Zee-Mail Express - 9 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 9

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जी-मेल एक्सप्रेस - 9

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

9. तस्वीर का दूसरा रुख

क्वीना ने लिखा है कि कुणाल से मिली जानकारी के मुताबिक उसे प्रैक्टिकल में पूरे नंबर मिले हैं।

हो सकता है, वह टीचरों की चापलूसी वगैरह करके क्वीना के नंबर पता लगा लाया होगा। क्या पता, नंबर बढ़वा भी आया हो।

लड़कों के भीतर यही तो विशेषता होती है कि वे लगकर पढ़ाई करते हों या नहीं, पर अपना टार्गेट हिट करने के प्रति पूरी तरह सजग रहते हैं।

चेक वाली घटना के बाद से धमेजा और पूर्णिमा के बीच अंडरस्टैंडिंग बनने लगी है। अब वे एक-दूसरे को सहयोग करने लगे हैं। सोनिया अब दोनों कैबिनों के बीच लहराती रहती है। चरित भी अनुभाग में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति के तौर पर देखा जाने लगा है। सोचता हूं, वक्त कितनी तेजी से बदलता है। अभी कुछ समय पहले तक चरित की मौजूदगी इतनी गौण थी कि मैं उसे ठीक से पहचान भी नहीं सकता था। वह अपने आप में गुमसुम रहने वाला एक ऐसा लड़का था जो बड़ी खामोशी से अपनी ट्रेनिंग पूरी कर रहा था मगर अब सेक्शन के लगभग हर बड़े निर्णय में उसकी सहभागिता निश्चित थी। कई मामलों में वह सीधे-सीधे जीएम मैडम को रिपोर्ट करने लगा था। पूर्णिमा चरित की योग्यता को लेकर शुरू से आश्वस्त थी, इसलिए उसकी इस प्रगति को वह अपनी सफलता की तरह आंकती है।

इधर, पूर्णिमा की ही तर्ज पर धमेजा ने भी सोनिया को प्रोत्साहित करने का बीड़ा उठा लिया है। सोनिया का शोध पर्यटन से संबंधित है। इस लिहाज से धमेजा इसे हमारी कंपनी के लिए फायदेमंद सिद्ध करने में जुटा है। सोनिया भी इन दिनों काफी सक्रिय हो गई है। वह विभिन्न विभागों में जा-जाकर संबंधित जानकारी एकत्रित कर रही है। दफ्तर का माहौल काफी सकारात्मक दिखने लगा है।

आज ऑफिस में ‘बेहतर जीवन’ पर ट्रेनिंग थी। दफ्तरी कारोबार से हटकर यह अलग तरह की ट्रेनिंग थी और इसीलिए पूर्णिमा ने मुझे भी इस ट्रेनिंग में नामित कर दिया था कि देखूं, यह नया विषय कितना कामयाब रहा।

क्लास लगभग पूरी भरी थी। हर विभाग और उम्र के प्रशिक्षु इसमें बैठे थे। मणिशंकर जी के आश्रम से पधारे कोई सदानंद आचार्य क्लास ले रहे थे। उनका मानना था कि हमने अपनी जिंदगी खुद ही कठिन बना ली है और खुशियों को महंगा और असाध्य मान लिया है। वे कह रहे थे कि खुश तो अच्छे मौसम को देखकर भी हुआ जा सकता है मगर हम कभी मौसम को देखते ही नहीं। हमारी नजर में पैसे खर्च किए बिना न हम खुश हो सकते हैं, न ही अपनी खुशी का इजहार कर सकते हैं। पैसे खर्च किये बिना हम किसी को यह बता ही नहीं सकते कि वह हमारे लिए कितनी अहमियत रखता है। किसी के प्रति प्यार का इजहार भी करना हो तो वह पैसों के बिना नहीं किया जा सकता है।

“लेकिन हम सभी के पिटारे में तीन ऐसे शब्द हैं, जिनका जादुई असर होता है।” उन्होंने कहा कि हम सभी इन तीन शब्दों से भली प्रकार परिचित हैं मगर इनका इस्तेमाल करने में औपचारिक महसूस करने लगते हैं और एक सहज सुख से वंचित रह जाते हैं।

“क्या हमने कभी अपने माता-पिता से कहे हैं ये तीन शब्द?”

अचानक ही वे चरित की तरफ घूम गए, “आप अपना मोबाइल उठाइये, स्पीकर पर डालिये और अपने पापा को फोन मिलाकर ‘आइ लव यू’ कहिये।”

सभी की निगाहें चरित की तरफ घूम गईं। प्रशिक्षुओं में उत्सुकता की लहर दौड़ गई। बेटा पिता को ऐसा कहेगा, यह सोचकर ही सभी को अजीब-सा महसूस हो रहा था।

चरित चुपचाप खड़ा था। सभी चरित की परेशानी को समझ रहे थे। दोबारा-तिबारा कहने पर भी जब उसमें कोई हरकत न हुई तो वातावरण को सहज करने की कोशिश में सोनिया ने अपना फोन उठा लिया, “सर, मैं अपने पापा को फोन मिलाऊं?”

“ओके, आप मिलाइये, मगर पापा को नहीं, अपनी मम्मी को।”

अब सोनिया असहज हो गई।

सभी प्रशिक्षुओं को आनंद आ रहा था। साधारण-सी बात, मगर कितनी मुश्किल हो चली थी। सदानंद जी का मानना था कि प्यार की जरूरत हर इन्सान को और हर रिश्ते में होती है। हम प्यार तो करते हैं मगर इजहार करने में चूक जाते हैं। जबकि समय-समय पर ऐसी अभिव्यक्तियां जीवन को सरस और स्नेहिल बना देती हैं।

“मम्मा, आइ लव यू।”

अधिक सोच-विचार में पड़े बिना आखिर सोनिया ने अपनी मां से कह ही दिया।

“ओय होय, आज मां दी याद केस तरां आ गई?”

स्पीकर पर होने के कारण हम सभी सोनिया की मां के स्वर में छिपे उलाहने को साफ सुन पा रहे थे।

“चल छड़ परे, की चइदा है...” सोनिया की मां ने भावनाओं के ज्वार को नियंत्रित करते हुए, जैसे खुद को ही समझाया था कि किसी काम से सोनिया मां की चिरौरी कर रही है।

सोनिया भी उलाहने में छिपी पीड़ा को समझ पा रही थी। वह महसूस कर रही थी कि मां से अक्सर वह तभी लाड़ जताती है जब उसका कोई काम अटकता है।

“ओ मॉमा, यू आर सो स्वीट, आइ रियली लव यू...” सोनिया की आवाज में पछतावा भर आया था। उसने दो-तीन बार यही बात दोहराकर जब मां को यकीन दिलाया कि उसने वाकई बस यही कहने के लिए फोन मिलाया था तो उसकी मां काफी भावुक हो गईं।

“तैन्नु इक गल्ल दसां, आज मेरा जनम दिन ऐ, तू मैंनूं लाइफ में सबसे बड़ा गिफ्ट दित्ता सी...” फोन पर सुबकने की आवाज हम सभी के कानों से टकराई थी।

“मॉमा, मैं त्वाड्डे वास्ते केक लै के आवांगी,” कहते हुए सोनिया ने फोन उठाकर चूम लिया। मैंने पाया, सोनिया की आंखें सजल हो उठी थीं।

“ये तीन जादुई शब्द कभी गलत नहीं होते, हमेशा बेहतर जीवन की ओर ले चलते हैं, क्या आप एकबार ट्राइ करना चाहेंगे?” सदानंद जी ने फिर चरित से आग्रह किया।

चरित ढीठ की तरह सुनता रहा।

चरित को हठी बालक के रूप में देखकर मैं हैरान था। वह तो बहुत ही विनम्र और अनुशासनप्रिय था।

“अच्छा चलो, आप भी अपनी मां को फोन मिलाओ।”

सदानंद जी की इस छूट से चरित थोड़ा संतुलित हुआ और उसने मां को फोन मिलाया।

“हलो मम्मी, एक बात कहनी है, मैं बहुत प्यार करता हूं आपसे..,” चरित की आवाज गले के भीतर ही भर्राकर रह गई, मगर फिर किसी तरह साहसकर उसने कह ही दिया, “आइ लव यू मम्मी।”

“आइ लव यू...? मतलब...?” चरित की मां एकबारगी जैसे कुछ समझ नहीं पाई, मगर किसी अनहोनी की आशंका से जैसे उसका कलेजा धड़कने लगा था, “क्यों कह रहा है तू ऐसा? कहां है तू?”

चरित के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने चरित के पिता को पुकारा था, “अजी सुनते हो, बेटा खुदकुशी करने जा रहा है, और कोसते रहो उसे दिन भर...” चरित की मां बिफर पड़ी थीं, “सारा दिन उसे नाकारा कहते रहे, अब कर लो तसल्ली...” हड़बड़ाते हुए उन्होंने फोन चरित के पिता को थमा दिया था।

“ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्या कह रहा है चरित?” चरित के पिता फोन हाथ में लेकर भी सीधे बात नहीं कर पा रहे थे।

“आइ लव यू, कह रहा है...”

“तो, इसमें परेशान होने की क्या बात है?” वे खुद को भी ढाढ़स बंधा रहे थे।

“अरे, यह कोई साधारण बात है क्या? आज तक उसने कभी ऐसा कहा है तुमसे या मुझसे? मेरा बच्चा जरूर निराशा में डूबा है... मुझे तो उसके कहे में अलविदा जैसा भाव महसूस हो रहा है। मेरा दिल बैठा जा रहा है, तुम्हीं समझाओ, हमेशा ताने मारते रहते थे उसे...” चरित की मां लगभग रो पड़ी थी।

“मेरा बेटा ऐसा हरगिज नहीं कर सकता।” वे अपने आप में बुदबुदा रहे थे, मगर चरित से क्या कहें, समझ नहीं पा रहे थे।

क्लास में सन्नाटा छा गया, सभी स्तब्ध थे।

“हलो चरित, माइ सन, देख तेरी मां कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही है... कहती है, तू खुदकुशी...,” एक गर्वीली आवाज जैसे चटक पड़ने को तैयार थी।

“आप मुझे गलत समझ रहे हैं, मैं बिलकुल ठीक हूं, पा-पा,” चरित ने स्थितियों पर काबू करना चाहा तो जबान लड़खड़ा गई, लगा जैसे वह खुद से ही नियंत्रण खो देगा। उसके स्वर की तटस्थता तूफान का ऐलान करती, इससे पहले चरित ने खामोशी ओढ़ ली।

“पापा कहते जबान लड़खड़ाती है तेरी,” अपराधबोध से भरी आवाज में चरित के पापा कह रहे थे, “तेरी मां कहती है, मैं तुझे कोसता रहा। पर तेरा नाम लेकर भी, मैं तो दरअसल खुद को ही कोसता था, बेटे। अपनी नाकामी की खीज आखिर कहां निकालता?”

चरित चुप था। आज शायद पहली बार उसके पिता उससे अपना मन साझा कर रहे थे और वह उनके साथ खड़ा था।

“तू मेरा बेटा है, इसलिए मेरे संघर्ष के साथ-साथ मेरी सफलता-असफलता का भी वारिस है,” चरित के पिता का स्वर पश्चाताप से भीग गया था, “... अब मेरी विरासत ही नाकामियों और कुंठाओं से भरी थी तो मैं तेरे नाम और कर भी क्या सकता था... ” कोई ऊंचा पर्वत जैसे भुरभुराकर मिट्टी का ढेर हो गया था।

“पापा, हम लोग एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में हैं,” इससे पहले कि उसके पिता और भी बहुत कह बैठते, चरित ने बात संभालने की कोशिश की।

“ट्रेनिंग प्रोग्राम में? तो फिर ऐसी बातें क्यों कर रहा है?”

“इजहार करना जरूरी है, हमें सिखाया जा रहा है...”

चरित की बात सुनकर उसके पिता सकते में आ गए, “इजहार तो तब करोगे जब समझोगे।” भावुकता के ऊपर फिर वही उलाहनों की परत जा चढ़ी, “हैप्पी फादर्स डे और हैप्पी मदर्स डे कहकर इजहार करने वाली संतानें अकसर मां-बाप को अकेला बुढ़ापा भुगतने छोड़कर विदेश जा बसती हैं। ऐसे इजहार से क्या होने वाला है?” चरित के पिता ने तीन शब्दों के तिलस्म को चूर-चूर कर दिया था, “हमारे यहां यह सब कहकर बताने की जरूरत नहीं पड़ती। बेटा बाप के जोड़े-अरजे का वारिस होता है, फिर चाहे वह उसकी निराशा ही क्यों न हो। काश, तू मेरी कुंठा को समझ पाता, जान पाता कि मेरी झल्लाहट तेरी नहीं, अपनी नाकामियों पर थी। अगर तू महसूस कर पाता हमारे बीच की उस निकटता को कि तुझे कोसते हुए मैं खुद को ही कोस रहा होता था, तब तू अपने कंधे का सहारा देकर मुझे आश्वस्त करता और तुझे ‘लव यू - लव यू’ कहने की जरूरत नहीं पड़ती...”

सदानंद जी के साथ-साथ हम भी हैरानी से तस्वीर का दूसरा रुख देख रहे थे। चरित के पिता का दावा था कि हमारी संस्कृति कठोरता में भी कोमलता की परख करना जानती है, जैसे मिट्टी में दबा देने के बावजूद बीज, पेड़ बनकर हरहराता है, जैसे निर्मम चट्टानों से फूटकर पानी का झरना बरसता है, उसी तरह तानों-उलाहनों के बीच का अपनापन शब्दों में व्यक्त करने की नहीं, अनुभव करने की बात होती है।

पूरब और पश्चिम की हवाएं आपस में टकरा रही थीं, मगर मैं निश्चिंत था। जानता था, हमारी नजर विपरीत धाराओं के बीच भी संतुलन का आधार पहचान ही लेगी। सोनिया की मां को शब्दों का इजहार छू गया तो चरित के पिता को पुत्र के कंधे के सहारे की दरकार थी। दोनों की अपनी-अपनी जगह है, अपनी-अपनी अहमियत।

बहरहाल, इस तरह की ट्रेनिंग ने हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रम में एक विशेष स्थान बनाया और पूर्णिमा को हर ओर से बधाइयां मिलीं।

(अगले अंक में जारी....)