आज बरसो बाद ज्योति का अपने शहर में आना हुआ था। माता पिता के ना रहने के बाद इस शहर से उसका नाता बस खास उत्सव या गमी आदि में सिमट गया था। ऊपर से नौकरी की व्यस्तता ने तो इन मौकों को भी काट-छांट दिया था। इस बार गर्मी की छुट्टियों के पहले ही उसने मायके में कुछ दिन बिताने और बचपन की खूबसूरत यादों को जीने का प्रण सा कर लिया था।
सबसे पहले उसके जेहन में जिस स्मृति ने सर उठाया वह उसकी बचपन की सखी अनीता के घर के सामने ईटों से बने चौक और उसको बीचो-बीच लगे नीम के पेड़ की थी। मुख्य सड़क पर बने उसके घर के पीछे की ओर चलने पर कुछ गलियों से गुजरते अचानक एक चौक सामने आ जाता था जिसके तीन ओर घर और एक ओर गली थी एक सूखी सी नाली इस गली को चौक से अलग करती थी। उसके घर के पिछले वाले इलाके में ईंटों से बनी कुछ चौड़ी, कुछ तंग गलियों के जाल के बीचो-बीच ऐसे कई चौक या छोटे मैदान थे। हर चौक या मैदान में पीपल, बरगद, गूलर, इमली, केले, गुलमोहर, नीम आदि में से एक न एक पेड़ जरूर होता था। किसी-किसी मैदान में ऐसे तीन चार पेड़ भी थे। इनमें सबसे ज्यादा पेड़ नीम के थे| ये पेड़ उस चौक में तथा आसपास की गलियों में रहने वालों के जीवन में किसी न किसी प्रकार से अवश्य ही शामिल थे
बच्चे कभी उसके ऊपर चढ़ते तो कभी उसके पत्तों, फल और फूलों से खेलते। कुछ बुजुर्ग औरतें उसके नीचे खटिया डालकर बैठ जाती और हर आने जाने वाली जवान से लेकर बूढ़ी महिला तक अपनी-अपनी सहूलियत और फुर्सत के हिसाब से दो चार पल से लेकर घंटों तक वहां बैठती, बतियाती। शाम से देर रात तक कहीं युवाओं के जमावड़े और बहसें, कहीं बुजुर्ग या अधेड़ पुरुषों की ताश की बाजियां तो कहीं राजनीति की चौपालें ।
चौक से जरा हटकर बिजली के किसी खंभे से सटे खड़े होते थे कुछ रोमियो टाइप लड़के, जो हर आने जाने वाली लड़की को घूरते थे|
सिलाई करने वाली मीरा ताई के घर का चौक, कूटू का आटा पीसने वाली अम्मा का चौक , मालिश वाली दादी का चौक, ट्यूशन मास्टर जी वाला चौक और भी न जाने कितने ही चौक जो यादों में अभी तक सुरक्षित थे। ज्योति पैदल ही जरा लम्बे वाले रस्ते से इस चौक की तरफ चल दी ताकि कुछ और गलियां, चौक और मैदान देखकर अपने बचपन की कुछ और भोली-भाली मासूम यादों को ताज़ा कर सके| रास्ते में उसे अनुभव हुआ कि उस चौक के रास्ते में पड़ने वाले कुछ चौक गायब है| उनकी जगह मकान दुकान या कुछ और उग आया है। या किसी टैंट वाले के कालीन ,गद्दे, बांस और कुर्सियां आदि या रिक्शा और ठेलों का जमावड़ा है। उसके दिल में आशंका उठने लगी पता नहीं वह चौक और उसका नीम का पेड़ अब है या नहीं जिसके साथ उसकी बचपन की सबसे प्यारी यादें जुड़ी थी। वह और अनीता अन्य साथियों के साथ उस नीम की निम्बोलयों से घंटों खेला करते थे। साथ में मोहल्ले के कुछ हम उम्र लड़के भी शामिल हो जाते थे। सीमा को सबसे ज्यादा मजा आता था, निम्बोलियों को सींकों से जोड़-जोड़ कर पलंग, कुर्सी, मेज, चौकी या फिर मंडप और झोपड़ी बनाना इस काम में वह अपनी सभी सहेलियों में और दोस्तों में सबसे ज्यादा कुशल जो थी।
निम्बोलियों से बने इस फर्नीचर को अपनी गुड़िया का घर सजाने के साथ-साथ वे सब नकली नोटों या गुड़िया के सामान के बदले अन्य बच्चों को बेचा भी करती थीं। इसके लिए नीम के चबूतरे पर बाकायदा दुकान सजती, मोलभाव होता।
उसे 'वह' याद आ गया था। वह यानि संजू, उसके बनाए हुए फर्नीचर का सबसे बड़ा ग्राहक। संजू के चेहरे पर हमेशा ही एक मनमोहक सी मुस्कान रहा करती थी और उसकी ठोड़ी में पड़ने वाला गड्ढा उसे और भी सुदर्शन बना देता था।
संजू बाकी लड़कों के मुकाबले कुछ ज्यादा शालीन और सुसंस्कृत था। वह भी ज्योति की ही भांति अभिजात्य परिवार से था। ज्योति उस समय ग्यारह-बारह वर्ष की थी और संजू उससे एक डेढ़ साल बड़ा।
वह उसकी बनाई हर चीज की तारीफ करता था चाहे वह निम्बोलियों का फर्नीचर हो या पीपल के पत्तों से बनाए ताले, पीपनी और तरह-तरह के खिलौने| धीरे धीरे ज्योति और उसकी बनाई वस्तुओं दोनों को संजू की आदत सी पड़ गयी थी| जिस दिन संजू नहीं आता था, ज्योति को कुछ खटकता सा था| उसका भोला बचपन उस समय उस खटकती हुई अनुभूति को कोई नाम देने लायक नहीं हुआ था|
ये खिलौने बनाने वाले हाथ और खरीदने वाली जेबें धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी| तरुणाई मन और शरीर के परिवर्तनों से छलकने लगी थी| लड़कों पर पिता के अनुशासन और लड़कियों पर माँ, चाची, ताई से लेकर पास पड़ोसवालियों तक की हिदायतें उनके खेलों को लील रही थी| लड़कों को तो, "अब बड़े हो गए हो! ये पीपल, नीम से कब तक खेलते रहोगे, पढ़ाई में मन लगाओ या काम धंधे के गुर सीखने शुरू करो " इतना भर सुनने को मिल रहा था लेकिन लड़कियों पर"सयानी हो रही हो, अब सड़कों पर खेलना बंद करो, भले घर की लड़कियां यूं घर से बाहर नहीं खेलती जैसी हिदायतों के साथ पाबंदिया भी वाबस्ता हो रही थी क्योकिं माँ, भाभी, चाची पर हर महीने गिरने वाली छिपकली अब इनमे से भी कुछ के ऊपर गिरने लगी थी |
निबौली, पीपल और गुड़ियाँ से खेलने वाले हाथों में ऊन-सलाई और सुई-धागे पकड़ा दिए गए थे| स्कूल से आने के बाद पढ़ाई के साथ-साथ खाना बनाने का अभ्यास भी शुरू हो चुका था| फ्रॉकों और स्कर्टों का स्थान सलवार-कमीज और सम्पन्न घरों में इसके साथ बैलबॉटम और शर्ट भी लेने लगी थीं| नीम पीपल और गुड़ियों के खेल अब इनके छोटे भाई-बहनों को हस्तांतरित हो चुके थे| ये बड़ी होती लड़कियां सिर्फ लड़कियों से और बड़े होते लड़के सिर्फ लड़कों से बातें करने लगे थे| लड़कियों के पास बस सहेलिया थीं और लड़कों के पास सिर्फ दोस्त| जब कभी इनका सामना एक दूसरे से होता तो चोर नजरों से एक दूसरे को देखते अजनबी से निकल लेते थे| ऐसे ही एक बार बाजार में मिलने पर जब संजू ने ज्योति को पुकारा तो उसे अजीब सा लगा| लेकिन संजू उसके एकदम पास आ गया था -"अब खेलने क्यों नहीं आती ? अच्छा बड़ी हो गयी इसलिए|" कह कर उसने जिस शरारत से उसे देखा, ज्योति जैसे शर्म से जमीन पर गड़ गयी | उसे गुस्सा तो बहुत आया मगर ये गुस्से जैसा नहीं था| वह बिना कोई जवाब दिए वहां से निकल ली|संजू "ओए सुन तो..." पुकारता ही रह गया | इसके बाद कई दिन तक ज्योति बार-बार इस घटना को मन ही मन दोहराती और संजू पर मीठा-मीठा सा गुस्सा करती रही|
कुछ दिन बाद वह खिड़की में खड़ी थी कि संजू नीचे सड़क से होकर गुजरा| उसे देखकर हाथ से बड़ा होने का इशारा करता हँसता हुआ निकल लिया| इससे पहले कि कोई और ये देखे-समझे, ज्योति एकदम से खिड़की से हट गयी| कोई तीन चार महीने गुजरे होंगे कि ज्योति के चचेरे भाई की शादी में फिर से उसका सामना संजू से हो गया | ज्योति ने शरारा पहना हुआ था| साथ में दोनों हाथों में चार-चार मैचिंग चूड़ियाँ, हलकी सी लिपस्टिक और नन्ही सी बिंदी| उस जमाने में कुंवारी लड़कियाँ मेकअप के नाम पर बस इतना ही करती थी | संजू पहले तो उसे देखता रहा फिर उसके पास से निकलता धीरे से बोला, “मुझसे शादी करेगी? ज्योति का तरुणाई की दहलीज पर खड़ा मन कुछ समझ पाता, वह अपने दोस्तों के बीच जाकर खड़ा हो गया | थोड़ी देर बाद उसे सुनाते हुए अपने दोस्त से बोला मैं तो बड़े होकर फर्नीचर की दुकान खोलूंगा| ज्योति के गाल लाल और कान की लौ गर्म होने लगीं उन दिनों शादियाँ आज की तरह बेंक्वेट हालों में नहीं बल्कि घरों में या घर छोटा हो तो आस पास की धर्मशालाओं, पार्कों आदि में हुआ करती थी| शादी के फंक्शन के बाद सबने कपड़े बदल लिए लेकिन ज्योति उसी तरह शरारा लहराते इधर से उधर घूमती फिर रही थी बीच-बीच में किसी शीशे के सामने से खुद को उसमे निहारती निकल जाती | | ज्योति की नजरें संजू को ढूंढ रही थी लेकिन अब तक संजू अपने घर जा चुका था| फेरों में सिर्फ ख़ास-ख़ास रिश्तेदार ही शरीक हुए थे| इस दिन के बाद से ज्योति संजू को देखने के लिए अधीर सी रहने लगी| शाम के समय बार-बार इस उम्मीद में खिड़की तक जाती कि शायद संजू दिख जाये |एक दो बार संजू सचमुच में दिखा भी | दोनों की आंखे चार होती ज्योति के चेहरे पर शर्म और संजू के चेहरे पर मुस्कुराहट एक साथ ही खिल उठती|
दो-तीन साल इसी तरह निकल गए| ज्योति के हमउम्र ग्यारहवीं या बारहवीं क्लास में आए थे| और उनसे कुछ बड़े कालेज में | लड़कियों के लिए विवाह की वय उस जमाने में अट्ठारह से बीस साल के बीच थी सो उनके कॉलेज में पहुँचते ही उनके लिए लड़कों की खोज शुरू हो जाती थी| एक दिन मोहल्ले के एक बच्चे ने ज्योति को एक चिट लाकर दी, जिस पर लिखा था, "मैं कॉलेज की पढाई के लिए अपनी नानी के घर जा रहा हूँ| मेरा इंतज़ार करोगी न|" हालंकि लिखने वाले का नाम नहीं था लेकिन ज्योति समझ गयी की ये संजू ही होगा| ज्योति ने इस चिट को अपनी अलमारी में बिछे अख़बार के नीचे सरका दिया| हर थोड़े दिन बाद ज्योति एहतियात से उस चिट को निकालती, पढ़ती और फिर वहीं सरका देती |
बी ए के सेकंड ईयर में ही ज्योति के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गयी थी | ज्योति उस चिट को पढ़ती और घर में अपनी इच्छा बताने की हिम्मत जुटाती| लेकिन माँ या पिता के पास पहुँचते ही जुबान तालु से चिपक जाती| संजू के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं था| ज्योति की अधीरता बढ़ती जा रही थी लेकिन परिवार के संस्कार और पाबंदियां दोनों ही उसका मुंह बंद रखने में अपना रोल बखूबी निभा रहे थे आखिरकार बी ए पूरा करते करते ज्योति की शादी हो गयी| एक कच्ची मिटटी सी सौंधी प्रेमकहानी बचपन की यादों में ही कैद होकर रह गयी| ज्योति को तो यह भी नहीं पता, संजू की शादी कब और किससे हुई | ऊहुँ किसी से तो हुई ही होगी|
आखिरकार एक बार अपने मायके की एक शादी में संजू और उसकी पत्नी से मुलाकात हो ही गयी | दोनों अब सकुचाहट से लिपटी तरुणाई की अवस्था को कब का पार कर एक-एक बच्चे के माँ बाप बन चुके थे| सो एक दूसरे से खुल कर बातें की| एक दूसरे के बच्चों को नेग दिए गए| ज्योति के बेटे को लिफाफा पकड़ने में संकोच करते देख संजू की पत्नी बोल उठी, ले लो बेटा मामा हैं तुम्हारे| दोनों ने एक दूसरे को चोर नजरों से देखा और झेंप गए मानों किसी ने उनकी चोरी पकड़ ली हो| सोचते-सोचते ज्योति के चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी लेकिन वर्तमान में लौटते ही वह संकोच से चारो ओर देखने लगी कि किसी ने उसे यूं अकेले हँसते देखा तो नहीं ? अचानक उसे अहसास हुआ कि चौक तो अब तक आ जाना चाहिए था और अनीता का घर भी लेकिन ...... कहीं रास्ता तो नहीं भूल गयी ? आखिर तीस वर्ष का समय और शहर का बदलता चेहरा कम तो नहीं रास्ता भूल जाने के लिए | वो इधर उधर देखती गली मेँ चल रही थी कि इन सारे अपरिचित मकानों, दुकानों के बीच उसे एक पुराना पहचाना सा घर दिखाई दिया और उसके बाहर बैठे एक वयोवृद्ध के चेहरे में छिक्कल चाचा का चेहरा | उनका असल नाम तो उसे तब भी नहीं पता था |वो लकड़ी के छिक्कलों से सुंदर पेंटिंग बनाया करते थे | सुना था उनके पिता ने उनके इस काम से चिढ़कर उन्हें छिक्कल बुलाना शुरू कर दिया था क्योकि उन्हें लगता था इस काम के कारण वे पुश्तैनी राशन की दुकान के साथ न्याय नहीं कर रहे| और फिर छोटे, बड़े, बराबर के सभी की जुबान पर छिक्कल अलग अलग सम्बोधन के साथ चिपक गया |छिक्कल बेटा, ओये छिक्कल, छिक्कल यार, छिक्कल भाई, छिक्कल चाचा| उसकी अनुपस्थिति में बीते हुए तीस सालों में यकीनन कुछ और सम्बोधन छिक्कल शब्द से जरूर जुड़े होंगे| छिक्कल ताऊ ,छिक्कल बाबा| या यह भी हो सकता है तेजी से बदलते परिवेश ने उस मोहल्ला संस्कृति की आत्मीयता का ठेका भी औपचारिकताओं के नाम उठा दिया हो, जिसमें पास पड़ोस के पुरुषों और महिलाओं के सम्बोधन भैया, चाचा, ताऊ, बाबा, बुआ, मौसी, चाची, ताई, दादी,अम्मा आदि के अलग अलग सांचों से निकालकर बस आंटी और अंकल के दो बड़े बड़े कार्टनों में भर दिए जाते हैं| सीमा को याद आया ,छिक्कल चाचा का घर तो चौक के एकदम बाद में आता था ?.....यानि...? वो चौक भी समय के पेट में समा गया ? और नीम ....?
"राम राम चाचा ! चाचा पहचाना? मैँ ज्योति!" चाचा की बूढ़ी आँखों में अपरिचय और संशय देख उसे दूर करने की बजाय उसने अपनी शंका का समाधान ज्यादा जरूरी समझा | "चाचा वो... वहां.. एक चौक और उसमें नीम हुआ करता था न, कहाँ गया? चाचा ने पहले तो उसे अपनी मिचमिची आंखों से ऐसे घूरा जैसे सपने में से कोई पात्र निकल कर सामने आ गया हो फिर अपने झुर्री भरे हाथों से एक ओर इशारा किया -"वो...वहां था, कई बरस पहले कट भी चुका|
सीमा ने अब ध्यान दिया, अनीता का घर नए रंग रूप मेँ अपनी हदों से काफी बाहर निकल आया हैं और ....और नीम के चबूतरे की जगह पर एक फर्नीचर की दुकान पसरी थी, जहाँ खड़े एक दम्पति दूकानदार से कह रहे थे -"देने वाली बात करो , बोलो कितने में दोगे ये बैड ?"
ज्योति ने गौर से दुकानदार को देखा| कोई बीस इक्कीस वर्ष का नौजवान था हु ब हु संजू की शक्ल का |
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