“जंगली फूल
कब पनप जाते हैं यूँ ही,
न जाने कैसे,
बिना किसी देखभाल के,
कौन जाने.
न उन्हें पानी चाहिए,
न धूप की दरकार
सहारा भी कोई नहीं,
न कोई वृक्ष ही आस-पास!
वह बढा करते हैं
बेसब्रे-से
बेहया की बेल की तरह,
बैंगनी रंग के जिसके फूल
उग आते हैं कहीं भी,
तालाब-पोखर के किनारे
और बिखेर देते हैं,
ठंडी हवा की खुशबुएँ!
ऐसा ही एक फूल हूँ,
मैं भी शायद,
बेहया का,
वही बैंगनी,
ताल के किनारे,
झुरमुटों के साए में
हूँ अनजान
अपनी जिजीविषा से भी!”
मैं हमेशा की तरह ऑफिस में बैठा, खाली समय में फेसबुक ब्राउज़िंग कर रहा था. अचानक इस अनजान सी कविता की पंक्तियों ने मुझे आकर्षित किया. मुझे पता ही नहीं चला कि धीरे-धीरे मैंने उस प्रोफाइल की कितनी पोस्ट, कितनी कविताओं को पढ़ लिया. एक भी कविता ऐसी नहीं थी जिसने मेरे अंतर्मन को स्पर्श न किया हो. घड़ी की सूइयों पर नज़र डाली तो पता चला कि लगभग चालीस मिनट से मैं माधुरी की टाइम लाइन में डूबा रहा था. लघु कथाएं भी जिन्दगी की जिजीविषा के ताने-बानों पर बुनी आपकी और हमारी ही स्मृतियाँ-सी थी, जिन्हें जज्बातों की स्याही में किसी ने जैसे पन्नों पर बस उकेर भर दिया हो.
लगभग दो घंटे बाद जब मैंने फेसबुक के नॉटीफिकेशंस चेक किये तो उनमे माधुरी के लाइक के साथ एक स्माइली का चिन्ह भी मौजूद था.
मेरी अगली कविता पर माधुरी का लाइक ४२ अन्य लाइक्स में से एक था, लेकिन इतना जरूर समझ में आ गया था कि वह अब मुझे फॉलो कर रही थी, और मैं उसकी कविताओं के लिए उत्सुक रहता था. वह बहुत कम लिखती थी. बमुश्किल हफ्ते में एक बार! जम्मू के किसी वीमेन पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में वह मनोविज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर थी, यह उसकी प्रोफाइल को खंगालने पर पता चला. उसकी प्रोफाइल और इन्फो में केवल उसका स्टेटस--
“कुछ नहीं चाहिए मुझे. न चाँद-सितारे, न कुछ और. बस सुनहरी धूप का है इंतज़ार मुझे. कुछ अलग हूँ न मैं”
लिखा था, और विवाहिता भी लिखा था. उसके सारे फोटोज में केवल आठ साल के बेटे अनुज तथा १४ साल की बेटी तृष्णा के कुछ चित्रों के अलावा कुछ नहीं था. एक बात और, मैं उसका फेसबुक मित्र नहीं था, उसने मुझे रिक्वेस्ट भेजी नहीं थी, और मैं उसे भेज नहीं सकता था, क्यूंकि वह सेटिंग डिसेबल्ड थी. राहत की बात यह थी कि उसे मैसेंजर पर सन्देश भेजा जा सकता था. यह उसके ऊपर था कि वह उन्हें पढ़े, जवाब दे, न दे, ट्रैश कर दे या फिर आपको ब्लाक ही कर दे. अक्सर महिलायें ऐसा करती हैं, कुछ अनचाहे से, और फिजूल संदेशों से स्वयं को तनावमुक्त रखने के लिए.
एक जगह उसने लिखा,
“सन्डे का ही तो वेट करती हूँ मैं… बाकी दिन क्या है जिन्दगी में. रोज जियो-रोज मरो. और सन्डे को मैं होती हूँ, मेरे बच्चे और कुछ यादें….बस हर सोमवार से होता है इंतज़ार मुझे अगले रविवार का ही! हो सके तो इस बार जल्दी आना तुम… ओ रविवार”,
दूसरी पोस्ट में,
“इन पर्वतीय तलहटियों में, धूप गर मिल जाए, तो फिर और क्या चाहिए. सच. कुछ भी नहीं! और आज फिर, छायी है, भरपूर धूप… कुछ मद्धिम कुछ सुनहरी, सब मेरे मन की.
लिखा था, और ढेर सारे प्रसन्नता के स्माइली. जैसे-जैसे मैं फेसबुक के उसके पन्ने पलटता गया यह दोनों स्टेटस अक्सर, बार-बार सामने आने लगे. हर रविवार जैसे खुशनुमा बनाने पर आमादा हो, और हर धूप में जैसे माधुरी का मन नैसर्गिक रूप से स्वछन्द विचरने को तैयार हो, उसी पर्वत की तरह जिसे वह अपने घर से नमन करती थी.
एक कविता आज पोस्ट की माधुरी ने, रात के लगभग ११ बजे होंगे, उनींदेपन के बावजूद मैं उठ बैठा, लेकिन वह सिर्फ दो लाइन थी,
”धूप भी गुम है आज
मुझ-सी ही गुमसुम
तबियत इसकी भी
लगती नासाज!”
एक अदद लाइक के अलावा कुछ लिखना बनता नहीं था, पर फिर भी मैंने लिखा,
“इस धूप में
क्यूँ खोजते हो खुद को,
कभी चाँद की बात करो,
तारों की टिमटिमाहट पर
भी कभी गौर तो करो,
धूप आज नहीं है आज
छाए हैं जरूर कुछ बादल
लेकिन रोके कब रुका है प्रभात
चाहे कितनी भी लम्बी हो रात
भला यह गम भी कैसे
बन सकेगा बाधा फिर आज!”
और आज, अप्रत्याशित रूप से लाइक, स्माइली के साथ मैसेंजर में खटखटाहट हुई. मेरी स्पंदन तेज़ हो गई, भय सा व्याप्त हुआ कि शायद कुछ ज्यादा हो गया. चार लाइन की पोस्ट पर आठ लाइन का कमेंट, और वह भी बिना मित्रता के--- बहुत नाइंसाफी है ना! पर ऐसा कुछ भी नहीं था. माधुरी ने अभिवादन के बाद लिखा था कि,
“क्या कहूं, मैं तो सोचती ही रह गई, और आपने मेरी पंक्तियों को न केवल पूरा कर दिया, ….अपितु उन्हें नया आयाम भी दे दिया. आभार, आपका.”
मैंने माधुरी को धन्यवाद दिया और उनसे उनकी नई रचनाओं के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करता, तब तक वह “बाय” बोल कर ऑफलाइन हो गई!
हर तरह के प्रयोग थे माधुरी की रचनाओं में, प्रकृति के चित्र, धूप और स्त्री मन को लेकर. पर… लगता था कि उसकी हर पोस्ट के साथ उसकी कविताओं का ओज, और पैनापन मद्दिम होता जा रहा था... लगता था जैसे उसका कहीं कुछ खो गया हो, या फिर कोई नासूर सा हो, जो समय के साथ-साथ रिस रहा हो. माधुरी की कविताओं, उसके संत्रास के पन्ने मुझे बार-बार दिखते रहे.
इसके बाद लगभग चार महीने का खालीपन था माधुरी के अपने पन्नों पर, जो यूँ तो उसके किन्हीं अपने, और बेहद अपने अहसासों से रंगे हुए थे अभी तक, कुछ अदद कविताओं में.
धीरे-धीरे मैं समझ पा रहा था. उसकी रहस्यमय जिन्दगी के एकाकीपन की परतें खुलती जा रही थी, पर वह सब मेरी कल्पना या विशुद्ध अनुमान मात्र था, मैं गलत भी हो सकता था. मेरा यह यकीन इसलिए भी था कि जब माधुरी की वापसी हुई तो उसकी पहली पोस्ट थी,
“जिन्दगी की परवाह न करना भी,
आसां नहीं है उतना…
जितना सुलझाओ,
उलझती है गुत्थी इसकी!”
और फिर यह पोस्ट मुकम्मल करती सी दिखती थी माधुरी की जिन्दगी की असलियत को,
“मेरा दिन
कोई दिल बहलाने का भी जरिया नहीं,
ओ सुनहरी धूप,
माना कि कशिश है तुममें
मुझे आकर्षित करने की,
तुम बिन हूँ अधूरी मैं
पर ऐसा भी नहीं
कि नहीं जी पाऊंगी
धूप की इन
सुनहरी किरणों बिना,
क्यूंकि
पर्वतों के साए में पली हूँ मैं,
धूप-और छाँव के रिश्तों को
बखूबी निभाना
मुझे भी आता है.”
फिर माधुरी ने पोस्ट की अपनी वह लाइनें जो काफी समय बाद फेसबुक के लिए प्रस्तुत हुई थी,
“मुझे जीने के लिए
किसी बहाने की जरूरत नहीं,
न ख्वाबों को जीने में
है यकीं मेरा,
फिर भी,
तुम मेरे लिए
एक खुशनुमा ख्वाब से
कम भी नहीं,
होगे धूप का अहसास
तुम जरूर औरों के लिए
मेरे लिए तो
जन्म-जन्म का अहसास हो
जैसे सुनहरी किरणों के साए से
झांकती हो किस्मत मेरी.”
माधुरी ने बताया था कि वह अमृता प्रीतम की बहुत बड़ी प्रशंसक थी. इमरोज की भी. एक जगह माधुरी ने अमृता की पसंदीदा लाइन लिखीं,
तुम मिले
तो कई जन्म
मेरी नब्ज़ में धड़के
तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए--
एक गुफा हुआ करती थी
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजुओं में लेकर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह क़सम!
यही महक थी जो उसके होठों से आई थी--
यह कैसी माया कैसी लीला
कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे
या वही योगी है--
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ... और वही महक है…
-अमृता प्रीतम
बहुत दिन हो गए थे. माधुरी ने फेसबुक से अपना नाता लगभग तोड़ रखा था. न कोई पोस्ट, न लाइक न कोई स्टेटस...जिन्दगी यूँ ही चल रही थी. अचानक एक दिन मैसेंजर पर प्रकट हुई…”नाईस प्रोफाइल पिक”, के कमेंट के साथ. ...मैंने उसका आभार अदा किया. सीधे पूछा कि कोई पोस्ट क्यूँ नहीं आ रही आपकी, तो एक सपाट जवाब…
”जिन्दगी की तन्हाईयाँ इतनी भी खुशगवार नहीं कि फेसबुक पर सब उड़ेल दिया जाए!”
“एकाकीपन भी तो कुछ अच्छा नहीं न?”, मैंने उसे खुशगवार बनाने की कोशिश की.
“आप खुशनसीब हैं...आपकी कवितायें खूबसूरत हैं..आपके भावों से आपका व्यक्तित्व झलकता है", “....और जितना मैंने आपको पढ़ा है, आपकी कवितायें अद्भुत हैं…”,
“अरे नहीं..”,
मैंने कहा.
“आप लिखते रहिएगा...बहुत अच्छा लिखती हैं आप, मुझ से भी कहीं अधिक !...”,
मैंने उसका मान रखते हुए कहा.
दीवार घड़ी पर नज़र गई. रात के ११.१५ का समय था. बातों का सिलसिला जारी था. माधुरी ने अमृता प्रीतम से अपने प्रेम के साथ-साथ महादेवी वर्मा, डॉ हरिवंश राय बच्चन और अमृता प्रीतम के लेखन के पहलुओं पर भी चर्चा की. तब मुझे लगा कि मैं कितना अल्प ज्ञानी हूँ, और उसे कितनी समझ है हिंदी साहित्य की. यकीनन साहित्य की बारीकियों पर उसकी नज़र का पैनापन सराहनीय था. उसके लेखन से किसी का भी मुग्ध हो जाना निश्चित था. उसने एक बार भी मुझे ऐसी बातों का आभास नहीं कराया जो मेरे साहित्यिक बौनेपन की ओर संकेत करती थी. साथ ही, उसकी बातों में कोई अभिमान या गुरूर नहीं था, थी तो बस सौम्यता और सद्भावना.
“श्योर?”,
के प्रश्नवाचक चिन्ह के सहमति युक्त प्रत्युत्तर ने बातों के सिलसिले को जमाये रखा. और उन बातों से खुली कई परतें-- ज्ञान की, साहित्य की और कुछ अनजाने से पर अपनत्व युक्त संबंधों की! मैंने ब्राउज़र बंद करते समय देखा. एक घंटा अडतीस मिनट तक का चैट सेशन रहा था हमारा. जहाँ उसने सब अभिरुचियों पर बात की थी, पर फिर भी जितनी बात हुई थी उसकी अपेक्षा बहुतेरे प्रश्न अभी भी अनुत्तरित थे.
अब जब भी वह फेसबुक पर ऑनलाइन होती या तो स्वयं सन्देश भेजती, या मेरे भेजे सन्देश का निश्चित ही उत्तर देती. साधारणतः उसका समय रात को ही होता, देर रात को. दिन में या दोपहर में उसका फेसबुक से सम्बन्ध-विच्छेद ही रहता था. मैंने माधुरी से पूछा भी कि क्या उसने कोई अपना कविता संग्रह प्रकाशित कराया है, जिस पर उसने नकारात्मक उत्तर देते हुए कहा कि न तो किया है और न ही भविष्य में ऐसी कोई संभावना है. मैंने कुरेदा तो, बोली,
“जाने दीजिये".
इस बीच उसने स्वयं ही मुझे मित्रता सूची में जुड़ने का आमन्त्रण भी दे दिया था, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया था.
माधुरी ने बताया कि उसका छोटा सा घर तवी नदी के दक्षिणी तट के पास स्थित है. दरअसल जम्मू शहर पूरा ही तवी नदी के इर्द-गिर्द बसा है. अंतर इतना है कि नया जम्मू नदी के दक्षिणी ओर स्थित है. शिवालिक पर्वतों की असमान पहाड़ियों व टीलों के बीच स्थित इस शहर में माधुरी के अहसास जिन्दा हैं-- बचपन से लेकर अब तक के. जिधर निकल पड़ो उधर ही मंदिर--एक से एक प्राचीन और खूबसूरत, श्रद्धालुओं से समृद्ध. क्या नहीं है माधुरी के लिए इस मंदिरों के शहर में जो उसे चाहिए आत्मसंतुष्टि के लिए!
आज मैंने सोच रखा था कि माधुरी से कुछ न कुछ उसकी जिन्दगी के अनछुए पन्नों को जरूर सुनूंगा.
“माधुरी, पहली बार आपने कब लिखा था?”,
मैंने पूछा.
“हम्म...शायद कक्षा आठ में, पर चोरी छिपे!”,
उसने बताया.
“और नियमित कब से?”
“वह तो अभी भी नहीं लिख पाती मैं. दरअसल मेरी गति बहुत धीमी है. जिस गति से मैं जिन्दगी जीती हूँ उससे कुछ कम गति से ही लिख पाती हूँ….और वह भी तब जब आस-पास कोई न हो. जब यूनिवर्सिटी ने न हूं, या बच्चे स्कूल गए हों. दबाव में कभी नहीं लिख पाई में. अगर कहा जाए कि मैं अमुक विषय पर लिख दूं, तो यह मेरे लिए असम्भव है",
माधुरी ने जो बताना शुरू किया तो रुकी ही नहीं.
“... तो क्या चीज़ आपको प्रेरित करती है लिखने के लिए?”,
“कुछ भी जो आस-पास हो, और मन अच्छा हो, तो कविता बन जाती है. कुछ नहीं चाहिए मुझे. और हाँ, उजली धूप तो जैसे मेरे तन के साथ मेरे मन को भी खुशनुमा बना देती है-- सब भाव प्रखर हो जाते हैं धूप में मेरे! मेरी अधिकतर रचनाएं इसी उजाले की देन है. और अगर उदासी हावी है मेरी रचनाओं पर तो समझ लीजिये कि मैं रूखे-सूखे मौसम में बंद कमरे में बैठ कर नैराश्य के बादलों की ओर ताक रही हूँ, जिन्होंने शायद न खुलने और न ही बरसने का मन बना रखा है, पर कब तक!"
आज लगता था कि माधुरी अपनी जीवन के अनछुए तथा सार्वजानिक सभी पन्नों को स्वेच्छा से साझा करने के मन से बात कर रही है. मैंने मर्म पर चोट की, पूछा,
“तो कोई संग्रह क्यूँ नहीं प्रकाशित कराती तुम?”
...अब हमारे बीच औपचारिकताओं के बोझिल शब्दों ने अपनत्व के शब्दों से स्वयं को परिवर्तित कर लिया था. हालांकि वह मुझे अभी भी आप से संबोधित करती थी पर स्वयं को तुम कहलाने का आग्रह था उसका. साथ ही यह भी कि हमारी बातों में आभार, धन्यवाद तथा इस सरीखे औपचारिक शब्द वर्जित हैं. परन्तु, फिर वही बात… माधुरी ने कहा,
“छोडिये भी… देखिये यहाँ तो बादल घुमड़ रहे हैं, धूप आ जा-रही है, लगता है कभी भी बारिश होकर ही रहेगी…और मेरी धूप गुम हो जायेगी फिर से… आपके यहाँ कैसा मौसम है?”,
लेकिन मैं जिद पर अड़ा था. मैंने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए दोहराया कि,
“दिक्कत क्या है अपनी रचनाओं को सामने लाने में?”.
“जानना चाहेंगे आप?”,
इस बार माधुरी मूड में आ गई थी, “जरूर", मेरे कहते ही उसने लिखना शुरू किया,
“अगर संक्षेप में कहूं तो… समझिये वह नहीं चाहते कि मैं लिखूं”.
मैं अचंभित था. आज के इस समय में, एक पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज की फैकल्टी की सदस्या यह कहे कि उसे उसके पति से अनुमति नहीं है कवितायें लिखने की, या उनका प्रकाशन करने की, तो कुछ अद्भुत सा है न?
“ऐसा क्यूँ, माधुरी?”, मेरे पूछने पर उसने बात को घुमाना चाहा, बोली, “ऐसा भी नहीं कि मैं अपने मन का कर नहीं सकती. जिस दिन तूफ़ान आएगा, नदी अपने तटबंध को तोड़ देती है न?... तो उम्मीद कीजिये कोई दिन शायद ऐसा आये, और फिर नदी अपने नैसर्गिक प्रवाह से इतर चल पड़े.. ”,
“पर नैसर्गिक प्रवाह तो बहते जाना है ना, निर्बाध?, मैंने उसे विषय पर लाने की कोशिश जारी रखी.
“हाँ, बस वह नियति के फेर में बंध गई है अभी…छोडिये अब…”,
कहकर उसने मुझसे अपना पीछा छुड़ाना चाहा. मैं भी समझ गया कि वह और कुछ बताने को तैयार नहीं है, इसलिए मैंने विषयांतर करना ही उचित समझा.
बातें होती रहीं यूँ ही, दिन बीतते गए, कभी वह मेरी कविताओं की गहराई में जाती, कभी मैं उसकी कविताओं पर चर्चा करता, और भी बहुत बातें होती, पर वह विषय अछूता ही रहता. उसकी बातों से मेरे प्रति आदर और एक अलग सम्मान झलकता था, जिसे मैं सहजता से महसूस कर पाता था.
इस बीच एक घटना हुई. मेरे मित्र ज्वलंत सपत्नीक एक दिन के लिए आये. वह आर्मी में थे, और उनकी पिछले साल ही पोस्टिंग हुई थी जम्मू में. उनकी पत्नी अनुभा अपना शोध भी वहीँ से कर रही थी, हिंदी साहित्य में ! उनसे जिक्र चला, तो सारी बातें सामने आई. संयोग से उसी कॉलेज से उसके गाइड भी सम्बद्ध थे. हालांकि वह सीधे माधुरी के संपर्क में नहीं थी, पर फिर भी अन्य फैकल्टी के लोगों के साथ उससे जुडी थी. वह एक बार उसके घर भी जा चुकी थी.
अनुभा ने बताया कि माधुरी जम्मू की ही मूल निवासी हैं, और उनके पेरेंट्स भी आर्मी में थे, माधुरी कभी जम्मू छोड़कर नहीं गई थी. उसके पिता भी रिटायरमेंट के बाद वहीँ सेटल हो गए थे. माधुरी का प्रेम विवाह था-- पर ऐसा प्रेम जो उसने काफी अनमने ढंग से स्वीकार किया था. वह अपने विषय में गोल्ड मेडलिस्ट थी, इसलिए उसे यूनिवर्सिटी ने स्वयं ही असिस्टेंट प्रोफेसर की पोस्ट पर ज्वाइन करने का ऑफर दिया था. कृष उसके विपरीत हालांकि एक संपन्न औद्योगिक घराने से जुड़े थे, पर वह कई विवादास्पद मामलों से जुड़े थे. निश्चित रूप से यह सब माधुरी के लिए अवसादपूर्ण परिस्थितियां बनाने के लिए पर्याप्त था.
कृष से विवाह तो हो गया, पर वह चाहते हुए भी उसका संयुक्त परिवार, पेरेंट्स तथा अन्य रिश्तेदारों से तालमेल नहीं बिठा पाई थी. कृष के दो और बड़े भाई भी थे जिनकी पत्नियां भी संपन्न बिज़नस परिवारों से थी और वह उस ताने-बाने में अच्छी तरह से फिट हो गई थी, जबकि माधुरी शादी के सालों बाद भी वहां विशाल घर के एक कमरे में सिमटी हुई अपनी जिन्दगी को जीने की जिजीविषा में तिनका-तिनका टूट रही थी. फिर भी, माधुरी ने अपनी रिक्त्तता को लेखन के माध्यम से पूर्ण करना चाहा तो सबसे पहले विरोध का स्वर स्वयं कृष की ओर से ही उठा. वह बात दीगर थी कि पहले कृष उसकी कविताओं का दीवाना हुआ करता था.
अब कॉलेज, घर, रोजमर्रा के काम, पूरे परिवार के भोजन के लिए किचन में जुटना-- बस यही जिन्दगी रह गई थी माधुरी की. फिर, एक दिन तो हद ही हो गई, जब माधुरी को इस सबसे अपने कुछ निजी लम्हे चुराकर कविता लिखता देख लिया कृष ने. उसी समय उस डायरी को चिंदी-चिंदी कर हवा में लहरा दिया था उसने. चीखते हुए. फिर सालों तक केवल ख़ामोशी बची थी उनके रिश्तों में. अपने बिज़नस में असफल कृष की तरह-तरह की नशे की आदतें असहनीय होती जा रही थी, फिर भी माधुरी ने अपने धर्म के निर्वहन में कोई कमी नहीं छोड़ी.
अनुभा को जो भी जानकारी थी उसने बताई माधुरी के बारे में. उसने यह भी बताया कि लगभग छः साल बाद माधुरी को अंततः उस परिवार से अलग अपने लिए एक ठिकाना बनाना पड़ा. उसके पिता ने मदद की माधुरी की और कुल मिलाकर एक अदद मकान, आस-पास नदी, और वृक्षों से घिरा प्राकृतिक दृश्य… अरावली की पहाड़ियों से उगता सूरज और सांझ के समय अपनी छटा बिखेरता सूर्यदेव इतना मनोरम दृश्य उत्पन्न करता जैसे कि हर रोज़ एक कविता जन्म लेने को तैयार हो. उसने घर को ऐसा खूबसूरत लुक दिया था, कि जो जाता तो उन पगडंडियों से उतरकर उसके छोटे से हरे-भरे खूबसूरत और सुरुचिपूर्ण घर से उसका आने को मन ही नहीं होता. उसने अपने स्टडी रूम को वुड कॉटेज के रूप में बनाया था. कृष ने भी अपना छोटा-मोटा काम अलग से कर लिया था. उसके नशे की आदतों को माधुरी ने अपनी लगन और जिद से, डी-एडिक्शन सेंटर पर जाकर छुडवाने में भी काफी सीमा तक सफलता पा ली थी. पर, उसका लिखना कृष को अभी भी पसंद नहीं था माधुरी का. और जितना लिखा था, उसको प्रकाशित करना तो बिल्कुल भी एप्रूव नहीं किया कृष ने, न जाने किस अनजान भय के चलते!
अनुभा ने यह भी बताया कि दोनों बच्चों अनुज और तृष्णा को पालने की पूरी जिम्मेदारी माधुरी की ही है, पति का कोई योगदान हो उसमें, ऐसा कभी जाना नहीं उसने. माधुरी की ही तरह सौम्य और सरल हैं बच्चे भी, दोनों कुशाग्र! हमेशा एक मुस्कान के साथ कॉलेज में मौजूद माधुरी को सब-- उसके स्टूडेंट और सहयोगी, एक शांत और एकाकी शिक्षक के रूप में जानते हैं वहां, शायद ही कोई घनिष्ट मित्र हो उसका.
अनुभा और ज्वलंत को सड़क मार्ग से श्रीनगर जाना था, सो अगले दिन भोर ही वह चले गए. उन्हें विदा करने के बाद, चाय पीते समय जब मैसेंजर चेक किया तो माधुरी का मैसेज पड़ा था.., “मित्र, एक नई कविता भेज रही हूँ, आशा है फेसबुक पर पोस्ट करने की सहमति दोगे?” ऐसा कोई बंधन नहीं था की मुझसे पूछे बगैर माधुरी फेसबुक पर कविता पोस्ट नहीं कर सकती, पर कुछ हफ़्तों से यह अलिखित अनुबंध सा बन गया था दोनों के बीच. कविता यूँ थी..
“तुम निर्जीव न बनो
तो बेहतर है,
धूप का इंतज़ार
न भी करो,
वह यहीं कहीं है,
शायद पर्वतों की श्रृंखला के
उस पार,
दिखेगी क्षितिज पर
या फिर होगी उदय,
स्वर्णिम किरणों के संग,
तब देखना,
तुम कहोगे मुझे
कि जिन्दगी बहुत खुशनुमा है,
मेरे लिए भी
हर रोज शायद”
मैंने तुरंत सन्देश लिखा,
“बहुत खूब माधुरी, पर अधूरी है, कहो तो मैं पूरी कर दूं?”,
और उत्तर की प्रतीक्षा के बिना मैंने उसमे जोड़ा,
“सुनहरी धूप की तरह
सतरंगी हो ही जायेंगी
मेरी कुछ यादें
किसी एक दिन,
यह जिंदगी मेरी फिलहाल
हवाओं के रंग की हुई है
हर पल एक टीस
चुभ जाती है सीने में
रह-रह कर,
कोई खुशनुमा याद तो दो
हो सके तो झाँक लो
मन में मेरे
मेरी कमियों से पर्दा उठाओ
मन की परतों को हटाओ
चुप्पियाँ तो असह्य हैं
पर दिल की टूटन से
मुझे थोड़ा अलग रखो,
इतना तो हक
बनता है न मेरा!”
मैंने सलाम किया माधुरी के जज्बे को, जिसमें उलझी-लिपटी वह जिन्दगी जी रही थी, कुछ अनुभा की बातों के उलझाव, कुछ मेरी माधुरी से निकटता और कुछ यह ताज़ी-ताज़ी जज्बाती पंक्तियाँ. मेरी दृढ़ता के बाद भी आँखें जो नम हुई तो लगा कि अश्रु नीर बहने को ही उतारू हैं…! मैंने उन्हें स्वाभाविक रूप से धीरे से बह जाने दिया!
दो घंटे बाद नोटिफिकेशन की ट्रिंग हुई तो दिखा कि माधुरी ने मैसेंजर पर एक थम्स अप का निशान मुझे भेजा था, यानि कि सहमत !
मैं जान चुका था कि माधुरी की जिन्दगी जटिल होकर भी उसे प्रिय थी. जिजीविषा ही उसे बेहतर मार्ग दिखा रही थी, और वह बढती जा रही थी, एक उस रास्ते पर, जो जिन्दगी के किसी मोड़ पर उसका प्रिय होना ही था. उसकी जिंदगी की प्राथमिकताओं, और मन में झांक चुका था मैं. इतनी दूर से ही सही. उसने मुझे प्रभावित किया था, अगर न कहूँ तो न्यायपूर्ण नहीं होगा. अच्छी बात यह थी कि वह जिंदगी को उसी की रफ्तार से जी रही थी. जो जुनून था, वह सिर्फ उसके मन मे था, उसके तरीकों में नहीं था. अभिमान उसे छू तक नहीं गया था. शायद होते हैं ऐसे भी लोग.
मुझे माधुरी ने अपना न तो फोन नंबर दिया था, और न ही कोई ई-मेल या वास्तविक पता. मैंने कभी उसकी जरूरत समझी भी नहीं थी. कुछ रिश्तों को अनाम छोड़ देना ही हितकर होता है-- सबके लिए. और उधर, आशा की किरण धूमिल नहीं हुई थी माधुरी के लिए, यह भी संतोष था. बेहया का फूल कहीं भी पनपता रहता है, चाहे इसे इंग्लैंड में मोर्निंग ग्लोरी कहें या हम देसी भाषा में बेहया, वही रहता है न यह...सतत जिजीविषा से संघर्षरत, औरों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए...चाहे जंगल का कोना हो या आपके घर के पीछे की खाली जमीन, या कोई पोर्टिको में रखा उपेक्षित सा गमलों का एक समूह, उसकी रिक्तता को बखूबी भरना, मन मोह लेना, और फिर धीमे-धीमे शांत भाव से सिमट जाना, कल के नए जीवन के लिए, नई ऊर्जा के साथ-- बस यही इसकी नियति है.
कल रविवार था, माधुरी का पसंदीदा दिन. अब तक यह समझ आ चुका था कि माधुरी हर रविवार को अनाथालय में जाकर उन बच्चों के साथ अपने आधे दिन का समय बिताती थी, जिनका कोई नहीं था. वहां उसे जो सुकूँ मिलता था, उसे वह साझा भी नहीं करना चाहती थी. कुछ अलग थी न!
...और मैं निश्चिंत होकर धीरे-धीरे नींद के आगोश में चला गया. रात को ठीक से न सो पाने पर सवेरे जो नींद आती है वह बहुत स्वप्निल होती है. जिन्दगी के लम्हे कुछ ऐसे ही रिश्तों की डगर से होते हुए बीतते जाते हैं, जिनको हम शब्दों में बयाँ नहीं कर सकते.
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