राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
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उस ज़माने में वरिष्ठता का सम्मान होता था। इसलिए घरों में भी बड़े भाई भाभी का रुतबा ज़्यादा होता था।
छोटे भाई बड़ों से नम्रता से पेश आते थे तो उनकी पत्नियों को भी लिहाज रखना ही होता था।
ये लिहाज इतना ही होता था कि बड़ों से कुछ कड़वा बोला जाए तो घूंघट की ओट से।
लेकिन अम्मा ब्याह कर जिस घर में आई थीं, वहां स्थिति कुछ अलग थी। अम्मा और अम्मा की जेठानी, दोनों में गहरा बहनापा था क्योंकि दोनों ही अपने - अपने घर में "दूसरी" बन कर आई थीं।
इसलिए देवरानियों का बोलबाला था।
लेकिन ऐसा नहीं था कि ये दोनों केवल रिश्ते में ही बड़ी हों। दोनों में अपने- अपने खास गुण भी थे जिनसे उन दोनों ने अपनी जगह बनाई।
अब भी छुट्टियों में सबका बच्चों सहित मिलने - जुलने का कार्यक्रम कभी - कभी बन जाता था।
इधर अम्मा के अपने भाई के बच्चे भी अब बड़े हो रहे थे और उनके शादी ब्याह की बात भी अब चलने लगी थी।
अम्मा को ये चिंता कभी कभी सालती थी कि उनके इकलौते छोटे भाई ने राय साहब की ज़ायदाद में कुछ जमा जोड़ना तो दूर, बल्कि जो था उसे भी हिफाज़त से नहीं संभाला है।
दो - तीन बार थोड़ा- थोड़ा करके ज़मीन को भी बेच दिया गया था। अब केवल घर के गुजारे लायक ही स्थान उसके पास बचा था। उसकी नौकरी भी ऐसी नहीं थी कि उसमें कुछ बचत हो सके और पैसा इकट्ठा हो।
और कोढ़ में खाज ये, कि उसे शराब पीने की लत भी हो गई थी। अम्मा जानती थीं कि शराब जिस घर में घुस जाए वो कभी पनपता नहीं है।
इसलिए समय समय पर भाई को उसकी ज़िम्मेदारियों का हवाला देकर ये समझाइश देती रहती थीं कि अब बच्चों का घर बसाने पर ध्यान दे।
भाई की बड़ी लड़की ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ समय नौकरी भी की थी, जिससे उसकी शादी में थोड़ा बहुत कुछ सहारा लगा,और वो ब्याह के बाद सकुशल अपने घर चली गई।
छोटी बेटी की चिंता किसी को नहीं थी क्योंकि एक तो वो पढ़ने में ठीक - ठाक थी, दूसरे शुरू से अम्मा के ही पास रही थी। उम्मीद थी कि उसे भी कोई छोटी - मोटी नौकरी तो मिल ही जाएगी और वो भी बड़ी बहन की भांति अपना बेड़ा पार लगा लेगी।
हां, भाई का बेटा ज़रूर एक समस्या बन गया था। क्योंकि ये न तो पढ़- लिख ही सका था, और न कोई ऐसी काबिलियत थी कि कोई घंधा -रोजगार कर सके।
लेकिन आख़िर था तो रायसाहब के एक अकेले बेटे का अकेला लड़का।
उसके पास और कुछ हो न हो, अपनी पांच बुआओं का आशीर्वाद तो था ही।
अम्मा ने कह- सुन कर भाई से उसके लिए घर के अहाते में ही कुछ दुकानें बनवा दीं। उम्मीद थी कि ख़ुद कुछ न कर सका तो कम से कम दुकानों के किराए से ही पेट तो पाल ही लेगा।
शहर के बीच में स्थित होने का ये फल मिला कि पांच में से तीन दुकानें जल्दी ही मामूली से किराए पर उठ गई।
घर में कुछ नियमित एक्स्ट्रा आमदनी के आने से इस बेटे को भी जोश चढ़ा और बाक़ी दो दुकानों में उसने ख़ुद कुछ कारोबार करने की ठानी।
दिल्ली पास ही में थी। वहां से लड़कियों के कुछ कपड़े लाकर बेचने के लिए दुकान में रख लिए।
आधी सदी पहले जिस दिल्ली के लुटियंस जोन में अंग्रेज़ हाकिम - हुक्कामों से मिलने कभी शान से राय साहब जाया करते थे, उसी के चांदनी चौक से हफ़्ते में एक दिन लड़कियों के रंगीन दुपट्टे लाकर उनका पोता बाज़ार में बेचने लगा।
बेटे की थोड़ी बहुत कमाई शुरू हुई तो उसके लिए स्थानीय रिश्ते भी आने शुरू हो गए।
और एक दिन उसका विवाह करके घर में बहू भी ले आई गई।
अब केवल भाई की सबसे छोटी बेटी ही उसकी ज़िम्मेदारी के रूप में रह गई।
लेकिन इस लड़की का नसीब भी शादी के मामले में कुछ उखड़ा उखड़ा सा ही रहा।
बड़ी उम्र तक उसकी शादी का कोई संयोग नहीं बैठा। इस चिंता में अम्मा के इस छोटे भाई का लगातार परेशान रहना स्वाभाविक ही था।
बेटी की शादी के लिए दबाव में आकर भाई - भाभी समझौतों पर समझौते करते गए, और एक दिन बेमन से दूसरी जाति के एक लड़के के साथ छोटी बेटी को भी विदा कर दिया।
बेटी भी समझ गई कि वो इस घर पर अब एक बोझ की तरह ही समझी जा रही है अतः चुपचाप अपने नसीब की चादर ओढ़ कर डोली में बैठ गई।
ये भी एक विडम्बना ही थी कि पिता और भाई द्वारा अपनी पुश्तैनी मिल्कियत को ठीक से संभाल न पाने का खामियाजा बेटी को भुगतना पड़ा।
इस बेबसी को झेलने के बाद अम्मा का लाडला ये पांच बहनों का अकेला भाई भी जल्दी ही दुनिया को अलविदा कह गया।
अब घर में रह गए मां - बेटा और उनकी बहू।
अम्मा की ये भावज अपनी परेशानियों के चलते बीमार रहने लगी। तंगहाली में ढंग से इलाज करवाने का बंदोबस्त भी ठीक से न हो सका। ऊपर से मुसीबत ये थी कि शराब के आदी पति और बेटे ने उसे भी तंबाकू के सेवन का अभ्यस्त बना दिया था।
अब मुश्किल से खर्चा करके कोई दवा- दारू आए भी तो भला क्या असर करे?
जल्दी ही उसने भी दुनिया छोड़ दी।
अम्मा ये सब याद कर कर के और तो कुछ कर नहीं सकती थीं, हां अकेली बैठी- बैठी, जो जहां भी हो, उसके लिए अपने आशीर्वाद के अदृश्य जहाज बना- बना कर उड़ाती रहती थीं।
राय साहब का लंबा- चौड़ा परिवार था, लेकिन और बहनों को इस परिवार की इतनी चिंता व्यापती कभी नहीं देखी जाती थी, जितनी अम्मा इसके लिए अपने मानस से हल्कान होती रहती थीं।
शायद इसकी वजह यही थी राय साहब जीते जी अपनी वारिस या उत्तराधिकारी अम्मा को ही मानते रहे थे।
दोपहरी लंबी थी।
अम्मा ने वो ढेर सारे कपड़े उठा कर सामने रख लिए, जिनमें किसी में बटन लगाना था, तो किसी में तुरपाई करनी थी, किसी में जोड़ लगाना था, तो किसी को काट कर छोटा करना था।
अम्मा की इस मामले में भी अपनी बहू से होड़ थी।
बहू की शादी में मिली उषा मशीन कभी रुक जाती तो कभी तेल - ग्रीस की मांग करती लेकिन अम्मा की शादी की छः दशक पुरानी सिंगर सिलाई की मशीन अब भी फर्राटे से चलती थी।
और यही कारण था कि किसी छुट्टी के दिन घर के पुराने कपड़ों को दुरुस्त करने का इरादा बहू जब भी करती, अम्मा इस काम की ज़िम्मेदारी उससे अपने पर ले लेती थीं।
घर के पर्दे तक बाज़ार में नहीं सिलवाए जाते थे। या तो सास सिलती,या फिर बहू!
बहू ने अपनी शादी के गहने- कपड़े पर कभी ध्यान नहीं दिया। जो जिसके काम आ सके, बांट - बूंट दिए। पर अम्मा का लोहे का बक्सा अब भी कभी - कभार खुल कर बाहर निकल आता और फ़िर उसमें से छः दशक पुराने लहंगे- गोटे और चुनरिया अब भी अपनी गंध आंगन में बिखेर देते थे।
अम्मा के पास गहरे कत्थई रंग के फ्रेम में जड़ी वो तस्वीर तक अब भी सुरक्षित थी, जिसमें सादगी से बैठी वकील साहब की पहली पत्नी किसी दूसरे लोक के फरिश्ते सी दिखाई दे रही थी।
वो कोई अम्मा की सौतन तो थी नहीं, बेचारी स्वर्ग सिधार गई तब अम्मा इस घर में अाई थीं। और उसकी निशानी को अब अम्मा ने ही पाला था।
कहते हैं कि ज़िन्दगी और उम्र दोनों अलग- अलग बातें हैं। आदमी के तन की उम्र तो कलेंडर देख कर बढ़ती है पर मन की उम्र तो ये देख कर बढ़ती है कि उसमें जीने की ख्वाहिश किस शिद्दत से रहती है।
अम्मा को उम्र के आठवें दशक में भी कभी किसी ने किसी सहारे से चलते नहीं देखा। उनकी ठसक, उनकी लचक, उनकी चमक, उनकी गमक, उनकी महक तब तक उनके साथ ही रही जब तक कि ज़िन्दगी उनके साथ रही।
अम्मा की अपनी चारों बहुओं के आ जाने के बाद अम्मा मन से काफ़ी निश्चिंत हो गई थीं लेकिन उनकी ये निश्चिंतता ज़्यादा समय कायम नहीं रह सकी।
अम्मा को न जाने क्यों ये आभास सा होने लगा कि अब उन्हें कुछ- कुछ समय सभी बहुओं के साथ थोड़ा - थोड़ा समय गुजारना चाहिए।
शायद उन्हें मन ही मन ये महसूस सा होने लगा था कि अब तक उन्होंने अन्य तीनों बहुओं के स्थानीय होने के बावजूद अपने उन बेटा - बहू के साथ ही समय बिताया है, जो दूर- दूर, दिल्ली या मुंबई में रहते थे।
जबकि इन शहरों में रहने की तुलना में उनके लिए यहां जयपुर में रहना ज़्यादा आसान और आरामदेह था, जहां पूरे परिवार के अब कई घर हो गए थे।
लेकिन इस बात का एक दूसरा पक्ष ये भी था कि अम्मा अपनी इसी तीसरी बहू के साथ रहने में ज़्यादा सहज महसूस करती थीं।
इसके कई कारण थे।
एक सबसे बड़ा कारण तो ये था कि ये बेटा और बहू अपनी नौकरियों के कारण अलग - अलग शहर में रहते थे, इससे अम्मा अपने को इस परिवार के साथ ज़्यादा ज़रूरी और स्वतंत्र मानती थीं।
कहा जाता है कि औरत पहले अपने पिता, फ़िर पति और फ़िर अंत में अपने पुत्र के आधिपत्य में, हमेशा एक बंधन में ही रहती है। लेकिन यहां अम्मा को एक चौथी स्थिति हासिल थी।
यदि वृद्धावस्था और पति के जीवित न रहने के बाद की अवस्था में औरत अपने बेटे के साथ न रहे तो उसे ये भय सताता रहता है कि कहीं पुत्र उसकी ज़िम्मेदारी से अलग न हो जाए। कहीं उसे पुत्र की ओर से कोई आर्थिक अवहेलना न झेलनी पड़े।
और पुत्र के साथ रहते हुए वो ये बंधन महसूस करती है कि कहीं उसे बेटे के नियंत्रण में न रहना पड़े क्योंकि बेटे को प्रायः बहू से ऐसा ही दबाव झेलना पड़ता है।
ऐसा बहुत कम ही हो पाता है कि कोई बहू अपनी विधवा सास को अपने पति के सान्निध्य में शान और आराम से रहने दे। ये बहू के लिए, खुद उसकी नजर में बेहद असुरक्षित स्थिति होती है।
एक दूसरा कारण अम्मा ने ये भी अनुभव किया कि बाक़ी बहुएं नौकरी न करने के कारण घर में ही रहती थीं। अतः इनके साथ रहते हुए अम्मा अपने को मेहमान की तरह ही महसूस करती थीं, उन्हें ये आश्वस्ति नहीं मिलती थी कि वो ग्रह मालकिन या परिवार की मुखिया के रूप में हैं।
तीसरा कारण ये था कि अम्मा काफ़ी पहले से यहां रहती आई थीं इसलिए यहां उन्हें पहचानने वाले लोग, मिलने -जुलने आने वाले लोगों का आवागमन ज़्यादा था।
यहां इस तीसरी बहू के पद व रुतबे के कारण नौकर- चाकर, सहयोगियों की सुविधा भी अच्छी थी। आर्थिक पक्ष भी सुविधाजनक था।
अम्मा का कहना था कि यहां बेटा साथ में न रहने के कारण कभी- कभी आता था और उनके हाथ पर स्वतंत्र रूप से भी कुछ राशि रखता रहता था। जबकि अन्य घरों में उनके काम तो सब हो जाते, पर हाथ में नकद राशि स्वतंत्र रूप से नहीं आती थी।
अम्मा ने स्वयं भी लगातार नौकरी की थी, किन्तु अब रिटायरमेंट के कई दशक गुज़र जाने, और कोई पेंशन सुविधा उपलब्ध न होने के कारण उनके लिए ये आर्थिक पक्ष भी महत्व रखता था और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती थी।
ये सब कुछ कारण थे जो अम्मा को अपने रहने के स्थान का चयन आत्म- निर्भरता से करने में मदद करते थे।
अलग - अलग स्थानों पर नौकरी करते हुए अम्मा के तीसरे बेटा- बहू को भी अब घर - परिवार और समाज के लोग तरह- तरह की नसीहतें देने लगे थे।
कुछ लोग कहते थे कि दुनिया में पैसा कमाना ही सब कुछ नहीं है, परिवार को हंसी- ख़ुशी से कुछ समय साथ में भी बिताना चाहिए।
कुछ लोग राय देते कि अब बच्चे बड़े हो रहे हैं, ऐसे में उन्हें समय, सलाह और सहयोग की ज़रूरत होती है। दूर- दूर रहते माता- पिता उन्हें चंद महंगे गैजेट्स और सुविधाओं के अलावा और कुछ नहीं दे सकते, जबकि उन्हें ज़रूरत है उनके भविष्य निर्माण के लिए पल- पल निर्णय लेने की। कदम उठाने की। उनके साथ रह कर उन्हें भावनात्मक सहारा देने की, क्योंकि यही वो समय होता है जब बच्चे अपने घर परिवार की डाल से उड़ने की तैयारी करते हैं। उन्हें जितना मज़बूत मानसिक सहारा मिलता है उनकी उड़ान उतनी ही उन्मुक्त होती है।
लोग कहते कि अगर तुम रिटायरमेंट के बाद ही साथ रहने की योजना बना रहे हो, तो ये याद रखना कि तब तक बच्चे अपनी- अपनी नौकरी के लिए तुमसे दूर जा चुके होंगे, और तुम्हारे हाथ दीवारों पर टंगी उनकी यादों के अलावा और कुछ नहीं आयेगा।
इन सब बातों का असर बेटा- बहू पर हुआ।
और सबके नसीब के ज़ोर लगाने से आसमान में अटके नक्षत्र भी कुछ कसमसाये।
सचमुच बेटे को उसी जगह नियुक्ति मिल गई जहां बहू और बच्चे अम्मा के साथ रह रहे थे।
ये एक बड़ी उपलब्धि थी और एक जैकपॉट की भांति बेटे के हिस्से में अा गई।
वर्षों से इधर - उधर अकेला अपनी गृहस्थी लिए घूमता बेटा आख़िर अपने घर आ गया। और केवल सब छोड़- छाड़ कर ही नहीं आया, बल्कि और भी बड़ी हैसियत,पद और सुविधाएं लेकर आ गया।
बच्चों को बहुत अच्छा लगा।
बहू को बहुत अच्छा लगा।
बेटे को बहुत अच्छा लगा।
घर को बहुत अच्छा लगा।
दफ़्तर को बहुत अच्छा लगा।
लोगों को ईर्ष्या भी हुई। मित्रों को हैरानी भी हुई।
अम्मा को भी अच्छा लगा। लेकिन...
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