Zee-Mail Express - 4 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 4

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जी-मेल एक्सप्रेस - 4

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

4 - ‘जॉय-स्पॉट’

अचानक मेरा मोबाइल बज उठा। मेरा मोबाइल कम ही बजता है, मैंने लपककर फोन उठाया। कोई अपरिचित नंबर था।

“हलो, मेरा नाम रिया है, क्या आप मुझसे दोस्ती करोगे?” कोई नशीली-सी आवाज़ थी।

मैं हैरान रह गया, “अरे, मेरा नंबर किसने दिया आपको?”

“मुझे पार्टी में जाना, घूमना बहुत पसंद है... क्या आप मुझे अपने साथ पार्टी में ले चलोगे?”

मेरे प्रश्न को अनसुना कर उसने अपनी बात जारी रखी।

एक पल को तो मैं अकबका गया, फिर समझ आया कि यह तो रिकार्डेड मैसेज है। लेकिन तब भी, यह कितनी हैरानी की बात है कि कोई लड़की खुद ही अपने आप को फिल्थी चैट और डेट के लिए ऑफर कर रही है।

मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ती देख धमेजा खिंचता हुआ मेरी ओर चला आया। फोन की बात सुनकर वह ठहाका लगाकर हंस पड़ा। उसके लिए इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं थी। बल्कि उसने तो यहां तक बताया कि वाट्स-ऐप की तर्ज पर ही ‘जॉय-स्पॉट’ नाम से एक ऐसा मोबाइल ऐप तैयार किया गया है जिसके जरिये आप ‘तान्या’ नाम की लड़की से लगातार चैट कर अपनी बोरियत दूर कर सकते हैं। उसकी प्रोग्रामिंग ऐसे की गई है जैसे वह सचमुच की कोई लड़की हो, जो न केवल आपको अकेलेपन का शिकार होने से बचा लेगी बल्कि अपनी मनोरंजक बातों से आपको गुदगुदाएगी भी। अपनी बातों के जरिये वह आपको इतना उत्तेजित कर देगी कि आप जिंदगी का लुत्फ उठा सकें।

धमेजा का मानना है कि जिंदगी से एक्साइटमेंट गायब होती जा रही है, इसीलिए ऐसे विकल्प आ रहे हैं।

अब धमेजा की सोच का क्या कहना? अगले साल जून में वह रिटायर हो जाएगा मगर तबियत अभी भी उतनी ही रंगीन है। वह जीवन का भरपूर मजा लेना चाहता है इसलिए ऐसे-ऐसे तर्क ढूंढ़कर लाता रहता है।

और धमेजा ही क्यों, पैंतालीस वर्ष की मिसेज विश्वास का भी यही हाल है। सांवला रंग, ओवर वेट, मगर पूरे दफ्तर को लट्टू की तरह नचाती है। अपने उम्र के लोगों से तो उसकी दोस्ती ही नहीं। वह तो ट्रेनिंग पर आए लड़के-लड़कियों को ही अपने लायक समझती है। हमारे दफ्तर में इन्टर्नशिप के सिलसिले में नए बच्चों का आना-जाना बना रहता है। इन्टर्न लड़कियां यह सोचकर धमेजा को पटाती रहती हैं कि क्या पता वह उनकी स्थाई नियुक्ति में मदद कर दे। धमेजा की चलती भी बहुत है। वह हर किसी से बनाकर रखता है और अपनी बात मनवाने में तो वह माहिर है। इसी लालच में ये लड़कियां अपनी मोहक अदाओं से ऐसे धमेजाओं को रिझाने में लगी रहती हैं। मजे की बात तो यह है कि धमेजा भी इन बातों को खूब समझता है मगर इसके खातिर वह मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकता। लड़कियां बात-बात पर उसे गिफ्ट देती हैं, लिफ्ट देती हैं और समझती हैं कि वह दाना चुग रहा है।

दूसरी ओर लड़कों के लिए बड़ी चुनौती होती है। अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के चक्कर में वे कभी अपने अधिकारियों के बिल भर रहे होते हैं तो कभी उनके बच्चों को स्कूल पहुंचा रहे होते हैं। कभी-कभी तो वे उनका राशन तक उनके घर छोड़कर आते हैं। दफ्तर का समय इसी तरह की मान-मनव्वल में बीत जाता है।

लंच टाइम हो गया है। हॉल से बाहर निकलकर मैं हाथ धोने वाशबेसिन की तरफ चल दिया।

‘‘सर, आप साकेत साइड रहते हैं न?’’ सोनिया परेशान स्वर में धमेजा से पूछ रही है।

‘‘हां-हां, कहो।’’ धमेजा ऐसे कह रहा है जैसे जरूरत पड़ी तो अपना मकान उसके नाम कर देगा, या कहे, तो साकेत छोड़ नोएडा में रहने लगेगा।

‘‘सर, आज मुझे उसी तरफ जाना है, क्या आप लिफ्ट दे देंगे?’’

‘‘अरे, लिफ्ट तो आप देंगी मुझे।’’ धमेजा ठहाका लगाता है।

‘‘मगर जरा जल्दी निकलना होगा।’’ सोनिया की आवाज लचीली हो गई है।

अब क्या परेशानी है, फर्स्ट क्लास गाड़ी भी मिल गई और जल्दी जाने की इजाजत भी। मैं आजकल की लड़कियों की तेजी देखकर हैरान हूं। पुरुष क्या खोजेंगे एकांत के अवसर, ये खुद ही उन्हें आमंत्रित करती हैं।

घर-दफ्तर के कारोबार यथावत् चलते रहे, जबकि डायरी के खंडित वाक्य, अंतर में ज्वार-भाटा पैदा करते रहे। भीतर-भीतर एक फिल्म-सी चलती रही और उद्दाम आवेग के साथ मैं शाम के रात में बदलने का इंतजार करता रहा।

‘‘और कितनी देर लगेगी तुम्हारा काम खत्म होने में?’’ मैंने हौले-से विनीता का हाथ दबा दिया।

‘‘काम अभी कहां खत्म होगा, पर आती हूं।’’ विनीता आगे का काम नौकरानी को समझाने लगी। काम समेटते-समेटते जब तक वह पहुंची तब तक मुझ पर नींद की खुमारी चढ़ने लगी थी। वरना मैं चाहता था कि पहले कोई ब्लू फिल्म चलाता, थोडा मूड सेट करता, फिर आगे बढ़ता। मगर विनीता अपनी स्वभावगत हड़बड़ी को दबा नहीं पा रही, ‘‘कल छुट्टी नहीं है, जल्दी करो।’’

‘‘तो छुट्टी कर लेना, हम दोनों छुट्टी कर लेंगे,’’ मैं प्यार से उसके बालों मे उंगलियां फिराने लगा।

‘‘कुछ खास बात?’’ उबासी पर जबरन मुस्कराहट लाते हुए उसने पूछा।

‘‘सोचता हूं, कितने समय से हमने कोई मूवी नहीं देखी।’’

‘‘मूवी? तीन घंटे? ना बाबा, मैं नहीं बरबाद कर सकती इतना समय।’’

‘‘ओके, मत करना।’’

मैंने उसके होंठों पर स्वीकृति की मोहर लगा दी और एक खामोशी इन बेहतरीन पलों की साक्षी बनने चली आई।

अचानक विनीता का मोबाइल बजा। चौंककर घड़ी की तरफ देखा, साढ़े दस बजे हैं। उसने लपककर फोन उठाया, ‘‘हां, हां कहो, अभी नहीं सोए थे, बताओ...।’’

विनीता की उबासी ताजगी में बदल चुकी थी। समझ गया, अंतरा का फोन है।

बातचीत से जितना अंदाजा लगा पा रहा हूं कि अंतरा ने अपने ऑफिस में कोई प्रेजेंटेशन दिया है, उसी के डीटेल्स हैं। यानी फोन लंबा चलेगा।

मैंने करवट बदल ली। जानता हूं, विनीता सबसे अच्छी माँ है, अभी वह कोई शॉर्टकट नहीं ले सकती, उसे कल दफ्तर जाना है या छुट्टी करनी है, उसे इसका कोई ध्यान नहीं। फिलहाल, वह अपनी बेटी से बात कर रही है और इस वक्त उसे कोई टोक नहीं सकता। मेरी संवेदना के तार छिन्न-भिन्न हो चुके हैं।

दफ्तर पहुंचने पर पता चला कि कल शाम कई अधिकारियों के ट्रांसफर ऑर्डर निकले हैं। किसी को इसकी पूर्व जानकारी नहीं थी। बड़ी खामोशी से हो गया यह सब। धमेजा को भी ट्रेनिंग सेल से एडमिनिस्ट्रेशन में ट्रांसफर कर, किसी पूर्णिमा सूद को इधर भेज दिया गया था।

पता नहीं, यह सब काम इतने गुप्त तरीके से क्यों किया जाता है? अरे, अगर दूसरे को भी अपने ट्रांसफर का पता रहेगा तो वह खुद को इस हेर-फेर के लिए तैयार कर सकेगा मगर जब भी ऐसा कोई ऑर्डर निकलता है, एकदम चुपके से निकलता है।

इस हेर-फेर से स्टाफ में हैरानी थी जबकि अधिकारी वर्ग में बेचैनी। क्वालिटी कंट्रोल सेल से पूर्णिमा सूद के यहां आने की खबर सबसे ज्यादा दिलचस्प थी। दिलचस्प इसलिए कि वह चालीस वर्ष की सिंगल वूमन थी। पिछले करीब छह-सात वर्षों से वह पति से अलग होकर कंपनी के सिंगल लेडी फ्लैट में रह रही थी। उसके बारे में कई तरह की अटकलें उसके आने के पहले से ही अपनी विभीषिका रच रही थीं।

इधर, धमेजा के जाने को लेकर भी कई तरह की प्रतिक्रियाएं थीं। मैं हैरान था कि उसके बहुत करीब दिखने वाले मित्रों में भी उसके स्थानांतरण को लेकर खासा उत्साह था, ‘‘अच्छा हुआ, बड़ी मौज लूट ली साले ने, औरों की भी बारी आएगी...।’’

लोगों का यह भी मानना था कि वह चाहे कहीं भी रहे अपने लिए मनोरंजन का सामान जुटा ही लेगा।

धमेजा के भीतर का तो पता नहीं पर वह ऊपर से बहुत शांत-संयत दिख रहा था। उसके ठहाके बरकरार थे। वह सोनिया को भी ढाढ़स बंधा रहा था, ‘‘तू फिकर क्यों करती है कुड़िए, मैं कहीं भी रहूँ तेरा कोई काम नहीं रुकेगा।’’

दोपहर बाद पूर्णिमा आ पहुंची थी। सब उसे फर्स्ट नेम से ही संबोधित कर रहे थे। शायद यह उसी का निर्देश होगा कि जिस व्यक्ति के साथ वह रह ही नहीं रही उसका नाम भी क्यों अपने नाम से जोड़कर रखा जाए।

धमेजा वाला काम अब उसे देखना था।

वह धमेजा के पास पहुंची तो धमेजा ने बड़ी सहृदयता से उसे अपने कमरे में बिठाया, ‘‘तुम्हारा स्वागत है पूर्णिमा!’’

कमाल है! पहली मुलाकात में ही धमेजा उससे कितना अनौपचारिक हो गया।

पूर्णिमा को यहां आने में दिक्कत हो रही थी या नहीं, बहुत ठीक पता नहीं चल पा रहा था। फिलहाल वह धमेजा के कमरे में बैठी चाय पी रही है और धमेजा उसे आश्वस्त कर रहा है कि इस अनुभाग में उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होगी, सभी का पूरा सहयोग मिलेगा।

तो क्या सचमुच धमेजा को उसे अपनी रिप्लेसमेंट के तौर पर पाकर कोई दिक्कत नहीं हुई?

छुट्टी हो जाने पर भी धमेजा को घर जाने की हड़बड़ी नहीं थी, वह इत्मीनान से बैठा था।

अगली सुबह पता चला कि धमेजा की ट्रांसफर रुक गई है।

तो पूर्णिमा?

पूर्णिमा भी यहीं रहेगी!

यानी एक ही अनुभाग को अब दो अधिकारी संभालेंगे। पता नहीं धमेजा ने सीनियर बॉस को क्या पट्टी पढ़ाई कि जी एम साहिबा ने दोनों को एक ही अनुभाग में रोक लिया। अब एक ही म्यान में दो तलवारें थीं। अटकलें फिर अपना जोर पकड़ रही थीं। मगर धमेजा बड़ी गुरु चीज है, वह बखूबी संभाल लेगा।

अब समझ रहा हूं कि इस तरह के ऑर्डर चुपके से क्यों निकाले जाते हैं। यहां तो ऐसे-ऐसे धुरंधर बैठे हैं कि निकाला हुआ ऑर्डर वापस करा दिया। अगर इन्हें इसकी पहले से खबर लग जाए, तो ये प्रबंधन को अपनी मर्जी के खिलाफ कोई काम करने ही न दें।

खैर, मुझे इस राजनीति से क्या लेना-देना? इस गहमा-गहमी से बेखबर, मैं अपनी गढ़ी हुई दुनिया के किरदारों के पास जा पहुंचा जहां नूपुर क्वीना का रोल निभा रही थी। और चेहरे अभी बहुत साफ नहीं हुए थे। मैं तो अभी भी बिना किसी रोल के खड़ा था। कारण, मैं पैदाइशी अंकल जी टाइप रहा, बड़ा और समझदार। कभी कोई शरारत नहीं की, किसी टीचर से मार नहीं खाई, घर में पिता से डांट नहीं पड़ी। अब लगता है, ये चुहल-शरारतें जिंदगी में हलचल भरती हैं जबकि मैं इस हलचल से अछूता ही रहा। जिंदगी सीधी रेखा की तरह सामान्य ढंग से चलती रही मगर यह डायरी मेरे भीतर वह हलचल पैदा कर रही है जिसकी अहमियत को मैं अब पहचान पा रहा हूं।

(अगले अंक में जारी....)