Zee-Mail Express - 3 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 3

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जी-मेल एक्सप्रेस - 3

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

3 - क्यू से ‘क्वीन’

हमारे समय में लड़के-लड़कियां एक साथ नृत्य नहीं करते थे। मुझे याद है, मछेरा नृत्य में मछुआरा और मछुआरिन, दोनों के रूप में लड़कियों ने ही नृत्य किया था। बस पोशाक अलग-अलग पहनी थी। मगर अब समय बदल गया है। अब तो लड़कों का डांस खासा चुनौती भरा होता है। मैं कल्पना कर रहा हूं कि वह आर नाम का लड़का अपने खास तरह के डांसिंग अंदाज से क्यू नाम की लड़की को आकर्षित कर रहा है।

मेरे भीतर एक तरह की रूहानी दुनिया आकार लेती जा रही है और मैं महसूस कर रहा हूं कि क्यू लिख कर हस्ताक्षर करने वाली यह लड़की कलात्मक प्रतिभाओं से भरी हुई है।

फिर भी, यह नूपुर नहीं हो सकती। इसका नाम क्यू अक्षर से होगा। अब क्यू अक्षर से क्या नाम हो सकता है? क्यू से क्वीन पढ़ा था, ‘क्वीना’ कैसा रहेगा?

नाम तो क्वीना हो सकता है मगर इस नाम से किसी लड़की की मासूमियत या शरमीलेपन का आभास नहीं मिलता था।

सवाल यह भी था कि क्यू से दूसरा क्या नाम हो सकता था?

ऐसा भी तो हो सकता है कि उसने गुमराह करने के लिए यह नाम रख लिया हो, उसका असल नाम कुछ और हो?

कुछ और मतलब क्या?

मुझे ध्यान आया, अभी हाल में एक फिल्म आई थी-- ‘क्वीन’। उसमें नायिका का नाम तो रानी था मगर आधुनिक नायक उसे क्वीन कहकर पुकारता था।

हो सकता है, इसका भी नाम रानी हो।

पर रानी बहुत पुराना नाम है। मन ने विचार को झटक दिया, आजकल के जमाने में कोई नहीं रखेगा यह नाम। यह कोई हमारे जमाने की नायिका थोड़े ही है, यह तो अंगरेजी स्कूल में पढ़ने वाली, आज की एक तेज-तर्रार लड़की है। इतनी होशियार कि पढ़ने वाले को चकमा दे सके।

अपनी तार्किकता से आश्वस्त होते हुए, मैंने क्यू को क्वीना नाम से स्वीकार कर लिया। वैसे भी, कहानी की नायिका का नाम क्वीना ठीक लगता है।

‘आर’ से रोहन, मैंने नायक का नामकरण किया और डायरी से झांकते वाक्य खंडों को कागज के फटे हुए टुकड़ों की तरह जोड़ने लगा... एक तस्वीर उभरने लगी...

अधनींदी अवस्था में मैं फिर जा पहुंचा उसी डांस रूम में जहां क्वीना और रोहन नृत्य का अभ्यास कर रहे हैं। बाकी सभी बच्चे प्रैक्टिस करके निकल गए हैं मगर क्वीना और रोहन लगातार डांस कर रहे हैं। डांस फ्लोर पर हलका अंधेरा है, वे दोनों एक-दूसरे के बहुत करीब हैं... क्वीना की सांसें इतनी तेज चल रही हैं कि मैं उन्हें साफ सुन पा रहा हूं... जैसे वह मेरे बिलकुल करीब खड़ी है और मैं उसे छू सकता हूं...

“अब उठ भी जाओ, ऑफिस नहीं जाना क्या?” देखता हूं, विनीता मुझे हिलाकर जगा रही है।

आज दफ्तर में उपस्थिति बहुत कम है, सुबह से ही बरसात की झड़ी लगी हुई है। भीगा-भीगा मौसम है और सूना-सूना दफ्तर। धमेजा सोनिया और गीतिका को साथ लिए बैठा है। गीतिका सुंदर है जबकि सोनिया स्मार्ट। मोटी होने के बावजूद सोनिया खुद को मिस यूनिवर्स से कम नहीं समझती और इस कैबिन से उस कैबिन तक लहराती रहती है।

“सर, आज तो पार्टी होनी चाहिए, आपकी नौकरी ज्वाइन करने की एनिवर्सरी है।” सोनिया चहक रही है, “कितने साल हो गए आपकी सर्विस को, सर?” वह धमेजा से पूछ रही है।

गीतिका कुछ बोलती नहीं, मगर सोनिया के साथ मौजूद रहती है।

धमेजा की तो लाटरी लगी है, उर्वशी, मेनका उसके इर्द-गिर्द चक्कर काट रही हैं। आखिर किस विश्वामित्र का धैर्य न डोल जाए। चाय आ गई, पकौड़े भी साथ हैं। मैंने निगाहें खिडकी की तरफ कर ली हैं। वैसे भी मेरी उपस्थिति इतनी खामोश होती है कि किसी का मेरी तरफ ध्यान ही नहीं जाता और अगर कभी जाता भी हो, तो एक मेरी खातिर वे अच्छे-भले मौके को गंवा देना गवारा नहीं करते।

“चलिए न सर, बाहर घूमकर आते हैं।” सोनिया ने धमेजा को लगभग हाथ पकडकर उठा दिया है। तीनों हॉल से बाहर निकल गए हैं। बाहर अभी भी हलकी फुहारें पड़ रही हैं।

मैं हॉल में अकेला रह गया हूं, नितांत अकेला।

ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि मैं इस अकेलेपन से कितना संतुष्ट हूं, मगर एकांत मुझे प्रिय है। कितने नजदीकी शब्द हैं दोनों-- एकांत और अकेलापन, पर कितनी अलग-अलग फितरत है दोनों की। एकांत में ठहराव है, कुछ हद तक संतुष्टि भी, जबकि अकेलेपन में बेचैनी है, खालीपन का अहसास है।

खैर, इस एकांत का लाभ उठाकर मैंने दराज से डायरी निकाल ली और अकेलेपन से बाहर निकल आया।

‘एनुअल फंक्शन’ उपशीर्षक के साथ नये पन्ने पर क्वीना ने लिखा है कि पिछले कई रोज की मेहनत का आज परिणाम आया है। रोहन बहुत खुश है, दोनों की खूब तारीफ हो रही है।

जाहिर-सी बात है, दोनों डांस पार्टनर थे, तो दोनों को बधाइयां मिल रही हैं और संभव है कि डांस की यह पार्टनरशिप दोनों की जिंदगियों में दाखिल होने लगी हो। स्कूलों में तो यह आम बात है। एक उत्सुकता के साथ मैं अपना कैमरा उठाए उस सेलिब्रेशन में चल पड़ा जो रोहन ने कार्यक्रम की नायाब सफलता के नाते केवल क्वीना के नाम रखी है।

स्कूल के बाद वे दोनों डिस्ट्रिक्ट सेंटर जा पहुंचे हैं।

क्वीना ने लिखा है कि क्रिसमस की तैयारियों में दुकानों की सजावट देखते ही बनती हैं, हर ओर रंग-बिरंगी झालरें लटक रही हैं, दुकानों के बाहर तक गिफ्ट आइटम्स की भरमार है, लगता है जैसे मेला लगा है।

इस सारी गहमा-गहमी के बीच रोहन उसका हाथ थामे भीड़ से ऐसे बचाता लिए जा रहा है जैसे वह कांच की गुड़िया हो, जरा किसी का हाथ क्या लगा कि रोहन उसे खो देगा।

सचमुच प्यार का अजब ही नशा होता है। मुझे आज भी याद है उम्र का वह दौर जब मैं नूपुर की एक झलक देखने के लालच में स्कूल को भागा करता था। उस साल मुझे शत-प्रतिशत उपस्थिति का अवार्ड मिला था। मेरे साथी हंस रहे थे, कह रहे थे, “तू अभी तक बच्चा ही है, बड़े होने पर तो क्लासेज़ बंक की जाती हैं...”

मेरे चेहरे पर हलकी-सी मुस्कान उतरने लगी है जिसे मैंने जबरन छुपा लिया है। ठीक वैसे ही जैसे मैं तब अपने चेहरे पर आने वाले भावों को छुपा लिया करता था। कोई भी नहीं जान पाया कि मैं हर रोज स्कूल जाने को इतना लालायित क्यों रहता था। मगर क्या यह मेरी जीत थी? आज सोचता हूं तो खुद पर झल्लाहट होती है, उसे पता तक न चला, ये कैसी दीवानगी हुई!

खैर, सिर झटक कर मैंने डायरी में मुंह छुपा लिया...

रोहन उसके लिए कोई तोहफा खरीदना चाहता है मगर कोई भी तोहफा क्वीना के लायक नहीं बैठ रहा।

मेरी कल्पना ने कुछ विकल्प प्रस्तुत किए। मैंने देखा, वह उसके लिए हरी-हरी चूड़ियां खरीद रहा है...

‘तुम तो अपने जमाने में चले गए यार, आजकल की लड़कियां कांच की चूड़ियां कहां पहनती हैं,’ मेरी सोच ने मेरी कल्पना को सचेत किया।

चश्मा साफ कर मैंने दोबारा देखा—

रोहन ने उसके लिए एक खूबसूरत ब्रेस्लेट खरीदी है। बहुत प्यार के साथ वह उसे उसकी कलाई में पहना रहा है। क्वीना खुश है। दोनों खूब हंस रहे हैं।

डायरी में गड़ी मेरी निगाहें, एक-एक शब्द पर फोकस हैं, वे अपनी कल्पना का रंग तो भर रही हैं, मगर पूरी सजगता के साथ...

रोहन क्वीना को अपने घर ले आया है। इंटरलॉक खोलकर उसने क्वीना के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उनींदा-सा दृश्य दिखाई पड़ रहा है...

रोहन का हाथ थामे क्वीना ने घर में प्रवेश किया है... संकोच में डूबी क्वीना रोहन से और सट गई है... क्वीना की कमर में हाथ डाले रोहन उसे भीतर वाले कमरे में ले आया है। क्वीना ने अपना सिर रोहन के चौड़े कंधों पर टिका दिया है। रोहन उसके चेहरे पर घिर आई बालों की बदली को प्यार से हटा रहा है..., मैं क्वीना का चेहरा देखना चाहता हूं मगर रोहन ने उसे ढक लिया है। वह क्वीना की सुराहीदार गर्दन पर अपने प्यार का इजहार कर रहा है...

क्वीना ने लिखा है कि उसके भीतर अजब-सी उत्तेजना उमड़ रही है। वह खुद को रोकना चाहती है, मगर वह अपनी ही बात नहीं मान रही। उसे लग रहा है जैसे वह बच्ची नहीं रही, अचानक बड़ी हो गई है, ‘ग्रोनअप’ और उसे अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीने का हक है। उसे हक है बहुत कुछ जानने का, अनुभव करने का... चरम तक पहुंचने का...

डायरी की गिरफ्त तेज हो गई है। उन्माद-सा भरने लगा है। सोच रहा हूं, वह किस चरम की बात कर रही है? क्वीना के शॉर्ट नोट्स का विस्तार क्या रहा होगा? बचा हुआ खाली पन्ना मेरी रचनाशीलता को आमंत्रित कर रहा है मगर मेरी कल्पना हैरत से टकटकी बांधे खड़ी है, वह इसके पार नहीं देख पाती।

दरअसल हम उस जमाने के लोग हैं जहां प्रेम का स्वरूप बड़ा सूक्ष्म और उदात्त होता था। शरीर तो स्थूल वासना का प्रतीक था। मगर आज समय काफी बदल गया है। और संयम का तो अर्थ ही नहीं रहा। मेरे ऑफिस का हाल सामने है।

नजर उठाकर देखा तो सोनिया से निगाहें टकरा गईं। वह धमेजा और गीतिका के साथ वापस लौट रही है। नजरें मिल जाने से मैं थोड़ा असहज हो गया, मैंने धीरे से डायरी बंद कर दराज में दबा दी।

कई बार सोचता हूं कि जिस तरह मेरा होना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता उसी तरह मैं भी इनके होने को नजरअंदाज क्यों नहीं कर देता मगर चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाता।

(अगले अंक में जारी....)