Kitab in Hindi Poems by Dhruvin Mavani books and stories PDF | किताब

Featured Books
Categories
Share

किताब

दुनिया सिर्फ कहती नही जनाब ,
वो अक्सर कहती रहती है
यहाँ लकड़े कहाँ ;
सिर्फ़ लड़कियाँ ही तो सहती रहती है ...




हम तुमसे अनजान थे
अब तो वो समा ही बेहतर लगता है ,
तेरा मुझे जानकर भी अनजान बनना
मुझे कितना खटकता है ...




ए वक्त तू भी क्या खेल खेलता है
हर बार मिलाकर हमें
बिछड़ना सिखाता है
कुछ लम्हे सुकून के देता तो है
मगर
फिर आँसू की बहार भी क्या कम देता है !
ए वक्त तू भी क्या खेल खेलता है ...




हर पल मैं शिकायत वक़्त से यही करता हूँ कि बिता हुआ आज ,
कल फिर क्यूँ नही आता ...




जी लो इन आखिरी लम्हों को आखिरी बार
फिर शायद ये यारी मिले न मिले , वो यार

मुस्कुराहट वो मासूम चेहरे की करलो कैद एक बार
फिर शायद वो सूरत देखने मिले न मिले , वो यार

वो खिड़कियां , दरवाजे , वो बेंच , वो जो है मकान ,
ताक लो उसे , जिंदगी में नही मिलेगा मकान वो बार बार

माफ़ी लब्ज को लबो पे लाकर करते है आज माफ़
भुलाकर वो गलतियाँ बस जीते है आखिरी पल आखिरी बार

कभी ढूँढने भी निकलोगों जिंदगी में खुद से ग़र कब्र किसीकी
तो शायद तुम्हे कब्र भी मिले न मिले , वो यार

खो जाओगे कहता हूँ जिंदगी के बवंडर में
सूरत तो क्या याद रखोगे न याद भी आएगा तुम्हे नाम हमारा

जी लो इन आखिरी लमहों को बस आखिरी बार
फिर शायद वो यारी मिले न मिले , वो यार ...




इन दिनों
हर जगह हर कही
सिर्फ यारी की ही बारी है
कोई तो आए और बताए
यारी की ये कैसी
'कहानी' है...




उस दिन का क्या कहना जब दिन था पहला
मैने इस सफर में हमसफर को जुड़ते देखा है ,

अनजान वो चेहरे तब बेगाने लगे थे
आज वो चेहरों को सपनों में आते देखा है ,

कुछ अधूरे सपने लेकर बैठे थे वहाँ
आज उन्हें सच करने की कगार पे लोगो को चलते देखा है ,

हर रोज वहाँ जाना और फिर लौट आना
यही बस चंद लम्हो में मैंने जिंदगी को जीकर देखा है ,

वो बाते , चुटकुले और फिर वो जो डाँट पड़ती थी
लेकिन उन्ही के साथ ही मैंने खुद से खुद को पहचानकर देखा है ,

गलती से भी देखो वो चेहरों की ओर मुस्कुराहट खिलती थी
जन्नत को तो कभी देखा नही
लेकिन क्या पता ऐसी होगी तो मैंने उसमे जीकर देखा है ,

इन 348 दिनों में हमने क्या कुछ नही देखा यारो ,
लेकिन अब ये एक खूबसूरत याद ही बन चुकी है
और मैंने बार बार कागज पे लिखकर इन्हें हजार बार जीकर देखा है ,

फिर मिलेंगे एक आखिरी बार यारो यारी निभाने
और फिर मुझे सफर से हमसफ़र को बस बिछड़ते देखना है ...




आमंत्रित करता हूँ
मेरे जनाजे में जरूर आना
हो सके तो खुशियाँ नही
सिर्फ ग़म ही लाना
जो था मैं कल , आज अब रहा नही
यू कहूँ तो मर चुका हूँ
मैंने जी भर लिया रो कर
आकर तुम भी रो कर जाना
मेरे जनाजे में जरूर आना ...




देख मैं पिता की तस्वीर
कुछ यूं इस कदर चंद अल्फ़ाज़ ही लिख पाता हूँ ,
उन्हें पूरा तो नही मगर अधूरा सा ही सही ;
लिखने की मैं मुमकिन कोशिश कर जाता हूँ ,
ओरो की तरह हर बार नही होते आप मेरे पास
आप की तस्वीर देख में इस दिल को थोड़ा सा सुकून तो जरूर दे पाता हूँ
आप के साथ रहने की जिंदगी ने कोई वजह ही नही दी
इस सच को हर सुबह जागकर मानने पर मै मजबूर हो जाता हूँ ,
शिकायते करु भी तो किस से
खुदा में मानता नही , तकदीर पे यकीन नही
कुछ खुद को मानकर जीता हूँ
आपकी मजबूरियों को ताकत बनाई है बस अब पहचान बनानी है
कुछ अलग लगता हूँ मैं दुनिया को हर बार ,
लेकिन मैं उन्हें ये दर्द न ही समजाता हूँ और न ही मैं ये कर पाता हूँ ...




अब तो गलती नही गुनाह कर बेठा हूँ
सिर्फ खुद के बारे में सोचकर मैं खुद खुदगर्ज बन बैठा हूँ
तन्हाई में ताकत थी वो कलम वो अलफ़ाज़ मेरे
अब तो वो बेअसर अल्फाजो का सिर्फ साक्षी बन बैठा हूँ
कल भी तन्हा था आज और ज्यादा हो गया हूँ
जिंदगी जिसे मानता था आज उसीसे ख़फ़ा होकर बेठा हूँ
दोस्त - दोस्ती जीने मरने की वजह हुआ करती थी
आज उन्हें खुद से जुदा कर मैं कितना बदकिस्मत इंसान बन बैठा हूँ
कभी मैंने महसूस किया था वो पागलपन को
अब नही है जिंदगी में इसलिए मैं शायद पागल बन बैठा हूँ
अब तो गलती नही ...हाँ मैं गुनाह कर बेठा हूँ ...




कहाँ किसीने माँगो तो कर गुनाहों की माफी होती है हर गुनाह भी माफ़ होता है
कान पकड़ना और sorry बोलना ,पूछता हूँ इतना क्या काफी होता है ?
दर्द तो बहोत दिया है जानता हूँ हाँ मैं मानता हूँ ,
मगर दर्द देखर इंसान क्या माफ़ी माँगने के काबिल होता है ...




कुछ लब्जो को कागज पर लिखकर अधूरी
दास्तां एक लिखने की चाहत है मुझे
खुद को ही बया कर चंद लब्जो में दर्द को
लिखने की हाँ अजीब सी आदत है मुझे
पाकर खोकर सोती दुनिया मे जाग ने की
तमन्ना है , खुद को आजमाकर यहाँ इसी में
मरने की आखिरी ख्वाहिश है मुझे ....




फट जाता है इंसान दर - दर भटकते हुए
बदन परिवार का ढकने को मगर उसे तीन चौथाई कपड़ा नही मिलता

मर जाता है इंसान कुछ टुकड़े रोटी के ढूंढते हुए
पूरा नही तो आधा मगर उसे आधा तक नही मिलता

मिल भी जाए एक टुकड़ा गर एक परिवार मिल बाट खाता है
पास हो दूजा कोई भूखा , दिल खोल उसे भी एक निवाला खिलता है

हाँ बिक जाता है इंसान दुसरो के सपने पूरे करते हुए
बाजार भी लगता है , मगर उसे अपना सही दाम तक नही मिलता ...





दुनिया को नजदीक से जानना है अगर
तो उनसे पूछो जिनकी माँ नही होती
तुम्हारी तरह सूरत देख उसकी हर सुबह नही होती
न जिंदगी में जिद होती है न होती है जीत
गलती भी करदे ग़र तो कमबख्त जिंदगी में
गलती माफ करने वाली माँ नही होती
सर पर हाथ फेरे , खाना खुद खिलाये
ये सब कुछ देखता है वो सपने में
क्योकि हकीकत में तो माँ नही होती ना
दर्द करे बया जिसके सामने वो किरदार नही होता
होती तो है सिर्फ तस्वीर एक मगर माँ नही होती
दर्द तो तब होता है कितनो के पास तो तस्वीर तक नसीब नही होती
चेहरा देख भुल जाते हो हर गम कहते हो न
भरोसा भगवान पे करते हो न
जिंदगी में जिसकी माँ नही होती उसकी जिंदगी में कोई भगवान भी नही होता
जिंदगी मेरी हर बार यही होती है शिकायतों से भरी
मगर हाँ , शिकायत सुननेवाला माँ तुम नही होती ...




लिखने का आदी तो नही
फिर भी लिखता हूँ कुछ कहानी
जो होती है हर दफा अधूरी
अब खामोश रहता हूँ
कुछ ज्यादा ही लिखता हूँ
क्योकि जुड़ी है इसमें और एक कहानी
और वो भी अधूरी है ...




उसकी यादो में खोया था
हाँ मुझे आज भी याद है
याद कर उसे उस पल बहोत रोया था मैं
हाँ मुझे आज भी याद है
करवटे बदलता रहा उस रात उसे लगा मैं सोया था
बेचैन था दिल , नम थी आँखे
जज़्बातोँ को बुन रहा था भूल जाने को सारे गम
नशा था सिर पे और मौसम ने भी मुझे भिगोया था ...




एक रोज हम भी मिले थे उसे पुराने कपड़ो के साथ नए रिश्ते बनाने
देख हमें उसने भी क्या कमाल कहा ...
' जाओ पहले अपनी गरीबी बेचकर आओ...'




नारी नही है बोझ
बात ये इंसान तुम जानलो
बिन सोचे यूँही निकल पड़े हो जग में
जग देखने से पहले खुद से खुद को तो पहचान लो
वजह सारी सब की एक अकेली नार
अबला कहकर अपमानित जिसे करते हो
वही तेरी माँ , बहन , बेटी है इसे भी तो अब मानलो
मिले खुदा तो पूछ लेना - नारी नही है बोझ
कहेगा वो भी नारी ही है उसकी सब से बेहतर खोज
करके कैद कुछ रिवाजो में
हमने उसे दबी हुई आवाज बनाया है
ऐसा कर सदियों से
ए इंसान बता मुझे तूने क्या क्या खास पाया है ....




चंद लकीरो की तरह चंद अलफ़ाज़ ही तो लिखता हूँ
जिंदगी के ,
कोरे कागज पर ,
दुनिया इसे शायरी समझ लेती है
किस पैमाने पर....




मोहब्बत सिर्फ एक लिबाज़ है , जिसे आज के दौर में हर कोई fashion के तौर पर बार बार बदलना चाहता है ....




यादें बचपन की ख़ाब अमीरों का होता होगा ,
साहब ;
जिसमे खुशिया ढेर सारी होती है
मैं तो पैदाइशी ग़रीब हूँ...




मोहब्बत की अमर हमेशा वही कहानियाँ बनती है
जो अधूरी होती है ...
.
.
.
.
.
औऱ इसीलिए मुझे फक्र है मेरी मोहब्बत पर....




एक गुज़ारिश करता हूँ तुमसे खुदा
जिंदगी में खुशियां थोड़ी कम देना
मगर ;
उसमे मोहब्बत का जिक्र कभी मत करना...




जिंदगी की ठोकरों ने इतना तो सीखा दिया है
सच्ची वफाई तो केवल बेरंग से आँसू करते है
रातो के अँधेरे में जीता हूँ जो लम्हे
उसे वो सुबह के उजाले में जाहिर नही करते ...




अक्सर देखा है कुछ लोगो को
मोहब्बत का जूठा उसे गुरुर होता है
लेकिन सच बताऊ तो ;
दुनिया को दिखाने का सिर्फ बेबुनियाद जुनून होता है ...




सीखने को हज़ार तौर तरीके मिलेंगे
सिखानेको लोग सेकड़ो कमाल मिलेंगे ,
आपका रुतबा कुछ अलग है हमारी नज़रों में
कही भी पहोच जाए हम आपसे किरदार नही मिलेंगे ...




पता नही लोगो को मौत से इतना ख़ौफ़ क्यूँ लगता है
मुझे देखो मैं तो मर चुका हूँ ...




हम लिखते है , दुनिया इसे हमारी ताकत समझती है ,
मगर ,
उन्हें क्या मालूम एक लब्ज लिखने के लिए ये दिल कितनी बार मरा होगा ....




अल्फाजो से थोड़ा खेल लेता हूँ
लेकिन
कोई शायर नही हूँ मैं
दिल के दर्द को बयां करने के लिए लब्जो का सहारा लेता हूँ मैं
लब्जो के पीछे छिपता हूँ
कायर हूँ मैं ....कायर हूँ मैं...




सपनें बिकते देखे है मैंने रिश्ते बिकते देखे है ,
खुशियों के सौदागरों की लंबी कतार देख कर आया हूँ ,
इस बाजार में ;
मैं खुद को बेचकर आया हूँ ...




दर्द तो बहोत है दिल मे मगर ; लब्जो में इतनी ताकत नही
की हर कोई इसे पढ़ना चाहेगा ...




जब भी कहता हूँ देख मेरे दिल पे तेरा नाम लिखा है
.
.
.
तब तब अक्सर वो चाकू उठा लिया करती थी ....




कभी मौत भी आया करती थी
तो अक्सर वो भी लौट जाया करती थी
.
.
.
जब तुम हमसे बातें किया करती थी....




दिल मेरा ग़र कोई इमारत होता तो जरूर
खूबसूरत कोई खंडहर होता
देखने भी आते बेशुमार लोग इसे
और यकीनन ...मैं बहोत अमीर होता ....




आज फिर एक बार देश सारा
हिंदुस्तान शर्मसार हुआ होगा
किसीके जिस्म की ये हवस को देखकर
ये देश जिंदा होकर रोया होगा
जाना था जन्मे थे राम , कृष्ण , साई यहाँ
जब चल रही थी करतूत
तब जरूर तुम्हारा ये भगवान आँखों पे पट्टी बांध कर सोया होगा
नन्ही सी मासूम जान ही तो थी वो जिसे इंसान तूने कुचल डाला
जरूर तेरी माँ - बहन से पूछकर ही तूने ये खेल खेला होगा
केसी उल्जन में खड़ा है हिंदुस्तान
खुद पवित्र मिट्टी पर गर्व करने वाला ये देश
ऐसे लोगो को पनाह देकर खुद गुस्से की आग में जल रहा होगा
इस देश से अर्थियां तो बहोत उठी है खुदा और इंसान की
मगर तेरी उठे लाडो , इस बात पर मैंने अपना मुँह काला कर लिया
उम्मीद है इस देश ने भी यही किया होगा ...





मैं बिकता नही , न बेचता हूँ ईमान मेरा
शायद इसलिए बेईमान मुसलमान हूँ मैं ,

नमाज पढ़ता हूँ , प्राथना का गुनाह भी करता हूँ
शख्खी किरदार मेरा हाँ मै वही मुसलमान हूँ ,

मजहब इस्लाम है मेरा लेकिन ,हिंदुस्तान में रहता हूँ
मजहबी नजरो में आतंक मेरा पेशा है क्योंकि मै मुसलमान हूँ ,

लंबी दाढ़ी - गोल टोपी ये तो सिर्फ मेरी पहचान है
मुझसे बात करो मुझे जानो , अंदर से भी मैं सच्चा मुसलमान हूँ ,

मेहनत कर परिवार चलता ,मेरे बच्चों की शान हूँ मैं
यूहीं इल्जाम मत लगाव मुझ पर की मुजरिम मुसलमान हूँ मैं ,

पड़ोसी मुल्क मुसलमान है, देख मुझमे बसता मेरा हिन्दुस्तान है
ईमान इंसानियत है मेरी ,सबसे पहले इंसान हूँ मैं
मग़र , याद रख सच्चा सही मुसलमान हूँ मैं...





तू चली आ,
ओ सुंदरी ओ अप्सरा,
तुझे क्या श्रृंगार की जरूरत है !
यूँही हा ; यूँही चली आ ,
होठो की लाली को बोलदे आज नही
आँखों के काजल काले को बोलदे आज नही
चूड़ियों को भी खफ़ा करदे
बस पायल पहनकर चली आ ...
तू चली आ,
ओ सुंदरी ओ अप्सरा,
तुझे क्या श्रृंगार की जरूरत है !
यूँही चली आ ,
कानो के जुमके को बोलदे अब नही आज नही ,
अंगूठी भी निकाल दे ,
सारे जेवरात तो बोलदे आज नही ,
बस चुंदड़ी ओढ़ के चली आ ...
ओ सुंदरी ओ अप्सरा,
तुझे क्या श्रृंगार की जरूरत है !
यूँही चली आ ,
न तेरे हाथों को महेंदी की जरूरत है,
न तेरे केश को गुम्फन की ,
मांग टिके के बिना चली आ ,
बस तेरे खूबसूरत दिल को सजाकर चली आ ,
यूँही चली आ ...
ओ सुंदरी ओ अप्सरा...




माँ
तेरे इस लब्ज की मैं
क्या सिफारिश करु...
तेरे बारे में लिखकर
क्यूँ तुझे अपमानित करूँ...

माँ
तेरे आँखों की नमी को
मैं यू कुछ कागज पर लिखकर ,
तेरे प्यार सिर्फ तुझे पाने की
बार बार मुमकिन कोशिश करूँ...

माँ
तेरी इस कहानी को मैं
क्या अंजाम दु मैं क्या आवाज दूँ
इसी में पूरी जिंदगी जीना है मुझे
इंतहा बहोत है , इसकी ही तुझसे गुजारिश करूँ...

माँ
तेरी चाहत को भूलू कभी तो माफ् करना
लिख तो रहा तुझे , लब्ज कम पड़ रहे है
तुही बता माँ मैं अब क्या करूँ...





तू मान ये इन्सान
मिट्टी से उठ खड़ा , हुआ बड़ा
जी कर जिंदगी जाएगा चला
न होगी आन बान साथ शान
तू मान ये इन्सान

तेरे जन्म पर हँसी थी दुनिया
देखा तू रोता रहा
तू जी जिंदगी ऐसी हँसे तू रोए दुनिया
लेकिन वो हँसी भी न आएगी तेरे काम
तू मान ये इन्सान

तू खुदा में मानता - जानता
सिर्फ तस्वीर , सिर्फ मूरत
कही पथ्थर , कही चद्दर
कही मोम - दिप जलते न सब में मानता
ये भी तू मान ये इन्सान

सिने में तेरे ह्दय रहता जाना
हरकत करता शैतान पहचाना
लब्ज वाणी अच्छी बोलता
तोलता इंसानियत को जाना
ये तू है ! मान ये इन्सान

तू गद्दार न बात मान
तू फरेबी रक्त बहाता लाल
इंसान - इंसान के बीच भी
भेद रखता तू जलाएमान
तू मान ये इन्सान

मिट्टी से उठा है दफन होगा तू
मिल मिट्टी में मिट्टी की तरह होगा तू
कही कण बन बिखर जाएगा राख में
अमर बनेगा ग़र चला इंसान के साथ में
मरेगा जरूर ! तू मान ये इन्सान...




उठ खड़े मिट्टी से और चल दिये
कदम उठा के मंजिल की ओर चल दिये
सफलता जब चूमती है उन कदमो को
तब उन्हें उस मिट्टी की याद नही आती
मरने के बाद कोई आवाज नही आती

नव माह का बोझ लिए फिरती माँ
पिता दिखाता सफलता की राह
सफल होते उस बेटे को अक्सर
माँ बाप की कभी याद नही आती
मरने के बाद कोई आवाज नही आती

इंसान करता खुदा की बाते
मंदिर - मस्जिद - गिरजाघरों में जाते
होली खेलते रक्त लाल बहाते
उन्हें कभी इंसानियत की याद नही आती
मरने के बाद कोई आवाज नही आती

सभा में आते जाते , नारे लगाते
स्त्री , बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ
हैवान बन जब कृत्य करते तब
खुद की माँ बहनो की याद नही आती
मरने के बाद कोई आवाज नही आती...





मैं गुमसुम हूँ
मैं ढूंढ रहा हूँ वो बचपन
जिसको दुनिया ने शर्म का लिबाज पहनाकर
मिलकर दुनिया ने खून किया
मुस्कुराहट को कैद किया मर्यादा में
मैं ढूंढ रहा हूँ वो बचपन

जिसको दुनिया ने कुचल डाला
निर्दोष वो अरमानों को रौंद डाला
मासूम से चेहरों की हसीन हसरतो को
मिलकर दुनिया ने मार डाला
मैं ढूंढ रहा हूँ वो बचपन

नन्हे कदम मंजिल लगती थी
बाते सुन जैसे कही जन्नत लगती थी
मिटा दिया वो शरारतो की यादों को
जो कभी अपनी ही लगा करती थी
मैं ढूंढ रहा हूँ वो बचपन

हँसी वो कभी गूँजती थी
जिम्मेदारी के बोझ तले दबा दिया
अब बड़ा हो चुका मैं
जिंदा था कभी नन्हा सा , अब उन्हें हरा दिया
मैं ढूंढ रहा हूँ वो बचपन...




लिखना है मुझे बेहिसाब लिखना है ,
चाँद - सितारे ; ऊपर पूरा आसमान लिखना है ,
सुबह शाम लिखना है ; डूबे सूरज के अभी तो हालात लिखना है ,
हारकर तुझसे तेरी जीत ; मेरी हार हजारों लिखना है ,
मकसद एक ही जीत मगर ; जीत मेरी बुलंद लिखना है
खुशियाँ लिखूं तेरी , तेरे गम बाट लूँ ;
ये मेरी जिंदगी है मुझे इसकी चकाचौंध लिखना है ,
तू अच्छा है तुझे अच्छा लिखना है
क्योकि मुझे खुद खुदको भी सच्चा लिखना है ,
मेरी कहानी के किरदारों में शुमार हो तुम
तुम्हे एक बार पूरा लिखना है ,
मगर मेरा किरदार भी मुझे आज 'अमर' लिखना है...






सैकड़ो की भीड़ में मैंने खुद को खो दिया
मुझे खुद की तलाश है ,
नाम इन्सान है मेरा
कही मिल जाउँ तो बताना ;
पता ईमान है मेरा
मुझे इंसानियत की तलाश है...

मुझे खुद की तलाश है...





अंधेरे में शामें तो अक्सर मोहब्ब्त में ही गुजर जाया करती है,
मुझे तो बस एक अच्छी सुबह की तलाश है...





मेरी गरीबी में गनीमत जरूर है
मेरी बीमारी में असरदार है ,
मेरी तड़प के चर्चे जमाने मे जमाने से है
क्योकि किस्सा एक बहोत यादगार है ,
मैंने हार हजारों लिखी है मेरी
जीत अब तो जीत की ही तलबगार है ,
खुशनसीब हूँ बहोत यारों
वो 'किरदार' एक सब की खबरदार है ...





यूँही आये हो बेवक्त आये हो ,
तबियत नासाज़ मेरी पुछने आये हो क्या ?

सुना , मेरी मौत की खबर फैली है ,
तुम उठाने मेरा जनाजा आये हो क्या ?

अच्छा , मुझ कातिब के इद्राक - ए - इंकार बदलने आये हो
पहले तुम बोलो कल ईद थी अपने घर जाके भी आये हो क्या ?

खुश तो बहोत दिख रहे हो आज
मेरे कत्ल का कोई सामान लाये हो क्या ?





मार ने ही आये हो तो मार के ही जाना ,
जान फिर कल कोई शिकायत लिए मत आना ...




इश्क़ में सरे आम कभी मत ललकारना हमें
हमनें बड़े बड़े शहंशाहों को नीचा दिखाया है ,
सच कहता हूँ जो ताज शाहजहां ने बनवाया था
एक छोटा सा
हमनें भी हमारी ' मुमताज ' के लिए बनवाया है ....





मेरी गलियों में मैं कुछ बहोत बदनाम हूँ
उन चौराहों पर बनता वो मजाक मैं सरे आम हूँ ...





मैं कोई जाम नही जो चढ़के उतर जाऊँ ,
मैं इश्क़ हूँ दिलो का जितना उतारो उतना सिर चढ़ जाऊँ ...





जलाके ख़ाक करती है , वो आग नही जो राख करती है
मेरी जुबाँ पे मोहब्बत है , गौर करो यही वजह तबाही का आगाज़ करती है...





मेरे बाप की जेब का वजन थोड़ा कम हैं
यही वजह है मुझमें अहम थोड़ा कम हैं ....





इश्क़ ख़ता है आओ तुम भी ये ख़ता करो ,
बड़ी हसीन होती है इश्क़ की शामें आओ तुम भी मजा करो ...