पड़ता और तेल दोबारा गर्म करके लाना पड़ता।
बेटा जब रसोई में जाता तो चाय भी बना लाता और चाय पीकर दोनों का मूड ठीक हो जाता, अम्मा का भी और बहू का भी।
तब अम्मा कहती थीं - बेटी, तू ज़रा मेरे सिर में भी तेल लगा दे!
सास - बहू के इस उपक्रम में बेटे को थोड़ी सी मोहलत मिल जाती और वो टीवी के सामने आ बैठता।
इस तरह सबका समय खूब आराम से कट जाता।
सारी उम्र सरकारी नौकरी करते रहे बेटे को बिना कुछ किए भी पांच बजाना अच्छी तरह आता था। सरकार ने उसे ये तो अच्छी तरह सिखाया ही था।
शाम को अम्मा की कुर्सी बाहर डाल दी जाती।
मोहल्ले- पड़ोस के आते - जाते लोग "अम्माजी राम- राम" कहते हुए थोड़ी देर भी अगर अम्मा के समाचार लेने रुकते तो बेटा झट बाहर निकल कर थोड़ी हवा- खोरी भी कर आता, और बाज़ार से सौदा- सुलफ़ भी ले आता।
कभी - कभी शहर में ही रहने वाले अम्मा के अन्य बेटों के परिवार से कोई अम्मा के समाचार लेने आ जाता तो दिन और भी सुगमता से कटता।
अम्मा बिस्तर पर लेटी- लेटी सोचती रहतीं, राजा हो या रंक, उम्र की चाबुक तो सभी पर पड़ती है।
लेकिन अब अम्मा के भाई बहनों में से कोई नहीं बचा था जिसे अम्मा देखें और पुराने दिनों की यादें ताज़ा करें।
सब बच्चे ही थे, या थे बच्चों के बच्चे।
इनके लिए तो अम्मा घर में सांसें लेता हुआ एक जीवित कलेंडर ही थीं। बेचारे बच्चे क्या जाने कि इस झुर्रियों में सिमटी जर्जर काया की अपनी कहानियां भी हैं और इतिहास भी।
कोई बहुत छोटा बच्चा अम्मा के पास बैठा दिया जाता तो अम्मा के गालों पर हाथ फेरता हुआ पूछता- दादी मां, आपके दांत कैसे टूटे? आपका मुंह सिकुड़ कैसे गया? अम्मा आप अखरोट कैसे खाती हो?
अम्मा एकटक प्यार से बच्चे को देखती थीं और सोचती जाती थीं कि दूसरा जन्म मिल जाए तो इस मासूम के सब सवालों का जवाब दे सकें अम्मा!
लेकिन अगले ही पल अगर बच्चा अम्मा के दुखते घुटनों पर चढ़ जाता तो अम्मा दर्द से बिलबिला कर कहतीं - परे हट! कमबख्त ने प्राण ही निकाल दिए!
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