राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
15
इन्हीं दिनों एक और हलचल ने भी घर में क़दम रखा।
अम्मा की पोती जो बाहर रह कर पढ़ रही थी, उसकी शादी तय हो गई।
कुछ दिन के लिए घर की प्राथमिकताएं बदल गईं।
सब शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए।
लेकिन इसी बीच ये निर्णय भी ले लिया गया कि परिवार शादी के बाद ही बहू की नई नौकरी वाली जगह शिफ्ट हो जाएगा।
उधर अम्मा का पोता भी विदेश में पढ़ने जाने की तैयारी कर रहा था। तय हुआ कि शादी के बाद ही वो भी अमेरिका चला जाएगा।
शादी भी एक ऐसे शहर से संपन्न हुई जो वहां से काफी दूर था।
घर के सभी लोग इकट्ठे होकर विमान यात्रा से इस नए शहर पहुंचे और धूमधाम से विवाह संपन्न कर लौट आए।
घर में कई परिवर्तन होने के लिए जैसे तैयार ही बैठे थे।
देखते- देखते एक - एक कर के ये बदलाव अब सामने आने लगे।
ये अम्मा की ज़िन्दगी का भी एक बड़ा परिवर्तन था।
कहते हैं कि इंसान को एक घर में रहते रहते उसकी दीवारों तक से लगाव हो जाता है। एक उम्र के बाद तो इंसान अपनी ज़िंदगी में ठहराव चाहता ही है। उसका मन आसानी से किसी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होता। वो चाहता है कि जैसे कि अब तक कटी है, उम्र की शाम का सूरज भी वहीं, उसी तरह ढले।
लेकिन इंसान का चाहना, और कुदरत का होने देना, दो अलग- अलग बातें हैं।
इंसान सोचता है तो सोचा करे, कुदरत को इससे क्या?
जिस विश्वविद्यालय में अम्मा की बहू कुलपति बनी थी, वो शहर से बहुत दूर स्थित था।
वाइस चांसलर आवास के लिए जो घर था वो विश्वविद्यालय के अहाते में ही था। लेकिन बहू ने वहां न रह कर शहर में ही रहना पसंद किया जहां अपना खुद का भी एक मकान ख़ाली पड़ा था।
ये मकान अम्मा के तीसरे बेटे ने अपनी नौकरी के दिल्ली प्रवास के समय खरीद कर रख दिया था। इसमें कभी कोई किरायेदार नहीं रखा गया।
अब इस मकान में ही रहने का विचार बना।
ये जगह विश्वविद्यालय से लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर थी। कार से वहां आने- जाने पर लगभग दो - तीन घंटे का समय और लग जाता।
अतः बहू का अब सुबह आठ बजे से शाम के छह- सात बजे तक लौटना हो पाता।
ऐसे में अम्मा का दिन भर घर में अकेले रहना मुनासिब नहीं समझा गया और अम्मा अब अपने बड़े बेटे के साथ रहने के लिए उसी शहर की दूसरी कॉलोनी में आ गईं।
अम्मा का ये बेटा सरकारी नौकरी से रिटायर होकर अब घर में ही रहता था। उसकी पत्नी, अर्थात अम्मा की मझली बहू भी साथ में ही रहती थी।
बच्चों की शादी हो चुकी थी, इसलिए अब ये तीन प्राणी ही घर में रहते थे।
अम्मा का जो पोता अपने जन्म के दिन से ही अम्मा के पास रह कर बड़ा हुआ था, जब अमेरिका जाने के लिए अम्मा के आख़िरी बार पांव छूने आया तो अम्मा रो पड़ीं।
अम्मा को याद आया कि उसकी आंखों में कभी विदेश जाने का सपना अम्मा ने ही वकील साहब की न पूरी हो पाने वाली इच्छा के रूप में भरा था।
अब अपनी मेहनत और लगन से वो उस सपने को पूरा करने का संकल्प लेकर जा रहा था तो ये तय करना मुश्किल था कि अम्मा की आंखों में उमड़ने वाले आंसू खुशी के हैं या फिर उससे बिछड़ने के दुख़ के।
"राय साहब की चौथी बेटी" सचमुच इस तरह तो कभी दुःखी नहीं होती थी। लगता था कि अम्मा को शायद अब ये अहसास हो रहा था कि वो पोते से आख़िरी बार ही मिल रही हैं।
आख़िर इतनी दूर जाकर वो जल्दी से तो लौटने वाला नहीं था। और उम्र के नौवें दशक में चल रही अम्मा के पास इतना वक़्त अब कहां बचा होगा कि वो इतनी दूर की सोचें।
पोता चला गया पढ़ने। पोती चली गई शादी करके। बहू चली गई अपनी नई नौकरी पर। और अकेला बेटा रह गया अपने उस स्थान पर जहां आने के लिए उसने पहले तो लंबा इंतजार किया और उसके आने के बाद अब सब उसे छोड़ कर चले गए।
अम्मा आ गईं नए घर में, जहां उनके साथ थे दूसरे बेटा- बहू!
अम्मा के लिए यादों का एक नया सिलसिला शुरू हो गया।
कहते हैं कि ज़िन्दगी में इंसान अपने विचारों का पूरा समायोजन कर लेने के बाद ही यहां से जाता है।
जो लोग अपनी ज़िंदगी में क्रोध अधिक करते हैं, उन्हें नियति अंततः ये सीख दे ही देती है कि क्रोध करना अच्छा नहीं।
जो लोग सारी ज़िन्दगी धन के पीछे भागते रहते हैं उन्हें अंत में ये अहसास हो जाता है कि इसे अब आगे की यात्रा में अपने साथ नहीं ले जाया जा सकता।
जो लोग ज़िन्दगी भर रिश्ते बनाने में यक़ीन रखते हुए दूसरों के लिए जीते रहते हैं उन्हें भी कुदरत अंत में ये जता देती है कि अंत समय में दुनियां छोड़ते समय अपनी आंखें नम किए लोगों का हुजूम उमड़ तो आता है पर इंसान को जाना अकेले ही पड़ता है, साथ में कोई नहीं आता।
ख़ैर, इन सब बातों से कोई ये न सोचे कि अम्मा का समय आ गया था, या अम्मा जा रही थीं।
मृत्यु अाई तो सही, पर अम्मा की उस तीसरी बहू की, जो अपने भव्य आलीशान ऑफिस में बैठी अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रही थी। जिसने अभी अपने जीवन के केवल पांच दशक देखे थे।
अचानक एक समारोह में उदघाटन करने के बाद भाषण देते हुए दिल के एक दौरे से अम्मा की बहू ने अपने प्राण त्याग दिए।
और ये समाचार किसी हांफते दौड़ते उड़ते कबूतर की भांति अम्मा के पास भी आया।
अम्मा अपने पलंग पर लेटी हुई थरथरा गईं।
अम्मा के होठ बुदबुदाए पर कुछ बोल नहीं पाए। अम्मा के पास आघात सहने का बहुत अभ्यास भी था, और कलेजा भी।
जब ये खुसर- फुसर शुरू हुई कि अमेरिका में पढ़ रहे बहू के बेटे को तत्काल बुलाया जाए तो अम्मा ने ये नहीं कहा कि बहू की अर्थी को कंधा कौन देगा, ये नहीं कहा कि बहू के मुंह में गंगाजल कौन डालेगा, ये नहीं कहा कि बहू को मुखाग्नि देकर उसकी कपाल क्रिया कौन करेगा, ये नहीं कहा कि अपने सिर के केश उतरवा कर ज़माने भर के सामने अपने अनाथ हो जाने का ऐलान कौन करेगा... अम्मा ने बुदबुदा कर सिर्फ़ इतना कहा कि अगर उसे बुलाया तो अब वो वापस नहीं जा सकेगा, अपना सपना पूरा नहीं कर सकेगा... अम्मा ने कहा कि अर्थी तो घंटे भर में ख़ाक हो जाएगी, गंगाजल तो घूंट भर का है, फ़िर तो पेट का गंदा पानी ही हो जाने वाला है, केश कटे तो पंद्रह दिन में फ़िर आ जाएंगे... पर सपना टूटा तो इंसान ज़िन्दगी भर तड़पता है!
सारे घर वालों ने चौंक कर देखा, सारे पड़ोसियों ने अचकचा कर देखा, पंडित ने तमतमा कर देखा... वहां अम्मा नहीं दिख रही थीं, बल्कि दिख रही थी राय साहब की चौथी बेटी!
सचमुच ढेर सारे लोग आए थे बहू की मौत की खबर सुन कर। अख़बारों में भी चर्चा हुई थी।
सारे नाते -रिश्तेदार, वो ढेर सारे लोग, जिन्हें बहू ने किसी न किसी तरह कभी मदद दी थी, किसी के बेटे को रोज़गार दिलाया था, किसी की बेटी को पढ़ाया था।
धूमधाम से शवयात्रा निकाली गई।
बहू के भतीजे ने मुखाग्नि दी।
अम्मा के तीसरे बेटे की दुनिया उजड़ गई थी।
दिवंगत पत्नी का दाह संस्कार करके लौटने के बाद उसके सामने सबसे बड़ा सवाल ये था कि अमेरिका में पढ़ रहे बेटे को सूचना किस तरह दी जाए।
उसने पिछले सात घंटों में बेटे को पांच बार फ़ोन किया था, किन्तु अब तक ये नहीं बताया था कि मम्मी नहीं रहीं।
घर में कुछ रिश्तेदारों के इंतजार में पत्नी का शव बर्फ़ की सिल्लियों के सहारे रखा हुआ था और उसी निष्प्राण देह के सिरहाने बैठ कर उसने बेटे को फोन पर पहली बार कहा- "बेटा, मम्मी की तबीयत ख़राब हो गई है, अभी सो रही हैं, तुमसे बात अभी नहीं करवा रहे।"
कुछ समय बाद फ़ोन फ़िर किया गया। अबकी बार कहा- हस्पताल ले जा रहे हैं, मम्मी गहरी नींद में हैं।
एक घंटे बाद तीसरी बार जब बेटा कॉलेज में अपनी क्लास में से निकल कर आया, तब उसे कहा गया कि मम्मी को आईसीयू में रखा गया है।
कुछ समय बाद चौथे फ़ोन पर उसे ये समझाया कि तुम्हारे दीदी- जीजाजी, मामा- मामी, मौसी भी आ गए हैं।
जब पांचवीं बार फोन किया तो उसे कहा- तुम चिंता मत करो, आराम से हॉस्टल जाओ और आराम करो, हम बाद में फोन करेंगे!
अब यहां से छठा फ़ोन करने की तैयारी की ही जा रही थी कि पहले अमेरिका से ही फोन आ गया।
घंटी बजते ही पिता ने सोचा कि बेटा अपनी मम्मी का समाचार जानने के लिए व्याकुल हो रहा है, और अब उसे असलियत बता ही देनी चाहिए। आख़िर इतनी बड़ी बात कब तक उससे छिपाई जा सकेगी।
बस, इतनी बार झूठ बोलने का मकसद तो यही था कि उसे एकाएक झटके से इतना दुखद समाचार सुनकर कोई सदमा न पहुंचे।
पिता ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उधर से कोई नई सी आवाज़ आई-
"अंकल, मैं अमेरिका से आपके बेटे का दोस्त बोल रहा हूं, उसे आपके पहले फोन से ही पता चल गया था कि आंटी नहीं रही हैं!उसने हम लोगों से कह दिया था। उसके बाद के आपके सभी फोन उसने केवल हल्का सा मुस्कराते हुए चुपचाप सुने थे, हम लोग रोते रहे, पर वो नहीं रोया। हम उसे हॉस्टल लेकर आ गए और यहां उसके साथ ही उसके कमरे में रुके हुए हैं। वो अभी- अभी सोया है, आप उसकी बिल्कुल चिंता न करें और अपने को संभालें, दादी को संभालें, दीदी को संभालें! आप भी व्यस्त होंगे, उसने कहा है कि वो कल आपको फ़ोन करेगा।"
घर में रोज़ गीता का पाठ होता।
रात को जब सब लोग सोने की तैयारी में होते तो अम्मा बहू की अभी - अभी विवाह करके गई बिटिया को तरह- तरह के किस्से सुनाती थीं, कहती थीं- गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ गांव -गांव घूम रहे थे। लोग उनके प्रवचन सुनते और उन्हें खाना - पानी देते। एक बार एक गांव में किसी ने भी उन्हें खाना - पानी देना तो दूर, उनकी बात तक न सुनी और उन्हें अपमानित करके निकाल दिया। जाते -जाते नानक ने उन लोगों को आशीर्वाद दिया कि इस गांव के लोग सदा सुखी और संतुष्ट हों और यहीं बने रहें।
शिष्य अपने गुरु की बात का अर्थ न समझे और चुपचाप उनके पीछे- पीछे चलते रहे।
कुछ समय बाद वे लोग किसी दूसरे गांव पहुंचे।
वहां लोगों ने गुरु - चेलों का भरपूर स्वागत किया, उन्हें भोजन- पानी दिया और उनके विश्राम का समुचित प्रबंध किया।
सुबह जब नानक देव वहां से जाने लगे तो उन्होंने उस गांव के लोगों के लिए अपने उद्गार ये कह कर व्यक्त किए कि ये गांव उजड़ जाए और इसके लोग यहां से तितर- बितर होकर इधर- उधर चले जाएं।
शिष्यों को अपने गुरु के इस फलसफे पर बड़ी हैरानी हुई।
वे आश्चर्य से बोले- गुरुदेव, आपकी महिमा समझ में नहीं आई, आपने इन भोले -भाले सज्जन लोगों को तो उजड़ जाने का श्राप दे दिया और उधर निर्दय, अधर्मी लोगों को आप सदा सुखी रह कर बसने का वरदान दे आए।
गुरुदेव बोले- मैंने जो कहा, वो दुनिया का हित सोच कर ही कहा। जो लोग निष्ठुर, स्वार्थी और अधर्मी हैं वो केवल अपने अपने घर में ही बसे रहें, कहीं न जाएं, ताकि उनके ये दुर्गुण जग में न फैलें। किन्तु जो लोग सज्जन हैं, मानवता के हितैषी हैं वो घूम- घूम कर सारे जग में उजाला फैलाएं, ताकि दुनिया में अच्छाई फैले..."
किस्सा सुनाते - सुनाते अम्मा की सिसकियां तेज़ हो जाती और वो अपने पल्लू से अपनी आंखों का पानी पौंछने लग जातीं।
और बिटिया उदास होकर एक कौने में बैठे अपने पिता की ओर देखने लग जाती जो वर्षों तक अपनी नौकरी में अकेले रहते हुए शहर -दर -शहर भटके और जब परिवार के पास आए तो उनकी छोटी सी दुनिया छिन्न- भिन्न हो गई।
उनके साथ एक छत के नीचे रहते चार लोगों में से एक ने देश छोड़ दिया, एक ने राज्य छोड़ दिया, एक ने घर छोड़ दिया और एक ने दुनिया छोड़ दी!
उसे अपने पिता नानक देव का वरदान पाए किसी फ़रिश्ते की तरह नज़र आते।
उसे विदेश में रहता अपना छोटा भाई शिद्दत से याद आता। वह उसे देर तक याद करती हुई जागती रहती।
उसे लगता कि केवल उसके भाई ने ही तो अकेले अपनी मां को खोया है। खुद उसे तो अब शादी के बाद एक नई मां मिल ही गईं हैं, और पापा के पास भी अपनी मां हैं।
उसे बखूबी याद था कि मम्मी की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके सास - ससुर भी वहां आए थे और उस समय उसकी सास ने उसे गले से लगा कर दिलासा देते हुए यही कहा था- "रो मत, मैं तेरी मां बनूंगी बेटी!"
यदि दुनिया में सबसे कीमती और अनमोल रिश्ता कोई है तो वो मां का ही है।
जैसे - जैसे रात गहराती वो ये सोच कर उनींदी सी होती हुई नींद के आगोश में चली जाती कि अच्छा हुआ,जो उसका भाई अमेरिका चला गया, वहां तो बच्चों की उम्र सोलह साल की होते ही उन्हें मां बाप के बिना जीना सिखा दिया जाता है।
शायद कुदरत कभी- कभी अपनी कारस्तानियां करने से पहले इंसान को उन्हें सहने की शक्ति देने का बंदोबस्त भी कर देती है।
कुदरत मां है!
प्रकृति मां है!
धरती मां है!
और तब उसे लगता कि उसका भाई अकेला नहीं है।
***