चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी
(कहानी पंकज सुबीर)
(7)
इस बार हमने प्लान को बदल दिया था । हमने झाँकी के बाद का प्लान रखा था । बाद का मतलब जब झाँकी के बाद जब रात को मेकअप उतारा जाता है उस समय का । उस समय कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा । उस दिन गरुड़ पर बैठे विष्णु जी की सारे देवताओं द्वारा आरती करने की झाँकी बननी थी । प्लान ये था कि रूई के गरुड़ पर शोएब को बैठा छोड़कर बाकी के हम सब आधा घंटा पहले से ही झाँकी से उठ जाएँगे । सारे लोग तो फिल्म में लगे होंगे, किसका ध्यान जायेगा इस तरफ । और विष्णु जी तो बैठे ही रहेंगे, झाँकी तो विष्णु जी की ही है । आठ बजे फिल्म चालू हो चुकी होगी और नौ बजे झाँकी ख़तम होने का समय होगा। आठ बजे फिल्म चालू हो जाने के बाद भी झाँकी अपने समय नौ बजे तक इसलिये चलती थी क्योंकि कई धार्मिक लोगों का पिक्चर से कोई लेना देना नहीं होता था, वे झाँकी ही देखने आते थे । उनको झाँकी देखने नहीं मिले तो हंगामा खड़ा कर देते थे । पिक्चर शुरू होने से पहले सामने के पूरे मैदान पर अँधेरा कर दिया जाता था, ताकि पिक्चर साफ दिख सके । फिर भी ये लोग अँधेरे में टटोलते टटोलते, लोगों की गालियाँ सुनते, उनको उत्तर में गालियाँ देते झाँकी तक आते, दर्शन करते और उसी प्रकार लौटते थे । कभी कभी कोई उत्साही श्रद्धालु मशीन के ठीक सामने से भी निकल जाता था । उसको थोक में गालियाँ पड़ती थीं । झाँकी में बैठे हम लोग वहीं बैठे बैठे पिक्चर देख लेते थे ।
तो तय ये हुआ था कि हम लोग साढ़े आठ बजे ही उठ जाएँगे, उसके लिये मनीष को अपने साथ घड़ी छुपा कर रखनी होगी ताकि समय का पता रहे। आधे घंटे में जल्दी जल्दी मेकअप-वेकअप साफ करके, मुकुट-वुकुट उतार कर वापस कनात के पास आकर खड़े हो जाएँगे । जब नौ बजे चीनू दीदी आएँ तो कमरे में अकेला शोएब ही उनको मिले । कनात के पास खड़े रहने से दोनों काम हो जाएँगे, पहला वहाँ से पिक्चर भी दिखती रहेगी और दूसरा पहरेदारी भी होती रहेगी । क़मर हसन का प्रस्ताव था कि पूरी योजना के चलने तक हम आपस में कोई बात नहीं करेंगे, सब कुछ इशारों में ही होगा । उसका मानना था कि भले ही फिल्म चल रही हो मगर फिर भी एहतियात ज़रूरी है । योजना के तहत शोएब को किसी भी प्रकार से, तरीके से, बहाने से, चीनू दीदी के आ जाने के बाद पीछे के दरवाज़े की कुण्डी अंदर से लगा देनी होगी, ताकि उधर से फिर कोई न आ सके । कुण्डी लगा देने के लिये शोएब को चार पाँच योजनाएँ दी गईं थीं, उनमें से उसको अपने विवेक से किसी एक पर अमल करना था। कुण्डी लगा देने के बाद शोएब को अकेले ही हिम्मत के साथ योजना का पहला चरण पूरा करना था । पहला चरण पूरा करते ही उसको तुरंत कनात के पास खड़े हम लोगों को आकर बताना होगा, ताकि हम सब योजना का दूसरा चरण अंदर जाकर पूरा कर सकें और हमारी जगह शोएब वहाँ पहरेदारी कर सके ।
इस बार हमने बहुत ही फुलप्रूफ प्लान तैयार किया था । प्लान जिसमें कहीं ज़रा भी असफलता की गुंजाइश नहीं थी । धर्मेन्द्र और विनोद खन्ना का जादू चल रहा होगा। और इधर हम...। सब मेरा गाँव मेरा देश देखने में तल्लीन होंगे । और इधर हम.... । पिक्चर इतनी धाँसू है कि पूरी गणेश उत्सव समिति के वालेन्टियर उधर व्यवस्थाओं में लगे होंगे । और इधर हम.... । आख़िरी दिन होने के कारण हमारे घरवाले भी निश्चिंत होंगे कि आज तो रात भर हमें झाँकी स्थल पर ही रहना होगा । और इधर हम.....। चीनू दीदी के घर के ठीक सामने फिल्म का परदा लगना है सो उनके घर तो उनके परिचितों की भीड़ भाड़ रहेगी, अम्माजी को कहाँ पता चलेगा कि चीनू दीदी कितने देर से उधर गई हैं । और इधर हम....। ‘मेरा गाँव मेरा देश’ में डाकू, घोड़ों पर तबड़क-तबड़क दौड़ते हुए ढिचक्याऊँ-ढिचक्याऊँ गोलियाँ चला रहे होंगे । और इधर हम.....।
सब कुछ हमारी योजना के अनुसार होता जा रहा था । चाचा लोग हमें आकर निर्देश दे गये थे कि हम लोग समय पर झाँकी से उठ जाएँ, उनकी प्रतीक्षा न करें, क्योंकि वे लोग पिक्चर देखने आई भीड़ को सँभालने में व्यस्त रहेंगे । भीड़ सचमुच ज़बरदस्त आई थी । हस्पताल का सामने का पूरा मैदान फुल हो गया था । हस्पताल के घरों की छतों पर भी लोग भरे थे । जिस तरफ देखिये लोग ही लोग थे । माइक से चाचा लोग शांति व्यवस्था बनाये रखने की बार बार अपील कर रहे थे । इतनी भीड़ आज तक किसी पिक्चर में नहीं उमड़ी थी । आस पास के गाँवों से भी बेलगाड़ियों में भर-भर के लोग और लुगाइयाँ आईं थीं । थप के थप, पर्रे के पर्रे, लोगों के चले आ रहे थे और हस्पताल के उस मैदान में समाते जा रहे थे । ठीक आठ बजे झाँकी में जल रही बिजली की सारी झालरें, ट्यूब लाइटें, बल्ब और सारा डेकोरेशन बंद कर दिया गया । बस गणेश जी के सामने जल रहे एक दीपक के अलावा सब चीजें बुझा दी गईं थीं । हमारी झाँकी समेत पूरा मैदान अँधेरे में डूब गया । झाँकी में बस दो ही चीजें दिख रही थीं गणेश जी की मूर्ती और उनके पास ही रूई के गरुड़ पर बैठा शोएब । ये दोनों भी दीपक के हल्के उजाले के कारण थोड़े बहुत दिख पा रहे थे । बाकी के हम सब देवतागण घुप्प अँधेरे में डूब चुके थे ।
मशीन वाले ने पहले एक छोटी सी फिल्म दिखाई जो भारत पाकिस्तान के युद्ध की थी । इन छोटी फिल्मों को पिक्चर से पहले माहौल बनाने के लिये दिखाया जाता था । हम लोग इन फिल्मों के बारे में कहते थे कि मशीन को साफ करने के लिये ये फिल्में दिखाई जाती हैं । दस मिनिट की फिल्म के बाद परदे पर कुछ देर अँधेरा रहा और उसके बाद फिल्म सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र आ गया जिस पर लिखा था ‘मेरा गाँव मेरा देश, हिन्दी, रंगीन, 16 रील’ । उपस्थित भारी जन समुदाय ने परम्परा अनुसार ज़ोरदार तालियाँ बजा कर सेंसर के प्रमाण पत्र का स्वागत किया । दरअसल उस समय यदि कोई सुपरहिट फिल्म दिखाने की घोषणा किसी भी समिति द्वारा की जाती थी तो जब तक सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र पर नाम न पढ़ लें तब तक किसी को विश्वास नहीं होता था कि वही फिल्म दिखाई जायेगी । ऐसा इसलिये क्योंकि अक्सर होता ये था कि प्रचार प्रसार ‘कच्चे धागे’ का होता था और असल में ‘भाभी की चूड़ियाँ’ दिखा दी जाती थी । क़स्बे के दर्शकों को रोने धाने वाली पारिवारिक, सामाजिक फिल्में बिल्कुल पसंद नहीं आती थीं, उनको तो ढिशुम-ढिशुम चाहिये होती थी बस । इसी कारण लोग साँस रोक कर सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र की प्रतीक्षा करते थे । तो लाल परदे पर महात्मा गाँधी का वाक्य लिखा हुआ आया, हिंसा और कायरता में से हिंसा को चुनने को लेकर और उसके तुरंत बाद ‘ढेणटेणें ऽऽऽऽ ढेण ढेण ढेण’ की उसी पापुलर आवाज़ के साथ फिल्म शुरू हो गई । पहले ही सीन में धर्मेंद्र को दौड़ते देख मैदान तालियों और सीटियों से गूँज उठा । ‘मेरा गाँव मेरा देश’ शुरू हो चुकी थी ।
सुपरहिट फिल्म होने के बाद भी हम सबका उस फिल्म में कोई मन नहीं लग रहा था । हम सब का मन तो दौड़ती हुई घड़ी की सुइयों पर ही अटका था । हम सबको ठीक वैसा ही लग रहा था जैसा परीक्षा देने जाने से ठीक पहले लगता था । गरुड़ पर बैठे विष्णु जी भी बार बार हमसे इशारे में पूछ रहे थे समय के बारे में । इधर सारे देवता व्यग्र थे और उधर विष्णु जी । परदे पर धर्मेंद्र और आशा पारेख की नोंक झोंक का आनंद मैदान में बैठे लोग भरपूर ले रहे थे । एक गाना भी हो चुका था ‘सोना लइ जा रे, चाँदी लइ जा रे’ । गाना पहले से ही लोकप्रिय होने के कारण खूब सीटियाँ बजने के साथ साथ दर्शकों द्वारा पंजी और दस्सी (पाँच और दस पैसे के सिक्के) भी उछाले गये थे । पूरा का पूरा माहौल फिल्ममय हो चुका था । हमारे विष्णु जी उत्कंठित अवस्था में गरुड़ पर बैठे मच्छर मार रहे थे । आज उनको देखने भी कोई नहीं आ रहा था । आता भी कहाँ से पूरे रास्ते तो जाम पड़े थे । हर तरफ तो लोग बैठे थे । हम चाहते तो कभी भी झाँकी से सटक सकते थे, मगर हमें तो अपनी योजना के ही हिसाब से चलना था । साढ़े आठ, मतलब साढ़े आठ । उस समय के डाकुओं की यूनीफार्म काले कपड़े पहने, माथे पर काला तिलक लगाये, कान में सोने की मुरकी डाले स्टाइलिश फिल्मी डाकू विनोद खन्ना की इण्ट्री भी हा चुकी थी, मगर हमारी इण्ट्री होने में अभी भी कुछ समय शेष था । ‘पुलिस का मुखबिर बन कर चंबल के बेटों से गद्दारी करता है हरामज़ादे’ टाइप के धाँसू डॉयलाग धड़ा-धड़ बोले जा रहे थे, जिन पर तड़ा-तड़ तालियाँ पीटी जा रहीं थीं । घड़ी की सुइयाँ सरकती जा रहीं थीं और समय धीरे धीरे पास आता जा रहा था ।
और वो समय भी आ गया जिसका हम सब इन्तज़ार कर रहे थे । हमारा झाँकी छोड़ कर ग्रीन रूम में जाने का समय । हमने आपस में सलाह की और एक बार चारों तरफ देखा । हमारी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था । सब उधर ही व्यस्त थे जहाँ एक कटे हुए हाथ का आदमी धर्मेंद्र को बंदूक चलाना सिखा रहा था । फिल्म अपने पूरे शबाब पर थी । हमने विष्णु जी को इशारा कर दिया कि अब हम लोगों के अंदर जाने का समय हो गया है । विष्णु जी ने वहीं से इशारे से हमें स्वीकृति प्रदान कर दी । इशारों में तय होते ही हम सारे देवतागण अपनी अपनी धोतियाँ और मुकुट संभाल कर एक एक करके कनात के पास एकत्र होने लगे। जब सब वहाँ आ गये तो हमने एक बार फिर देखा कि हमारे झाँकी से हटने पर किसी चाचा लोग की नज़र तो नहीं गई है । मगर नज़र जाती कैसे, इधर तो घुप्प अँधेरा था । फिर भी हम योजना के अनुसार ही चल रहे थे । कनात के पास इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ न सूझे । कनात को हटा कर हम अंदर पहुँचे जहाँ हस्पताल का हरे परदे वाला ग्रीन रूम का दरवाज़ा था ।
उस हरे परदे को हटा कर जैसे ही देवतागण चुपचाप ग्रीन रूम के अंदर गये तो वहाँ जा कर सारे देवता एकदम से पत्थर की मूर्ती हो गये । उस लम्बे से गलियारेनुमा ग्रीन रूम के एक सिरे पर हम सब खड़े थे और दूर के दूसरे सिरे पर......। हम जिस जगह खड़े थे वो जगह भी घुप्प अँधेरे में डूबी हुई थी क्योंकि कमरे में जलते रहने वाला पच्चीस वॉट का बल्ब बंद पड़ा था । मगर कमरे के उस दूर के दूसरे सिरे में हल्की हल्की रौशनी थी । रौशनी जो हस्पताल के पिछवाड़े वाले लैम्प पोस्ट की थी और जो खिड़की के धूल खाए काँच से हल्की हल्की छन छन के आ रही थी । रौशनी इतनी भी नहीं थी कि पूरा कमरा रौशन हो जाये, लेकिन वो दूसरा सिरा चूँकि पीछे वाली खिड़की और दरवाज़े के एकदम पास था इसलिये वहाँ बहुत हल्की हल्की रौशनी हो रही थी । एक सिरे पर सारे देवतागण अँधेरे में पत्थर की मूर्ती बने खड़े थे और दूसरे सिरे पर.......।
सारे देवतागण जो चुपचाप बिना बात किये, दबे पाँव झाँकी से उठकर आने की योजना के और इस सिरे के अँधेरे के चलते कमरे के उस दूसरे सिरे को इस प्रकार जागृत अवस्था में देख पा रहे थे । क्योंकि दूसरे सिरे ने उनके आ जाने को महसूस तक नहीं किया, न देखकर, न सुनकर। दूसरा सिरा तो देवताओं के आ जाने के बाद भी अपने काम में पूर्व की ही तरह व्यस्त था । कमरे के उस दूसरे सिरे पर मरीज़ों को ले जाने वाली ट्राली पर पीरिया की पुस्तक ‘असली सचित्र......’ सजीव होकर बिखरी पड़ी थी । वहाँ पर पुस्तक का एक एक चित्र साकार हो रहा था । एक चित्र बनता था तो दूसरा बिगड़ता था । ये शायद वही था जिसके बारे में पीरिया ने हमें बताया था कि नीले रंग की फिल्मों में उस पुस्तक वाली सारी चीज़ें असल में होती हैं । नीले रंग की फिल्म, जिसके बैकग्राउण्ड म्यूज़िक के रूप में मेरा गाँव मेरा देश की आवाज़ें चल रहीं थीं । कमरे के उस दूसरे सिरे पर चम्पा रानी और सेनापति अपने आवश्यक कार्य में प्राणपण से व्यस्त थे। उनको पता तक नहीं था कि राजा, निर्धारित समय से आधा घंटे पहले ही अपने दलबल के साथ शिकार से लौट आया है । राजा और उसका दल अपने कक्ष में प्रवेश कर चुका है तथा जलती आँखों के साथ ये सब कुछ देख रहा है । देख रहा है चम्पा रानी को जो राजा के साथ धोखा कर रही है । राजा का दल बल दौड़ कर सेनापति की मुण्डी काट देना चाह रहा था, मगर पत्थर हो जाने के कारण विवश था ।
हम देवतागण वहाँ से भाग जाना चाह रहे थे, मगर नहीं भाग पा रहे थे । स्वर्ग से निष्कासित किये गये देवताओं की तरह हम वहीं खड़े रहने के लिये श्रापित थे । श्रापित थे अपनी ही आँखों से देखने को उस प्राप्य को जो अब हमारा अप्राप्य होकर कामदेव का प्राप्य हो गया था। हम भाग कर बुला कर लाना चाह रहे थे विष्णु जी को कि आओ और भस्म कर दो इस कामदेव को, जिसने देवताओं हवि में भाँजी मार दी है, अमानत में ख़यानत की है । भस्म कर दो जैसे शिव ने किया था । भस्म कर दो इसके साथ रति को भी । विष्णु जी, जो अभी भी बाहर गरुड़ पर उसी प्रकार बैठे थे, उनको कुछ नहीं पता था कि उनकी पीठ के पीछे जो दीवार है उसके ठीक पीछे क्या चल रहा है । कहावत की भाषा में कहें तो उनके मन के लड्डू अभी भी फूटायमान थे । वे कभी भी गरुड़ समेत ग्रीन रूम में आ जाने को बेताब थे ।
देवताओं ने ‘मेरा गाँव मेरा देश’ का लाभ उठाने की जो योजना बनाई थी, उस योजना पर उनके आने से पहले ही अमल शुरू हो गया था । वही आधे घंटे का वक़्फ़ा जिसका उपयोग हम लोग करना चाहते थे उसका उपयोग कोई और हमारी ही आँखों के सामने कर रहा था । कोई और क्यों, हमारे ही सनिंकल उस वक़्फ़े को हमारे बदले जी रहे थे । हमारी ही वक़्फ़े को, हमारे ही ग्रीन रूम में, हमारी ही चम्पा रानी के साथ । रह रह कर बीच बीच में सेनापति का चश्मा चमक जाता था । सनिंकल और चीनू दीदी ने भी साढ़े आठ से नौ के बीच के उसी आधे घंटे के उपयोग का दाँव खेल लिया था । तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बाहर ‘मेरा गाँव मेरा देश ’ में एक और सुपर डूपर हिट गाना ‘आया आया अटरिया पे कोई चोर, आया आया......’ शुरू हो चुका था । चवन्नियों की बौछार हो रही थी, सब लोग अटरिया पर आये हुए चोर के आनंद में डूबे थे लेकिन देवताओं को श्राप के चलते वो गाना सुनाई ही नहीं दे रहा था बल्कि उसकी जगह सुना रहा था ‘अगर तूफाँ नहीं आता किनारा मिल गया होता....’ ।
(समाप्त)