Rai Sahab ki chouthi beti - 12 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 12

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राय साहब की चौथी बेटी - 12

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

12

स्कूल से लौटी अम्मा की पोती ने जैसे ही अम्मा के कमरे का पर्दा हटा कर झांका, वो चौंक गई।

अम्मा हंस रही थीं। उनके हाथ में एक छोटी सी फोटो थी, जिसे देख कर अम्मा की हंसी छूट गई थी।

स्कूल बैग एक ओर फेंक कर बिटिया अम्मा के करीब अा गई और मुस्कराते हुए बोली- दिखाना, दिखाना अम्मा, किसकी फोटो है?

अम्मा ने फौरन फोटो बिटिया को पकड़ा दी।

इस बरसों पुरानी फोटो में अम्मा अपनी बड़ी बहन के साथ खड़ी थीं।

इससे पहले कि बिटिया फोटो को देख कर अम्मा के हंसने का कारण ढूंढने की कोशिश करे, अम्मा खुद ही उसे बताने लगीं- देख देख, इस फोटो में रमा बीवी ने अपना हाथ कैसे ऊपर किया हुआ है। पता है क्यों किया ऐसा?

अब उस नन्हीं सी लड़की को क्या पता होता कि तीस- चालीस साल पहले उसकी दादी और उनकी बहन ने फोटो खिंचवाते समय अपना एक हाथ ऊपर क्यों उठा लिया?

अम्मा ही बोलीं- बीवी ने नई अंगूठी बनवाई थी, जो उसी दिन बन कर अाई। जब उनके दामाद फोटो खींचने लगे तो वो एकदम से बोल पड़ीं, भैया फोटो में मेरी नई अंगूठी ज़रूर आनी चाहिए। तो वो बोल पड़े- माताजी, आप हाथ ऊपर कर लो। और हमारी भोली- भाली बीवी ने सचमुच हाथ ऊपर उठा लिया।

कह कर अम्मा ज़ोर से हंस पड़ीं, जैसे अभी कल की ही बात हो। और बिटिया को लगा कि ये तो वैसी ही घटना है जैसी अभी अभी वो इतिहास के पीरियड में पढ़ कर आ रही है।

बिटिया नाश्ता करने के लिए चली गई।

अम्मा की ये तीसरे नंबर की बहन रामेश्वरी थीं, जिन्हें सब रमा कहते थे। इनका परिवार भी बहुत लंबा - चौड़ा था।

इनके चार बेटे और चार बेटियां थीं। इसके अलावा इनके एक देवर का बेटा भी शुरू से ही इनके पास रह कर पढ़ता था।

इनके पति राजस्थान सरकार में अच्छे पद पर थे और जयपुर में रहते थे।

अम्मा की ये बहन बिल्कुल पढ़ी - लिखी नहीं थीं, लेकिन सामान्य जानकारी के आधार पर ही इनकी पकड़ जीवन के लगभग हर क्षेत्र पर ही अच्छी - खासी थी।

सिनेमा की ये भी अच्छी - खासी शौक़ीन थीं और हर बात पर अपनी स्पष्ट राय रखती थीं।

मीना कुमारी की मृत्यु भी इन्हें विचलित करती थी, तो किसी राजरानी की तरह ख़ूबसूरत साधना को फिल्मफेयर पुरस्कार न मिलना इन्हें अखरता था।

सुमिता सान्याल जैसी अभिनेत्री को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाना इन्हें विचारधारा आधारित जटिलता दिखाई देती थी, जिसका मनोरंजन उद्योग से कोई सरोकार होना इन्हें आसानी से हजम नहीं होता था।

ये बहुत सीधी - सादी तथा स्पष्ट वक्ता थीं।

ग्यारह लोगों का परिवार लिए बैठी इस महिला की रसोई में कभी किसी कुक या नौकर - नौकरानी को खाना बनाते हुए कभी किसी ने नहीं देखा। ज़िन्दगी भर अपने परिवार को अपने ही हाथ का बना खाना इन्होंने खिलाया।

और ज़िन्दगी की दौड़ में लड़के लड़कियों, दोनों को एक सा सहारा देकर इन्होंने कामयाब बनाया।

इतना सब होने पर भी इनका मिलनसार स्वभाव जग जाहिर था। पति सरकारी अफ़सर होने के कारण ज़रा रिजर्व स्वभाव के थे, अतः अपने पति से कभी - कभी परिहास में ही कहा करती थीं- साहब, ज़रा मोहल्ले वालों से मिला- जुला करो, मैं मर गई तो तुम्हारे साथ कोई मेरी अर्थी उठवाने भी नहीं आयेगा।

पति भी तत्काल नहले पे दहला मारते हुए जवाब देते- तुम तो मोहल्ले में ख़ूब पॉपुलर हो जी, मैं मर गया तो मेरी अर्थी के संग ले जाने के लिए पूरा मोहल्ला इकट्ठा कर लोगी!

अम्मा जब इन्हें याद करने बैठती थीं तो याद करती ही चली जाती थीं, कभी इनकी भाषा, कभी इनका आंतरिक घरेलू प्रशासन।

जो भी काम करतीं वो पूरी तन्मयता से।

अम्मा की ये बहन ग़ज़ब की हाज़िर - जवाब भी थीं। एक दिन घर के आंगन में कोई कमरा बनाने के लिए कारीगर काम कर रहे थे। उनके पति कुछ सुझाव दे रहे थे। वे कारीगर को कुछ समझाते हुए बोले- मैं ठीक कह रहा हूं, मैं इंजीनियर का बाप हूं (उस समय उनका एक पुत्र इंजीनियरिंग में पढ़ रहा था),तभी बहन रसोई से निकल कर हाथ पौंछती हुई आईं और कारीगर को अपना सुझाव देती हुई बोलीं- भैया,इसे ऐसे ही बनाओ, मैं भी इंजीनियर की बेटी हूं। कारीगर भी दोनों पति - पत्नी के भोलेपन पर मुस्करा कर रह गया।

एक दिन सुबह - सुबह रसोई में बैठी हुई खाना बना रही थीं। सबके स्कूल, कॉलेज, दफ्तर जाने का समय था।

वो ज़माना गैस का भी नहीं था। अंगीठी में कोयले जलते थे। उन्हीं पर गर्म- गर्म रोटियां सेंक कर सबको खिलाती थीं।

संयोग से उनके अफ़सर पति का नया सूट सिल कर आया था, जिसे उन्होंने दफ्तर के लिए तैयार होते समय पहली बार पहना था।

वो उसे शान से पत्नी को दिखाने के लिए रसोई के सामने ही चले आए, बोले- देखो जी, कैसा लग रहा हूं?

वो बोलीं- बहुत अच्छे लग रहे हो जी, ज़रा एक टोकरी में कोयले भर के ला दो!

सारा घर उनकी व्यस्तता और जल्दबाजी में भी ठहाकों से गूंज उठा।

ऐसी भोली- भाली और कर्मठ बहन अब इस दुनिया में नहीं थी, और उसकी याद अम्मा के जेहन में महफूज़ थी।

अम्मा अपने पूर्वजों का श्राद्ध बड़े जतन से करती थीं।

जिस दिन दादा,दादी या अन्य किसी दिवंगत परिजन का श्राद्ध होता, अम्मा अलस भोर तड़के ही उठ जाती थीं और सुबह से ही अपने हाथों से खीर, हलवा या अन्य व्यंजन बनाने में जुट जाती थीं।

कई बार ऐसा लगता था कि ऐसे अवसरों या अन्य त्यौहारों को अम्मा इसीलिए ज़ोर -शोर से मनाती थीं कि इस दिन उन्हें परिवार के लिए तरह -तरह के व्यंजन अपने हाथों बनाने का मौक़ा मिल सके।

अम्मा शतरंज खेलने में भी निपुण थीं। अक्सर जीतती थीं।

शायद ये दक्षता भी उन्हें बचपन में ही अपने पिता राय साहब से विरासत में मिली थी।

कई बार अकेले में अपना समय काटने के लिए अम्मा दोपहर में अकेले ही शतरंज की बाज़ी जमा लेती थीं। दोनों ओर के मोहरे वो ही चलतीं। और तन्मयता से पूरी गंभीरता से खेलती अम्मा खेल का अंतिम क्षण तक आनंद लेती थीं।

शायद मन ही मन वो तय कर लेती थीं कि उनके साथ प्रतिद्वंद्वी के रूप में कौन खेल रहा है। और इसीलिए उनकी दिलचस्पी हार जीत में बनी रहती थी।

एक बार उनका तीसरा बेटा छुट्टियों में घर आया हुआ था।

अम्मा इन दिनों बेहद प्रसन्न दिखाई दे रही थीं।

लेकिन एक दोपहर बेटा अपने स्थानीय कुछ मित्रों से मिल कर दोपहर में घर लौटा तो अम्मा को उसने तकिए में मुंह छिपा कर रोते पाया।

उसे बहुत अचंभा हुआ। उस समय घर में न तो बच्चे थे,और न ही बहू ही थी। वे सब अपने स्कूल, दफ़्तर गए हुए थे।

फिर अम्मा के इस तरह रोने का भला क्या कारण हो सकता था?

यदि घर में कोई हो तो माना भी जा सकता है कि किसी से किसी बात पर कोई खटपट हुई हो, किसी ने कुछ कह दिया हो, पर अकेले में इस तरह परेशान होने की फितरत तो अम्मा की थी नहीं।

तो क्या, कोई शारीरिक व्याधि है? कहीं कोई दर्द, कष्ट है?

-नहीं, कुछ नहीं। पूछने पर अम्मा का यही जवाब!

और चेहरा तथा आंखें रोने से लाल पड़ी हुई।

बेटा समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर अम्मा के इस तरह रोने का क्या कारण हो सकता है?

बेटा तो अपनी नौकरी के सिलसिले में घर से बहुत दूर रहता था।

तो क्या, ये अम्मा के खुशी के आंसू हैं?

नहीं नहीं, जब तक अम्मा अपने मुंह से ऐसा खुद न कहें, वो भला कैसे मान ले कि अम्मा उसके आने की ख़ुशी में गमजदा हैं।

बेटा बार - बार पूछता रहा।

पर अम्मा यही कहती जाती थीं कि नहीं, कुछ नहीं हुआ है।

ज़रूर ये कोई पुरानी याद ही होगी, जो अम्मा को रुला गई होगी।

लेकिन जब तक अम्मा कुछ बोलें नहीं, तब तक कैसे पता चले कि अम्मा को क्या साल रहा है।

आख़िर बेटे को अम्मा का मन बदलने का एक ही रास्ता सूझा।

वह अम्मा से बोला- अम्मा आज तो बेसन का चीला बनाओ, आपके हाथ का बना चीला खाए बहुत दिन हो गए।

और सचमुच इस तरकीब ने किसी जादू का सा काम किया। अम्मा पल्लू से आंखें पौंछकर मुस्कुराती हुई फौरन उठ कर रसोई में आ गईं।

बेटे को तसल्ली हुई।

अम्मा के उठ कर जाते ही उसने अम्मा की मेज़ और अलमारी के आसपास नज़र घुमा कर देखने की कोशिश की, कि आख़िर कोई कारण या सुराग़ मिले, जिससे अम्मा की परेशानी का कुछ सबब पता चल सके। क्या देख रही थीं, कोई फ़ोटो, कोई चिट्ठी, या कोई पुरानी डायरी!

और तभी सचमुच एक सूत्र बेटे के हाथ लगा।

हो न हो, अम्मा इसे देख कर पुरानी यादों में खो गई होंगी और इन स्मृतियों की कड़वाहट ने उनके सब्र- बांध के गेट खोल दिए होंगे!

चाहे कितनी भी पुरानी बात हो, इससे क्या फ़र्क पड़ता है? ऐसी स्मृतियां भला समय की मोहताज थोड़े ही होती हैं, ये तो अपना असर क़यामत तक रखती ही हैं।

अम्मा के तकिए के नीचे से बेटे को वर्षों पुराना अपनी ही शादी का कार्ड रखा मिला।

ओह! तो क्या ये याद अम्मा ने अब तक संजो रखी है?

खूनी- नश्तर भूले कहां जा पाते हैं? फ़िर चाहे वे लोहे- इस्पात की बनी कोई नुकीली कटार हो, या इत्र में भीगी कोई चिट्ठी, या तस्वीर!

ये बेटे की शादी का वो निमंत्रण कार्ड था, जो लड़की वालों की तरफ़ से छपवाया गया था।

अर्थात अम्मा की इसी बहू के माता -पिता की ओर से सारे समाज को दिया गया दावत का वो न्यौता...जो उन्होंने अपनी बेटी की मुराद पूरी होने के एवज में उसके पाणिग्रहण के अवसर पर घर - घर बांटा था।

बेटे की आंखों के आगे भी एक धुंध का बादल आकर ठहर गया।

उसे सब याद आ गया।

असल में शादी की इस लग्न पत्रिका में दूल्हे के नाम के नीचे ब्रेकेट में केवल दूल्हे के पिता का नाम ही छपा हुआ था। जबकि दुल्हन के नाम के नीचे दुल्हन की मां और पिता, दोनों का नाम था।

ये अम्मा के अस्तित्व को सरासर चुनौती थी।

ये अम्मा को सरे आम इग्नोर करने की कोशिश थी।

यदि ये कोई साधारण सी प्रिंटिंग मिस्टेक होती तो कार्ड बांटे जाने से पहले इस त्रुटि का निराकरण किया जाना चाहिए था।

यदि कार्ड दोबारा छापे जाने का समय नहीं था, तो यहां हाथ से ही अम्मा का नाम लिखा जाना चाहिए था, और यदि ऐसा करने के लिए मन तैयार न था, तो भी व्यावहारिकता और दुनियादारी के नाते, लड़की की मां का नाम भी वहां से हटाया जाना चाहिए था।

अम्मा केवल राय साहब की चौथी बेटी ही नहीं, बल्कि दूल्हे की मां थीं। सगी मां, नैसर्गिक मां!

उन्होंने दूल्हे को नौ महीने अपने पेट में रख कर, ज़माने का सारा कष्ट सहकर उसे जन्म दिया था। हैसियत दी थी, अवस्थिति दी थी, ज़िन्दगी दी थी!

ओह! इसका कोई पश्चाताप न था, कोई प्रायश्चित न था, अम्मा का रोना जायज़ था।

लेकिन वक़्त हर ज़ख्म का मरहम है! ज़िन्दगी गलतियों और उनके सुधार से ही बनी है।

बहू के व्यवहार, बर्ताव, ज़िम्मेदारी, लगन, और अपनेपन के सतत बहते झरने ने इस घर को जो कुछ दिया, उस पर ऐसी हज़ारों भूल- चूक कुर्बान!

अम्मा मुस्कुराती हुई एक हाथ में सॉस की बोतल और दूसरे में गर्म चीले की प्लेट लिए कमरे में आईं।

अम्मा केवल बेटे के लिए ही उसका फरमाइशी व्यंजन बना कर नहीं लाईं, बल्कि बहू के लिए भी गरमा- गरम चीला बना कर रख आईं।

छुट्टियां खत्म हो जाने के बाद जिस दिन बेटे को वापस लौटना था, उस पूरी रात उसे नींद नहीं आई।

देर रात को पत्नी के सो जाने के बाद भी वो जागता रहा।

उसे रह रह कर अपने विवाह का वो बरसों पुराना मसला याद आ जाता था जिसे याद करके उसने अब भी अम्मा को एक दिन रोते देख लिया था।

आख़िर ऐसा हुआ क्यों?

उसके सास- ससुर और उनके घर के तमाम लोगों के होते ऐसी गलती हो कैसे गई, कि शादी के कार्ड पर अम्मा का नाम छपने से रह गया।

और तब अंधेरे में भी वो ग्लानि से भर गया। उसे याद आ गया कि ये कोई अनजाने में हुई गलती नहीं थी। बल्कि जानबूझ कर की गई उपेक्षा थी। जिसे देख कर भी उसने उस समय आंखें फेर ली थीं। वो चुप रह गया, क्योंकि उस समय उस पर अपने ससुराल वालों का जादू छाया हुआ था। उसे हर बात में घर वाले गलत और ससुराल वाले सही नज़र आते थे। जैसे वो मन से उनका ज़र ख़रीद गुलाम बन गया था।

उस के सिर पर तो केवल इस बात का नशा सवार था कि उनकी इतनी बड़ी अफ़सर बेटी उसकी धर्मपत्नी बनने जा रही है। फ़रिश्ते से दिख रहे थे वो लोग।

असल में हुआ ये कि उस समय अम्मा के साथ स्कूल में ही काम करने वाली एक महिला बेटे की सास की भी सहेली थी।

उसका दोनों घरों में आना- जाना था।

जब इस रिश्ते की बात चली तो उसने और भी ज़्यादा दिखावटी अपनेपन से दोनों घरों में आना- जाना शुरू कर दिया।

और कुटिल स्वभाव की उस महिला ने इधर की उधर लगाई- बुझाई करने में रस लेना शुरू कर दिया।

दो घरों की इस रामायण की भी वो मंथरा बन गई।

जब वो अम्मा के पास बैठती तो कहती - अभी आपके बेटे की उम्र ही क्या है, अभी तो इसे और भी अच्छे कॉम्पिटिशन की तैयारी करके आगे बढ़ने में ध्यान लगाना चाहिए। वो लड़की तो हॉस्टल में मुंबई जैसे शहर में रहती है, भला वो आप लोगों को क्या निहाल करेगी? इस बेटे के लिए लड़कियों की कोई कमी है क्या,एक से बढ़कर एक मिलेंगी!

और वही औरत जब लड़की की माताश्री के पास बैठ कर उनकी चाय पी रही होती तो कहती- आप लोग देर मत करो, आजकल कुछ पता थोड़े ही चलता है, लड़के का मन बदल जाए तो? ऐसे में तो चट मंगनी पट ब्याह करना अच्छा रहता है।

यही नहीं, उस महिला ने ही उन लोगों के कान भर दिए कि लड़के की मां तो शादी के बिल्कुल पक्ष में नहीं हैं, उनका बस चला तो वो ये रिश्ता हरगिज़ होने नहीं देंगी... उन्हें आपकी लड़की फूटी आंखों नहीं सुहाती, न जाने क्या - क्या कहती हैं उसके बारे में!

और बस, इन ज़हरीले बोलों ने अम्मा के प्रति उनके सारे सम्मान को सोख लिया।

बेटे को अपने आप पर ग्लानि हुई कि उसे अपनी मां के अधिकार के लिए उस समय सजग रहना चाहिए था।

अब अपनी विधवा मां का दर्द याद कर के आंख बेटे की भी भीग गई।

लेकिन सुबह जाना था, इसलिए जबरन सोने की कोशिश भी करनी ही थी।

कुदरत जिसने भी बनाई है, कुछ तैयारी से सोच- समझ कर तो बनाई ही होगी।

उसके पास भी जगत के जंजाल के बही -खाते, चौपडियां होती ही होंगी, जिनमें लिखता होगा सब कुछ।

सबका नसीब लिखता है तो नियति भी तो लिखता होगा।

***